मित्रों आज उदाहरण में हैं युवा कवि हरीश बी. शर्मा। दैनिक भास्कर, हनुमानगढ, राजस्थान के प्रभारी हरीश बी. शर्मा पत्रकार से पहले एक संवेदनशील रचनाकार के रूप पहचाने जाते हैं। हाल ही में केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा नव घोषित सर्वोच्च बाल साहित्य पुरस्कार राजस्थानी भाषा के लिए उनकी कृति सतोळिया के अलावा राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से नाट्य विधा के लिए दिए जाने वाले देवीलाल सामर पुरस्कार से भी नवाज़ा जा चुका है। अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में उनका कहना है,’ मैं यही जान पाया कि समय के साथ रचना की जुगलबंदी ही सृजनात्मक क्षणों की अभिव्यक्ति है। मैं कभी खुद को किसी सांचे में नहीं ढाल पाया। एक विचार या विधा का नहीं हो पाया। इसकी वजह भी है। मुझे अपनी रचनाओं को विचारधारा या प्रचलित विमर्शोँ के पेटे समझना या समझाना अपमानजनक लगता है। हां, कहने का माध्यम जरूर बदलता रहा। ऐसे ही किसी समय में मैं कविताओं से दूर हो गया। नाटकों और कहानियों के करीब। हरीश जी की इन कविताओं का स्वर में लेखन के बारे में उनकी सोच की ताकीद करता है। हरीश का कवि जूझता रहता है अपने आपसे, अपने आस-पास से, एक छटपटाहट कुरेदती रहती है उसकी अनुभूतियों को..सहमति-असहमति सब कुछ दर्ज है यहां बिना किसी लाग-लपेट के...
हरीश बी. शर्मा का जन्म 9 अगस्त 1972 को कोलकाता में हुआ लेकिन वे बीकानेर के मूल निवासी हैं और पत्रकारिता में स्नातक और हिंदी में स्नातकोत्तर हैं । अपने पहले राजस्थानी कविता संग्रह ‘थम पंछीडा’ के शीर्षक से ही चर्चा में आए हरीश का दूसरा कविता संग्रह भी ‘फिर मैं फिर से फिरकर आता’ भी खासा चर्चित रहा। इसके अलावा किशोर वय के पाठकों के लिए लिखे उनके किशोर कहानी संग्रह ‘सतोळियो’ को हाल ही में केंद्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने राजस्थानी वर्ग में बाल साहित्य का नवघोषित सर्वोच्च पुरस्कार दिया है। हिंदी और राजस्थानी में लगभग २० नाटक लिख चुके शर्मा के अधिकांश नाटक मंचित हैं। इन नाटकों में- हरारत, भोज बावळो मीरां बोलै, ऐसो चतुर सुजान, सलीबों पर लटके सुख, सराब, एक्सचेंज, जगलरी, कठफोडा, अथवा-कथा,देवता, गोपी चंद की नाव, प्रारंभक, पनडुब्बी प्रमुखत: है।
सम्पर्क: बेनीसर बारी के बाहर, बीकानेर(राज)
मो.न. 9672912603
हरीश बी. शर्मा की कविताएं
मुझे लौटना है
मुझे लौटना है
बिल्कुल
तय है लौटना
लेकिन
तुम्हारे पास नहीं
हां, तुम्हारे पास भी नहीं
बिल्कुल नहीं
बिल्कुल
तय है लौटना
लेकिन
तुम्हारे पास नहीं
हां, तुम्हारे पास भी नहीं
बिल्कुल नहीं
क्योंकि तुम नाम हो
अब मुझे नहीं चाहिए कोई भी नाम
पहचान
जगह
संज्ञा
नहीं चाहिए सर्वनाम
कोई विशेषण
...
यहां तक लौटने की चाहत
खत्म हो रही है मेरी
या के घुटन होने लगी है यहां
या के अब और पाना चाहता हूं
है...! कोई है?
दे सकते हो तुम?
तुम...?
हां, बोलो तुम भी...?
कोई भी... जो सक्षम हो!
