Saturday 15 March 2014 1 comments

सच को पढूंगा सिर्फ़ कविता की तरह : रवीन्द्र के दास की कविताएं

मित्रो! हिन्दी कविता में नए- नए हस्ताक्षरों के फ़तवों के दौर में रवीन्द्र के दास हिन्दी कविता में एक ऎसा परिचित नाम हैं जिनकी कविता अपने समय- परिवेश में रची- बसी विद्रूप सड़ांध ही नहीं  इस की खूबियों को भी बहुत बारीकी से देखती है। दास की कविताओं को पढना अनुभव की अनुभूतियों से होकर गुजरना लगता है। हो सकता है किसी को उनके शब्द आत्मग्रस्त, आत्ममुग्ध बड़बोलापन लगे पर लगे तो लगे..वे इस मामले में अपने अनुभूत सचों को बहुत ही सच्चे- बेबाक हो उद्घाटित करने के साथ कविता का अपना अलग ही मुहावरा गढते दिखायी देते हैं। रवीन्द्र के दास की ये कविताएं हमारे सामाजिक- साहित्यिक आचरण समाज का वह दर्पण दिखाता है जिससे हरेक अपना मुंह चुरा के बच निकल भाग जाने के गलियारे ढूंढता है।  कभी ’थक गया है कवि’ जैसी बात करनेवाला कवि विश्वास करना चाहता है...

आत्म कथ्य: रवीन्द्र के दास

कविता को लेकर अपनी सोच में वे कहते हैं, "मुझे कभी-कभी.... नहीं, अक्सर लगता है कि कविता को पढ़ना ...कविता(?) को लिखने से काफी आसान है ... कविताओं को लोग सामान्यतः ..."कुछ बातों " की तरह पढ़ लेते हैं... इसलिए कुछ बातों को लिख लेना कौन सा मुश्किल काम है .....!!! कविताओं पर उनकी वाचालता बढ़ी है जो कविता नहीं समझ सकते, बल्कि कविताओं का इकहरा शाब्दिक पाठ कर उनकी ऐसी तैसी कर डालते हैं. 

पर प्रशंसा के भूखे लोग उस निरर्थक सराहना को भी सराहना मान कर खुश रहते हैं.... हो सकता है उनकी कविता की गति वहीँ तक हो ..... इससे साहित्य की दुनिया में एक प्रकार का सड़क का लोकतंत्र आ गया है. 

जैसे अयोग्य उम्मीदवार स्वयं को जिताने के लिए पैसा-कपड़ा-दारू वगैरह बंटवाकर अपना वोट बढ़ाते हैं ... जीत भी जाते हैं. और हम उन्हें गलत कहते हैं. साहित्य की दुनिया में ऐसा करने वालों की निंदा क्यों नहीं करते ?

मैं किसी पर,
मसलन तुम पर,
विश्वास करना चाहता हूँ अटूट जैसा
जैसे कारीगर करता है अपनी हुनर पर
और इसी ताकत से भिड़ा रहता है
इकट्ठी हो गई छोटी बड़ी मुसीबतों से
होता है नाकाम वह भी बहुत बार
जारी रखता है कोशिश
इसके बावजूद। और इस विश्वास करने की इस यात्रा में आनेवाली परेशानियों और विरोधों को अपनी शब्द- यात्रा का संबल मानते हुए
मैं कतई बुरा नहीं मानूंगा
जब तुम कहोगे मुझे बेवकूफ़
होने से बुरा, होकर सुनना नहीं है.
मैं देखना चाहता हूँ अपनी शक्ल
किसी की आँखों में
उसी दैनिक विश्वास से, जैसे
देखता हूँ आईना घर से निकलने से पहले एकबार
जानता हूँ दुनिया बहुत बड़ी है मेरे घर में
लेकिन जाना चाहता हूँ
रवीन्द्र की कविताई को कविता के साथ मनचली शरारतें बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं है
जब कोई मनचला करता है शरारत तेरे साथ
मेरा जी जलता है
जब कोई गढ़ता है सिद्धांत
कि नहीं है जरुरत दुनिया को कविता की
तो जी करता है
बजाऊँ उसके कान के नीचे जोर का तमाचा
...............
बाज़ार ने बना दिया हर चीज को पण्य
तुम्हे भी दल्ले किस्म के हास्य-कवियों ने
बना दिया है सस्ता नचनिया
लोग खोजते हैं कविताओं में गुदगुदी और उत्तेजना
तो भी ओ कविता!
मैं करता भी हूँ
और दिलाता भी हूँ तुम्हे यकीन
कि प्यार और कविता का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता
चाहे सटोरिये, चटोरिये, पचोरिये -
लगा लें कितना भी जोर....उनकी दृष्टि में यह बहुत ही कठिन समय है जिन में मेंढकों को तराजुओं में तौला जा रहा है। अपने समय के ये विषलै यथार्थ ही उनकी कविताओं में नयी ऊर्जा देते रहते हैं। 

