Thursday 14 June 2012 0 comments

रामदेव आचार्य की कविताएं

मित्रो! उदाहरण में आज है 15 जून को बीकानेर में जन्मे हिन्दी व राजस्थानी के पुरोधा कवि व सत्तर के दशक के चर्चित व आम आदमी के आक्रोश के स्वर देने वाले कवि स्व. रामदेव आचार्य की 78वीं जयंति पर उनकी कुछ चुनी हुयी कविताएं। रामदेव आचार्य की इन कविताओं को आप पढेंगे तो आपका तात्कालिक आलोचना की एक और कारगुजारी से साक्षात्कार होगा।  रामदेव आचार्य की ये कविताएं उस समय की ही नहीं आज की भी प्रासंगिकता लिए दिखेंगी। इन कविताओं में उपेक्षित की पीड़ा व आक्रोश को कवि ने बहुत ही सहज लेकिन चमत्कारिक ढंग से व्यक्त किया है। इसका प्रमाण कवि के इस आत्मकथ्य से समझा जा सकता है कि कविता कवि के लिए सिर्फ़ कविता भर नहीं है। आचार्य के शब्दों में,’अपनी कविताओं को शिल्प और कथ्य की दृष्टि से एकान्विति के रूप में देखूं तो मैं कहूंगा कि आभिजात्य के मोह से रिक्त मेरी कविताएं सहजता-साधारणता-आत्मीयता की कविताएं हैं। मेरे लिए कविता का सत्य एक गहरा और त्रासदायक अनुभव है। मैं कविता लिखते समय एक भीतरी व्यथा से संत्रस्त हो जाता हूं। मेरी अस्मिता आंदोलित और विचलित हो जाती है। मैं अपने परिवेश की घुटन को आकृति देता हूं। मेरी कविताओं का मूल भाव परिवर्तन का है। मेरे मन में वर्तमान के प्रति नफ़रत-भरा आक्रोश है तथा भविष्य के प्रति एक आस्थापूर्ण श्रध्दा है।’ आक्रोश के साथ भविष्य के प्रति यह आस्थापूर्ण श्रध्दा ही रामदेव आचार्य की कविता का मूल स्वर है।
          पहले कविता संग्रह ’अक्षरों का विद्रोह’ के प्राक्कथन में बालकृष्ण राव के शब्दों में,’रामदेव आचार्य को भीड़ से डर नहीं लगता, अपनी विशिष्टता को गंवा देने की आशंका से वे व्याकुल नहीं हैं, भीड़ में खो जाने के भय से रात भर जागते नहीं रहते। विशिष्टता के आग्रह और अनूठेपन के लोभ में अकेलेपन का वरण करने की तथाकथित आधुनिक प्रवृत्ति इनकी रचनाओं में परिलक्षित नहीं होती। इसी कारण इनकी रचना साधारणता का वरण करती है अत: असाधारण हो जाती है।’
          दूसरे कविता संग्रह ’रेगिस्तान से महानगर तक’ की भूमिका में डा.जगदीश गुप्त कहते हैं,’ रामदेव आचार्य ने अपने कवि-कर्म के पीछे एक दायित्त्वबोध, एक विशद्‍ सम्पृक्ति, एक आंतरिक दबाव अनुभव किया है, जो उपेक्षणीय नहीं है। उनका कवि-व्यक्तित्व इन वाक्यों में मुखर होकर सम्बध्द कविताओं के साथ प्रतिमूर्त हुआ है।

संप्रति व सृजन: डूंगर महाविद्यालय में अंग्रेजी के व्याख्याता रामदेव आचार्य ने ’अक्षरों का विद्रोह’ व ’रेगिस्तान से महानगर तक’ हिन्दी व राजस्थानी में ‘सोनै रौ सूरज’ काव्य संग्रह साहित्य को दिए। उस समय की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन। राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका ’मधुमती’ के संपादन के साथ डा. जगदीश गुप्त द्वारा संपादित ’त्रयी-१(1974) के प्रथम कवि भी रहे।

रामदेव आचार्य की कविताएं

रचना का जन्म

जब-जब लिखने बैठता हूं
सारे जिस्म का खून
उंगलियों की पोरों पर जमा हो जाता है।

सारा अस्तित्व
एक अप्रत्याषित रोमांच से तरंगित हो जाता है।
दिमाग के पर्दे पर
भूली-बिसरी यादों के
छाया-चित्र उतरने लगते हैं।
बीते दिन पहाड़ की तरह सामने खड़े हो जाते हैं।
आंखों में सूरज उतर आता है।
नस-नस में विस्फोट होने लगता है।
शिराओं में गर्म लावा भर जाता है।
पिघले हुए लोहे की तरह
शब्द पन्नों पर फ़ैल जाते हैं।
एक-एक क्षण
एक-एक अवधि बन जाता है।