बोलो-बोलो-कोई तो हो
देह न अदेह
प्राण से परे
जीवात्मा न परमात्मा
सब भटक रहे हो-मुक्ति के लिए
तुम लोगों से-मुझे क्या मिलेगा बोलो
बोलो-मुझे क्या दोगे?
अब तक मेरी और तेरी चाहतों में
फर्क ही क्या रहा जो
सुकून की आस करुं तुझसे?
या के तुम मुझसे राहत पाओ!
छोड़ो भी सब, छोड़ो भी अब
तुम अपनी जानो-जाना है तो जाओ
वरना लौट जाओ
मुझे जाना है
लौटना है, लौटना है, लौटना है
बस! याद रखना मेरे पीछे आने से भी कुछ ना मिलेगा
आज तक अनुयायियों को संप्रदाय ही चलाने पड़े हैं
सब कुछ जानते अपने देवताओं के झूठ-सच
निभाने पड़े हैं-मंत्र
होमनी पड़ी है आस्थाएं
तुम ऐसा मत करना
मेरे कहे का संप्रदाय मत बनाना
मेरे से आस्था मत जोडऩा
जो खुद को ही नहीं ढूंढ़ पाया
बहुत पहले ही हो चुका है तुम्हारे सामने नंगा
सनद रहे-यह नग्नता साधना नहीं है
तुम भ्रम में मत पडऩा
मैं जानता हूं तुम भ्रम में नहीं, कौतुहल में हो
जानना चाहते हो
मैं
ऐसा हूं या वैसा
मिलेगा जवाब
मैं आऊंगा-बताने
इसीलिए लौटना है मुझे
मांगना है जवाब
दिग से, दिगंत से
मेरे होने के कारक बने उन सभी से
जो कर रहे हैं मेरा इंतजार
मैं जानता हूं
वे बेहद खुश होंगे
वे बुला रहे हैं
तुम इसे मेरी तरह लौटना ही कहना
वे भी इसे लौटना ही समझें तो बेहतर
सुना है
लौटने का कहकर निकले बहुतेरे
आज तक उन तक पहुंचे नहीं हैं
मुझे लौटना है
मुझे लौटना है
मुझे लौटना है
*****
अब मुझे नहीं चाहिए कोई भी नाम
पहचान
जगह
संज्ञा
नहीं चाहिए सर्वनाम
कोई विशेषण
...
यहां तक लौटने की चाहत
खत्म हो रही है मेरी
या के घुटन होने लगी है यहां
या के अब और पाना चाहता हूं
है...! कोई है?
दे सकते हो तुम?
तुम...?
हां, बोलो तुम भी...?
कोई भी... जो सक्षम हो!
बोलो-बोलो-कोई तो हो
देह न अदेह
प्राण से परे
जीवात्मा न परमात्मा
सब भटक रहे हो-मुक्ति के लिए
तुम लोगों से-मुझे क्या मिलेगा बोलो
बोलो-मुझे क्या दोगे?
अब तक मेरी और तेरी चाहतों में
फर्क ही क्या रहा जो
सुकून की आस करुं तुझसे?
या के तुम मुझसे राहत पाओ!
छोड़ो भी सब, छोड़ो भी अब
तुम अपनी जानो-जाना है तो जाओ
वरना लौट जाओ
मुझे जाना है
लौटना है, लौटना है, लौटना है
बस! याद रखना मेरे पीछे आने से भी कुछ ना मिलेगा
आज तक अनुयायियों को संप्रदाय ही चलाने पड़े हैं
सब कुछ जानते अपने देवताओं के झूठ-सच
निभाने पड़े हैं-मंत्र
होमनी पड़ी है आस्थाएं
तुम ऐसा मत करना
मेरे कहे का संप्रदाय मत बनाना
मेरे से आस्था मत जोडऩा
जो खुद को ही नहीं ढूंढ़ पाया
बहुत पहले ही हो चुका है तुम्हारे सामने नंगा
सनद रहे-यह नग्नता साधना नहीं है
तुम भ्रम में मत पडऩा
मैं जानता हूं तुम भ्रम में नहीं, कौतुहल में हो
जानना चाहते हो
मैं
ऐसा हूं या वैसा
मिलेगा जवाब
मैं आऊंगा-बताने
इसीलिए लौटना है मुझे
मांगना है जवाब
दिग से, दिगंत से
मेरे होने के कारक बने उन सभी से
जो कर रहे हैं मेरा इंतजार
मैं जानता हूं
वे बेहद खुश होंगे
वे बुला रहे हैं
तुम इसे मेरी तरह लौटना ही कहना
वे भी इसे लौटना ही समझें तो बेहतर
सुना है
लौटने का कहकर निकले बहुतेरे
आज तक उन तक पहुंचे नहीं हैं
मुझे लौटना है
मुझे लौटना है
मुझे लौटना है
*****
याद
याद...!