रवीन्द्र के दास

07 अक्तूबर 1968 को ग्राम इजोत जिला मधुबनी (बिहार) में जन्मे कवि और आलोचक रवीन्द्र के दास
उत्पल पत्रिका में "सब्दहि सबद भया उजियारा" नामक आलोचना का नियमित कॉलम लिखते हैं। शंकराचार्य का समाज दर्शन, जब उठ जाता हूं सतह से (कविता संग्रह), सुनो समय जो कहता है (काव्य संग्रह संपादन), उपदेश साहस्री: समालोचन संस्करण, अनुवाद, भूमिका और टिप्पणियां (सेंगाकू मायेदा) का हिन्दी अनुवाद व सुनो मेघ तुम कालिदास कृत मेघदूत का काव्यानुवाद आदि प्रमुख प्रकाशित कृतियां हैं।

सम्पर्क
68 - सी, डीडीए फ़्लैट्स, पॉकेट-1 सेक्टर-10, द्वारिका, नई दिल्ली -110075 e- mail: dasravindrak@gmail.com mob.no. 08447545320 



रवीन्द्र के दास की कविताएं

जो प्रेम के व्याकरण से विरुद्ध था


सच का दावा, कोई बात नहीं 
एक शिकायत है,
जो उपलब्ध है हर जुबान पर
सच से प्रेम कोई प्रेम नहीं 
एक रणनीति है
जो अपनाई जाती है प्रतिपक्ष को धराशायी करने को.

ऐसा मेरा अनुभव है 
जलाती ही नहीं है आग .. सबको
गर्मी भी देती है 
देशकाल परिवेश के बदलने से .. व्यक्ति के बदलने से
मैंने भी कर लिया था प्रेम
देखा-देखी लोगों के
लेकिन नायिका के मुंह से निकलती बदबू 
दिक्कत में आ गया
तो मैंने उसकी सांसों को बदबूदार बता दिया
जो सर्वथा विरुद्ध था 
प्रेम के व्याकरण से

ऐसी वैयाकरणिक भूलें मैं करता रहा
लड़ता रहा अपने आप से
और आज अकेला अँधेरे में बैठा हूँ
उपेक्षा और अपमान की गठरियां संभाले हुए
लेकिन टूटा नहीं है विश्वास
कि सबसे अच्छा है सच बोलना 

चले जाते हैं अक्सर लोग
तरस खाते हुए मेरी बेबसी पर
समझाते हुए
कि सच बोलो का मुहावरा बच्चों के लिए है 
जो नहीं समझते हैं फर्क
सच और झूठ का 
खैर ... जो कहें लोग , पर मुझे दिख पड़ा है रास्ता
कि रहूँ मौन 

वास्तविकता तो यही है कि मैं हूँ कौन
जिसके चुप रहने से
न तो शेयर बाजार का भाव गिर जाएगा
न ही रामदेव बाबा की योग की दुकान बंद हो जाएगी
पर ... इतना तो होगा
झूठ बोलने का खयाल जो कौंधता है कभी कभी
वह गुम हो जाएगा.