जब-जब लिखने बैठता हूं
सारे जिस्म का खून
उंगलियों की पोरों पर जमा हो जाता है।

ऐसे समय कोई बदशक्ल,
कोई बेईमान चेहरा
मेरे सामने आने का साहस नहीं करता।

गरदन-झुकाए सारे विलेन
हाथ-बंधे अपराधियों की तरह
रचना के दरबार में खड़े हो जाते हैं।
सारे शिखंडी
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आवरणों से
नंगे हो जाते हैं।

आदमी और आदमी के
फासले मिट जाते हैं
कपटी गिद्ध लाशों से हट जाते हैं।
चींटियां शव घसीटना छोड़ देती है।
बिच्छू का डंक कट जाता है
सांपों की विषैली थैलियां फूट जाती हैं।

अपना बोझ, अपना दर्द
सबका बोझ, सबका दर्द-बन जाता है।
मेरा ‘मैं’
और तुम्हारा ‘तुम’
पीछे छूट जाते हैं।
समूचा आदमी कागजों पर उतर आता है।

जब-जब लिखने बैठता हूं
सारे जिस्म का खून
उंगलियों की पोरों पर जमा हो जाता है।
*****

जिन्दा मुर्दें!

मेरे दिमाग में कब्रें हैं,
जिनमें जिंदा सपने
दफना दिए गए हैं!

हर रात को
ये जिंदा मुर्दे
अपनी कब्रों से बाहर निकलते हैं
और
हर दिन की समाधि पर
चढ़ा देते हैं
भावना के कुछ सड़े हुए फूल
जला देते हैं
इच्छाओं के कुछ तेल-हीन दीपक!

कि ये जिंदा मुर्दे
अपनी कब्रों में लौट जाते हैं।
*****

गिद्ध और गांधी

नयी-नयी उद्घाटित, अनावृत
आदमकद गांधी की प्रतिमा पर
लम्बी लाल चोंचवाले
विकराल गिद्ध को
डेन फड़फड़ाकर मंडराते देखा,
तो मुझे मेरी कविता का कथ्य मिल गया,
और देश का अपना बिंब
*****

प्रतिबिंब

मेरे पास मुखौटे नहीं हैं,
न प्राइवेट, न सार्वजनिक
मेरा चेहरा वही है,
जो मेरा चेहरा है।
मेरे दोस्त!
यदि इस पर भी तुम्हें
मेरे चेहरे पर मुखौटे नजर आते हैं,
तो मेरे चेहरे में
तुम अपना ही चेहरा देख रहे हो!
*****

मसीहा

मसीहा होते हैं वे
जो खुद को मसीहा कहते नहीं
समझते हैं।

उन्हें मसीहा कहने के लिए
उनके साथ एक जत्था चलता है,
जत्थे के सभी लोग
स्वार्थी,
कमीने
या मूर्ख होते हैं।
मसीहा देते हैं उपदेष
तो लोग ऊंघते हैं,
पर जत्थेवाले कहते हैं
कि लोग झूमते हैं।

न-कुछ विषय पर
मसीहा घंटों बोलते हैं,
भारी-भारी परिभाषाओं के
खाते खोलते हैं।

नहीं समझ पाते साधारण लोग
जत्थेवाले समझाते हैं,
(कन्फ्यूज्ड़) मसीहाओं को समझ पाना
टेढ़ी खीर बताते हैं।

मसीहा के विचारों को
नयी-नयी शैलियों में ढालते हैं,
जो स्वयं मसीहा नहीं समझा पाए
ऐसे ऐसे गूढ़ अर्थों पर
जत्थेवाले प्रकाष डालते हैं।

सुना है आदि-काल से
सभी मसीहा जत्थे पालते हैं,
जत्थेवालों के पेट में अनाज
और लोगों की आंखों में
धूल डालते हैं।
*****

सरदी की रात का गीत

सरदी की यह सुनसान रात
है सुन्न सड़क,
भूखों के लटके मुखड़ों सी
कुछ घास-फूस की झोंपड़ियां
हैं आसपास,
जो एक हवा के थप्पड़ को सह सके नहीं
लगती हैं यों
परित्यक्त प्रियतमा हो निराश!