तू मक्कार है।
कहा था नहीं आएगी।
आ गई ना...
अब सोच
ओढूं ना बिछाऊं
खिलाऊं ना पिलाऊं...
कहां जाएगी?
बता... बोल...
है कुछ अता-पता
है कुछ याद भी?
तू मक्कार है।
कहा था नहीं आएगी।
आ गई ना...
अब सोच
ओढूं ना बिछाऊं
खिलाऊं ना पिलाऊं...
कहां जाएगी?
बता... बोल...
है कुछ अता-पता
है कुछ याद भी?
*****
गीत जैसा कुछ
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
वह लगे सुहानी बरखा सी
सूखे मरु को है सरसाती
कभी संवेदन, कभी स्पंदन
कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
वो प्रणय कवि की ज्यों पंक्ति
वह कशिश गजल का मतला ज्यूं
वह छुअन बहारों की समीरा
वह लाज उदित होते रवि की
वह छन-छन पायल की भाषा
वह हंसी कहीं बिजली चमकी
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
वह घनश्यामल बिखरी जुल्फें
वह दीपशिखा मद्धिम-मद्धिम
वह बंदनवार बहारों की
वह चरम बसंती पुरवाई
वह लय है गीतों की मेरे
वह वीणा मेरी वाणी की
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
वह दिल में बसी प्यारी मूरत
वह जिसे सजाया ख्वाबों में
वह झील-सी गहराई जिसमें
हम डूबते ही हर बार चले
वह खिलता कमल, सिमटी दुल्हन
वह तुलसी मेरे अंगना की
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
वह लगे सुहानी बरखा सी
सूखे मरु को है सरसाती
कभी संवेदन, कभी स्पंदन
कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
वो प्रणय कवि की ज्यों पंक्ति
वह कशिश गजल का मतला ज्यूं
वह छुअन बहारों की समीरा
वह लाज उदित होते रवि की
वह छन-छन पायल की भाषा
वह हंसी कहीं बिजली चमकी
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
वह घनश्यामल बिखरी जुल्फें
वह दीपशिखा मद्धिम-मद्धिम
वह बंदनवार बहारों की
वह चरम बसंती पुरवाई
वह लय है गीतों की मेरे
वह वीणा मेरी वाणी की
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
वह दिल में बसी प्यारी मूरत
वह जिसे सजाया ख्वाबों में
वह झील-सी गहराई जिसमें
हम डूबते ही हर बार चले
वह खिलता कमल, सिमटी दुल्हन
वह तुलसी मेरे अंगना की
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
*****
एक भी रेशा
एक भी रेशा
रेशा-रेशा
रेशे लिए हाथ में
खेलता रहा
रेशे खुलना चाह रहे थे
उंगलियों के
अभिप्राय से
नहीं चाहता था ऐसा
क्योंकि
अपेक्षा थी किसी की
भला क्यों
उतरता उसकी अपेक्षाओं पर खरा
हां, मैं खोल सकता था रेशा-रेशा
लेकिन उलझाता रहा
और एक दिन जब लगा
हद हो गई है
अब तो खोल ही दूं रेशा-रेशा
जवाब दे दिया उंगलियों ने
उलझ चुकी थी मेरी उंगलियां
खुद के अभिप्रायों से
उसे आज भी लगता है
मैं खोल सकता हूं रेशा-रेशा
मैं
चकाचौंध हूं
इस कथित अपने आभा मंडल में
क्या कभी मुझे यह सब आता था?