जागते का कोई दुःस्वप्न


रास्ते पर उसने आडी तिरछी लकीरें खीचीं
वह लकीरें बना नहीं रहा था
फिर भी बनाईं
और अचानक चौंक उठा कि कहां से रिस रहा है खून
उसने हाथ पीछे झटक लिया
वैसे ही जैसे
मौत से बचने के लिए भागेगा 
कोई बेतहाशा

किसी अपराधी का दोस्त नहीं है वह
दुश्मन भी नहीं
पर कई अपराधों के किस्से जानता है वह
और मानता है कि कोई न कोई
एक कमरा रहता है 
सबके दिमाग में अपराध का
जब तक बन्द रहे, बन्द रहे
कमरे को पूरी तरह बन्द कर देने के बाद भी
आप आवाज़ों को बन्द नहीं कर सकते हैं
घुटी ही सही पर निकलेगी ज़रूर
कि आ जाती है तभी उसकी प्रेयसी
जिसकी प्रतीक्षा ने उससे खिंचवाई है 
आडी तिरछी लकीरें

उसे वह उसी नज़र से देखता है कि जैसे
उसीने वह बन्द कमरा
बिना उससे पूछे ही खोल दिया हो
चल पडता है उठकर,
जैसे अभी वह कमरा बन्द करने जा रहा हो
प्रेयसी का मनुहारी मुस्कुराना
चिढाने जैसा लगता है
तभी बज उठता है उसका फोन
हलो, भैया ! मेरा टेक्स्ट बुक लाना मत भूलना

बन्द हो जाता है वह कमरा अनायास
और पास खडी प्रेयसी
दिखती है प्रेयसी
गोया अभी टूटा हो जागते का कोई दुःस्वप्न


बनाओ मुझसे नए खिलौने 


मिट्टी और मेरा रिश्ता 
वही नहीं है
जो कुम्हार का है
वह तो मिट्टी का सच 
जान गया है
वह कच्ची मिट्टी से बने बरतनों को 
हर बार कोशिश करता था 
पक्का करने का 
और हर बार यही कहता 
मिट्टी की किस्मत ! 

और मैं डरता था मिट्टी में मिलने से 
सो जरा सी मिट्टी छूते ही 
नहाता हूं खूब रगड रगड के 
गोया मैं नफ़रत करना चाहता हूं
मिट्टी से 
लेकिन न जाने क्या बात है
मिट्टी की उस गंध में 
कि मैं बेसुध खिंचा जाता हूं
उसकी ओर 

और तन्द्रा भंग होने पर सोचता हूं
राग ही मृत्यु है 
एक चक्र कि जीवन है तो राग है 
राग है तो मृत्यु 
और मृत्यु है ... नहीं, 
भय है तो तुम्हारी जरूरत है 
वही मेरे हिस्से का प्रेम है 

मिट्टी से अपना रिश्ता तोडूं तो 
जोडूं तो 
तुम बीच में रहना जरूर 
मैं मिट्टी से खेलने वाले कुम्हार को 
नहीं बनाना चाहता हूं साक्षी 
मैं साक्षी बनाना चाहता हूं तुम्हें 
कि गूंद कर मुझे 
बनाओ मुझसे नए खिलौने 
सुन्दर ... 
और उसे रखो कच्चा
आग में झुलसा पका कर 
मत करो पक्का 
पक्के रिश्ते दुःख देते है


आलोचक 


आलोचक जो पहचानता है 
चुनता है 
कूडे की ढेर से 
सार्थक टिकाऊ वस्तुएं 
और सजाता है करीने से 
और तब दिखने लगती है 
वे काम की वस्तुएं 
काम की हैं, सार्थक हैं 
समझ लेता है एक अनाडी भी 

इसी क्रम में 
जो कि स्वाभाविक है 
ढेर लग जाती है छांटन की 
और छंटी वस्तु के स्वत्वाधिकारी 
बौखलाते है 
चिढकर बडबडाते हैं
मेरे नगीने में नुस्ख निकालने वाला 
कौन होता है यह 
खुदमुख्तार आलोचक 
इसने ली होगी रिश्वत 
तारीफ़ करने की

और सज जाता है 
इन नगीनों का मीनाबाज़ार 
देखने वाले कहते भी हैं
सचमुच नायाब हैं आपकी कविताएं 

इन तमाशों से 
कतई नहीं घबराता है आलोचक


अच्छे लोगों की जमात होती है 


अच्छे लोगों की जमात होती है 
एक पक्की जमात 
भीड में भी अच्छे लोग 
छांट लेते है अच्छे लोगों को 
ये लोग उन लोगों से, जो अच्छे लोग नहीं होते हैं
मिलते तो हैं
पर पानी पर तेल की सतह की मानिंद 
मिलते नहीं है 
तैरते रहते हैं ऊपर ही ऊपर 