मिल के कल-पुर्जों
की ध्वनियां हैं गूंज रहीं,
बारह बजने की सुस्ती
दिखती गिरजाघर की आंखों में,
चिमनी गाती है गीत मषीनों
का मीठी झपकी लेकर,
भर रही उड़ाने ढलती रात
उदास हवा की पांखों में।

लड़खड़ा रही है मौन रोषनी
लैम्प-पोस्ट की बांहों में,
कुछ कुत्ते रह रह भौंक रहे,
चमगादड़ पलकें बिछा रहे हैं
नयी सुबह की राहों में!
*****

चांदनी रात में गांव

मिट्टी के घरों की बाहों में
करवट बदलता गांव,
स्नेही आकाष-पिता के
सीने से चिपका
नन्हें शिशु सा चांद,

मिट्टी के घरों की छतों से
पेड़ों की शाखों तक
झूलती, झूमती,
छलांग लगाती
लुकती-छिपती चांदनी।

यह रात
कि जैसे किसी कुशल चित्रकार ने
पेत दी है मटमैले रंगों में
एक गौरवर्ण गृहिणी की आकृति
अधुले वस्त्रों में!

पत्तों से टकराकर लड़खड़ाती

शराबी हवा,
व्यापक क्षेत्र में
समाधि लगाए विचार-मग्न प्रकृति
यदा-कदा टूटता तारा
और वातावरण की गुमसुम चुप्पी,

और मेरे मन पर
बनते-बिगड़ते
अनेक तैल-चित्र।
*****

एक ईमानदार प्रणय-गीत

यहां आओ
और रख दो मेरे होठों पर
अपने दहकते गुलाब,
भर दो मेरी बाहों में
अपनी देह के अंगारे,
घघका दो मेरी घमनियों में
ज्वालामुखी लपटें,
मेरी नस-नस में डाल दो तेजाब,
अपनी जुल्फों से कहो
मुझे डस ले सौ बार,
आज की रात तो
हो जाने दो मेरी मौत,
बनने दो चांद को
इस हसीन मौत का गवाह

मेरे खून की प्यास है,
मेरी देह को देह की भूख है।
*****

रक्त सने हस्ताक्षर

अपनी हत्या मैंने खुद की है।
खूब सोच-समझकर
ये मेरे रक्त-सने हस्ताक्षर हैं।

एक अन-चाहे बोझ को ढोना,
और जिंदा होने का ढोल बजाना
कोई जिंदगी नहीं है।
जिंदगी-भर जिंदगी से जूझना,

और मौत को जिंदगी की तरह पूजना
कोई जिंदगी नहीं है।

एक आकार-हीन लाष को लिए घूमना
खौफनाक दृष्यों के समीप से गुजरना,
हसीन फरेबों, मित्रता-पूर्ण षड़यंत्रो, और
कपटी संस्कारों में सांसे गिनना,
खुषामद और चापलूसी की चपेट में कराहना,
अधूरे उदरों, निरीह आंखो, टूटे जिस्मों का सामना करना

और इन सबको जिंदगी कहना
कोई जिंदगी नहीं है।

नफरत। नफरत। घोर नफरत।
भाषा जिसे कह नहीं सकंे,
मर्यादाएं सह नहीं सकें।
मौत कोई वरण-लायक औरत नहीं है।
वह पत्नी नहीं बन सकती।
हो सकता है वह जिंदगी से कम भयानक हो।
एक ऐसी प्रेमिका हो, जो जिस्म को राहत दे सके।
जिंदगी तो रोग ग्रस्त मक्कार वेष्या है।

देश के नक्शे पर कोई सोने की चिड़िया नहीं है।
चन्द फूले हुए, फैले हुए उदर हैं
और पिचके हुए, निचुड़े हुए गाल हैं।
मेरे इतिहास ने पूरी कौम का पुरूषत्व छीन लिया है!
धर्म ने मेरे स्वरूप की अनेक हत्याएं की हैं
ईश्वर के नाम पर।
परिवार भरता रहा है मेरे खून में पानी
फेफड़ों में तपेदिक।
परम्परा चाटती रही है मेरे चेतना के तल।

यह कोई रहने लायक।
कहने लायक।
सहने लायक।
जिंदगी नहीं है।
अपनी मौत का गवाह मैं खुद बनता हूं।
ये मेरे रक्त सने हस्ताक्षर हैं।
*****

आओ, मेरे साथ आओ!