सच तो यही है कि
मैं तो कभी खोल ही नहीं पाया-एक भी रेशा
हां, एक भी रेशा
रेशे लिए हाथ में
खेलता रहा
रेशे खुलना चाह रहे थे
उंगलियों के
अभिप्राय से
नहीं चाहता था ऐसा
क्योंकि
अपेक्षा थी किसी की
भला क्यों
उतरता उसकी अपेक्षाओं पर खरा
हां, मैं खोल सकता था रेशा-रेशा
लेकिन उलझाता रहा
और एक दिन जब लगा
हद हो गई है
अब तो खोल ही दूं रेशा-रेशा
जवाब दे दिया उंगलियों ने
उलझ चुकी थी मेरी उंगलियां
खुद के अभिप्रायों से
उसे आज भी लगता है
मैं खोल सकता हूं रेशा-रेशा
मैं
चकाचौंध हूं
इस कथित अपने आभा मंडल में
क्या कभी मुझे यह सब आता था?
सच तो यही है कि
मैं तो कभी खोल ही नहीं पाया-एक भी रेशा
हां, एक भी रेशा
*****
तब तक
तूने जब सेंध लगाई
छैनी से भी पहले
आंगन में फैल गई
तेरी रोशनाई
रेत, किरचें और उधर से आती किरण
हां, सूरज तेरा-मेरा अलग नहीं था
किरचें और रेत थी मेरी
मेरी दीवार से
फिर जाने क्यों लगता रहा जैसे
सब कुछ था प्रेरित-अभिप्रेरित
उधर से, तेरी ओर से
छैनी करती रही सूराख
टकराया तेरा होना
तेरे होने का अहसास
अलग था कुछ-अब तक अनदेखा
वजूद जो चाहता था चुरा लेना
मैं निश्चित, आश्वस्त!
क्या?
था क्या मेरे पास
चुराने लायक?
मैं भी समेट कर घुटने
टेक कर पीठ दीवार से
करने लगा इंतजार
चलती रही हथौड़ी
पिटती रही छैनी
बढऩे लगा आकार
सब कुछ दिखने लगा आरपार
मेरा बहुत कुछ जा चुका था उधर
छैनी से भी पहले
आंगन में फैल गई
तेरी रोशनाई
रेत, किरचें और उधर से आती किरण
हां, सूरज तेरा-मेरा अलग नहीं था
किरचें और रेत थी मेरी
मेरी दीवार से
फिर जाने क्यों लगता रहा जैसे
सब कुछ था प्रेरित-अभिप्रेरित
उधर से, तेरी ओर से
छैनी करती रही सूराख
टकराया तेरा होना
तेरे होने का अहसास
अलग था कुछ-अब तक अनदेखा
वजूद जो चाहता था चुरा लेना
मैं निश्चित, आश्वस्त!
क्या?
था क्या मेरे पास
चुराने लायक?
मैं भी समेट कर घुटने
टेक कर पीठ दीवार से
करने लगा इंतजार
चलती रही हथौड़ी
पिटती रही छैनी
बढऩे लगा आकार
सब कुछ दिखने लगा आरपार
मेरा बहुत कुछ जा चुका था उधर
*****
कहां है तू!
निशानईश्वर
जिस पर
विश्वास है बहुत
कहता है-
सोचकर तो देख
हाजिर-नाजिर
न हो तो कहना-
जो तूने सोचा
जो तूने चाहा
अब
ये सोचा-चाहा
जिम्मे है तेरे
संभाले
बिगाड़े
बढ़ाए या
खपा दे
करना तूने ही है
मैं
पगलाया
हकलाया
हड़बड़ाया
चिल्लाता हूं-
कहां है तू!
कोई नजर नहीं आता
सिवाय कुछ निशानों के
जिन पर उंगलियां बनी हैं
...ईश्वर की
हां, बहुत है मेरे पास
ईश्वर का दिया
*****
2 comments:
nice post
bahut badiya. harishji ko bahut bahut badhai
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