अच्छे लोग 
बहुधा गोलबन्द होते हैं 
जब भी कोई अच्छा नहीं व्यक्ति 
उठाता है कोई सवाल 
सभी अच्छे लोग 
उस अच्छे नहीं को इतना बुरा कहते हैं
इतना बुरा कहते है 
कि अच्छे लोगों का 
अच्छा होना अक्षुण्ण रहता है 

अगर अच्छे लोग आपसे घुले मिले हैं
तो मुझे शक है
कि आप भी 
उन्हीं अच्छे लोगों में से एक हैं 
जिन अच्छे लोगों की जमात होती है


बात जब लोकतंत्र की है 


जब बात लोकतंत्र की है 
फिर सवाल ही कहां उठता है औचित्य का 
चाहे भाषा में 
या राजनीति में 
या फिर बाज़ार में, मसलन
हेयर रिमूवर क्रीम के साथ 
स्लीवलेस ड्रेस मुफ़्त 
जैसे शिक्षा भी, समाधान भी 
पीढियों के संजोए अरमान भी 
किफ़ायती दामों में 

चन्द सिक्कों में 
बिकते हैं दस्तूर आज़ादी के 
और वे सिक्के उगाहे जाते हैं
आज़ादी के औजार से 
छोडना होता है पिंड 
और छोडना होता है जननीजन्मभूमिश्च का मोह 
बस्स ... 

अमीरज़ादियों की जघनास्थियों को देखकर 
बीमार हुए मर्द 
ढाते ज़ुल्म 
बेबस औरतों, मासूमों, नौनिहालों पर 
बनता सुर्खियों का समाचार 
उठती फिर हुंकार 
अमीरों की बस्ती से 
हाय पुलिस ! हाय सरकार !! 
[कोई भूल से भी नहीं कहता हाय हाय बाज़ार !]

वहां, 
जहां जीवन मयस्सर नहीं
लोकतंत्र है
भाषा में भी, राजनीति में भी 
रोक तो सकते नहीं 
समाज सुधार का पैसा लोअर-हिप की जेब में 
खप जाता है 
अगले अन्याय की खबर की प्रतीक्षा में 
तब तक 
कांख से , और भी कहीं कहीं से ...
बालों को हटाते है 
इस तरह 
समाज और राष्ट्र की तरक्की में 
वे अपना हाथ आजमाते है


घुस आता उसके देह पिंजर में कोई प्रेत 


सांकल चढा जैसे ही वह मुडा 
उसने महसूस किया कि दुनिया कहीं पीछे छूट गई
और बडी बेसब्री से सांकल उतारी 
और निकल आया बाहर सडक पर 
जहां थका सा सुनसान 
औंधे मुंह पडा था 
और उसने सूरज के निकलने की कामना की 

ऐसा हर बार होता है जब वह सोचता है 
यदि ऐसा हुआ तो वैसा होगा 
और ऐसा नहीं होता है, इसीलिए वैसा नहीं होता है 
और विजेता भाव से सोच लेता है फिर 
ऐसा तो वैसा ...

कहने को चाहे कितनी भी बडी हो दुनिया 
लेकिन जब भी वह 
अपना रकबा नापता है तो तंग ही पाता है 
और तभी 
उसे मिथकों और आख्यानों पर अनास्था हो आती है 
मन भागता रहता है बेलगाम, पर पैर 
कब मुड गए उसी सांकल वाले कमरे की तरफ़ 
उसने न जाना 
कि उसने फिर चढा ली है सांकल 

वह जब भी हो जाता बेबस 
हो जाता है खुद से गैरहाज़िर 
गोया घुस आता उसके देह पिंजर में कोई प्रेत 
जिसका बुरा माने 
उसके पहले हो चुकता है बेसुध


सुनो, समय क्या कहता है 


सिर्फ़ आस पास की बहकी और बहशी बातें 
सुरूर दिलाती हों
यह मुमकिन है मगर 
समय को अनसुना करने वाले के साथ 
कभी न्याय नहीं करता है इतिहास विधाता 

एक समय ही है 
जो दोहराता नहीं है अपने को 
न अपनी बात के उच्चारण को स्पष्ट करता है 
न रचता है कोई दस्तावेज़ 
और तो और वह इतना महीन वार करता है 
कि हमें महसूस करने का 
एक पल तक नहीं देता 

लेकिन समय है वह 
हमारी सोच में भी और हमारी सोच के बाहर भी 
और हम एक दूसरे की बदसूरत निहारने में बेहाल 
और साफ़ कहें तो
निढाल पडे हैं किसी कमरे में 
गोल बनाकर बैठे से 

जैसे तुम मेरी बातों को अनसुना कर रहो 
मुमकिन है 
कि कर रहे होगे 
समय के बयान को भी नज़र-अन्दाज़ 
कृतघ्नता की घुट्टी 
हम सबने अकेले अकेले पी तो है ही 
समय तो आता नहीं किसी हाथ पकडने 
खेलो, खाओ, आंखों से गाओ, दिल से बजाओ 

पर एक कवि फिर भी यह कहेगा जरूर 
कि सुनो 
समय क्या कुछ कहता है 
इसके लिए इतना तो करना होगा 
कि निकलना होगा अपने सुरक्षित खोल से


सच को पढूंगा सिर्फ़ कविता की तरह 


तुम लिखो 
सच का एक एक हर्फ़ 
उस एक एक हर्फ़ को 
मैं कविता की तरह पढूंगा 
और महसूस करूंगा उसमें तुम्हें 
उस रूप में 
जब तुमने
सच से बचते भागते
शरण ली थी कविता की
मैंने देखी है ताकत सच की 
कि कैसे बिलबिलाता हुआ 
भागता फिरता है 
मनमोहक वर्जनाओं के सम्मुख 
कि कैसे गिरता है औंधे मुंह 
छोटी छोटी रवायतों के आगे
इतिहास के जितने प्रसिद्ध सच है 
वे सारे षड्यंत्रों के विशेषण हैं 
इस तरह 
यह समझ लेना कतई मुश्किल नहीं 
कि जहां सत्य का उद्घोष हो 
वहीं आसपास 
छिपा होता है कोई गहरा षड्यंत्र
तो भी यदि तुम्हें मोह है 
सच से 
तो जरूर कहो अपना सच 
पर मैं उसे पढूंगा 
सिर्फ़ कविता की तरह

 
तुम्हारा चले जाना 


तुम्हारा चले जाना 
गली के रास्ते का बन्द हो जाना था 
जिसमें घुस गया मुसाफ़िर 
एक बार झेंपता तो है ज़रूर 
पर मुड आता है वापस 
किसी खुली गली में जाने को 
कि रास्ते खत्म नहीं होते 

न खत्म होती है ज़िन्दगी ही
बन्द गली के 
आखिरी मकानों में भी 
यकीनन सांस लेती ही है उम्मीदें
कि प्रेम मेरे हृदय का 
जो तुम्हारे लिए था
वह बना रहेगा 
बदलेगा कुछ तो वह है तुम्हारा चेहरा 

तुम्हारा चले जाना 
बदल जाना था तुम्हारे चेहरे का 
जो न तुम्हें मालूम था 
न मुझे !  

- रवीन्द्र के दास

Popular Posts

©सर्वाधिकार सुरक्षित-
"उदाहरण" एक अव्यवसायिक साहित्यिक प्रयास है । यह समूह- समकालीन हिंदी कविता के विविध रंगों के प्रचार-प्रसार हेतु है । इस में प्रदर्शित सभी सामग्री के सर्वाधिकार संबंधित कवियों के पास सुरक्षित हैं । संबंधित की लिखित स्वीकृति द्वारा ही इनका अन्यत्र उपयोग संभव है । यहां प्रदर्शित सामग्री के विचारों से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है । किसी भी सामग्री को प्रकाशित/ अप्रकाशित करना अथवा किसी भी टिप्पणी को प्रस्तुत करना अथवा हटाना उदाहरण के अधिकार क्षेत्र में आता है । किस रचना/चित्र/सामग्री पर यदि कोई आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें, उसे हटा दिया जाएगा।
ई-मेल:poet_india@yahoo.co.in

 
;