आओ, मेरे साथ आओ!
कुछ मूर्तियों को तोड़ना है,
कुछ प्रतिमाओं को खंडित करना है,
जिन्होंने हमें भीगी बिल्लियां बना दिया है।

आओ, मेरे साथ आओ!
कुछ देवताओं को अस्वीकारना है,
कुछ धर्मों का नकारना है,
जिन्होंने आदमी को जानवर बना दिया है।

आओ, मेरे साथ आओ!
कुछ परकोटों को मिटाना है।
कुछ स्तम्भों को गिराना है
जिन्होंने हमारी प्रतिभा को कुण्ठित कर दिया है।

आओ, मेरे साथ आओ!
कुछ खाइयों को पाटना है।
कुछ सांकलों को काटना है।
जिन्होंने समूचे राष्ट्र को नपुंसक बना दिया है।

आओ, मेरे साथ आओ!
कुछ संस्कारों को जलाना है।
कुछ विष्वासों को हिलाना है।
जिन्होंने हमारी आत्माओं को नंगा कर दिया है।

आओ, मेरे साथ आओ!
कुछ पंजों को मोड़ना है।
कुछ जबड़ों को तोड़ना है।
जो हमें जिंदा निगलने की साजिष कर रहे हैं।
आओ, मरे साथ आओ!
*****

टूटन का गीत

सूनी वादी में गूंज रही
खण्डित आदर्षों की ध्वनियां
रेगिस्तानों की परतों में
दब गयी कल्पना की परियां,

बन गई राख का एक ढेर
अभिलाषाओं की फुलझड़ियां
एकांतों को है भुगत रही
रंगीन जिंदगी की घड़िया,
जिनको समझा मुक्तामणियां
वे निकलीं आंसूओं की लड़ियां
जुड़ना था जिनको सूत्र-बद्ध
वे कटी साधना की कड़ियां,
चेतन पथ पर हैं भटक रहीं
सब प्रष्नों की अस्वीकृतियां,
सपनों की नगरी में उभरी
हैं खण्डहरों की आकृतियां
*****

मैं और मेरी पीड़ा!
,
मुझमें ऐसा क्या है
कि मैं टूटता नहीं हूू,
मैं बिखरता नहीं हूं।

चोटें सहता हूं अनेक
हर चोट खाकर तिलमिलाता हूं,
घायल हो जाता हू,
पर मेरी पीड़ा
कभी भी आत्म-हत्या की
प्रेरणा नहीं बनती,
मृत्यु का आनंद नहीं बनती।

मैं घावों को सहला लेता हूं
मरहम-पट्टी कर लेता हूं,
फिर स्वस्थ होकर
नए सिरे से
जीवन को पकड़ने के लिए
चल पड़ता हूं।

फिर जब अपने चारों और देखता हूं
तो पाता हूं
कि मुझ पर पड़ी प्रत्येक चोट
स्वयं टूट गयी है,
बिखर गई है।
*****

मेरी परछाइयां!

अतीत एक मैली चादर है,
मैंने उसे उतार फैंका है।
मैंने नए परिधान पहन लिए हैं
और मैं नई राहों की तलाष में
निकल गया हूं।

लेकिन यह क्या?
मैं स्तब्ध हूं!
मैं रोमांचित हूं!!

अभी जब मैंने
पीछे मुड़कर देखा
तो पाया
कि मेरी ही परछाइयां
मेरा पीछा कर रही हैं।
*****

Saturday 5 May 2012 0 comments

सुशीला शिवराण की कविताएं

मित्रो! इस बार उदाहरण में आपके सामने हैं  इन दिनो फ़ेसबुक पर  अपने हाइकुओं से सर्वाधिक सक्रिय कवयित्री सुशीला शिवराण। सुशीला जी की कविताएं अपने मूड और मिज़ाज की कविताएं हैं। ईमानदार कविताएं…जिनमें जैसा वह महसूसती है, कागज़ पर उतार देती है। उनकी कविताओं में आपको कहीं  कोई कवित्त कारीगरी भले ही न लगे, दिखे पर कविता का एक उनमान जरूर दिखायी देगा।

मुंबई और कोच्ची में नेवल पब्लिक स्कूल, बिरला पब्लिक स्कूल, पिलानी, डी.ए.वी. गुड़गाँव से अपनी शिक्षण-यात्रा करते हुए आजकल सनसिटी वर्ल्ड स्कूल, गुड़गाँव में अध्यापनरत । अध्ययन-अध्यापन के अतिरिक्त खेलों से विशेष प्रेम। दिल्ली विश्वविद्‍यालय और दिल्ली राज्य का वॉलीबाल में प्रतिनिधित्व के अलावा भ्रमण का भी शौक रखनेवाली सुशीला शिवराण हिन्दी साहित्य, कविता पठन एवं पिछ्ले २० वर्षों से शिक्षण से जुड़ी हैं।

जन्म:२८नवंबर१९६५ झुण्झुनू,राजस्थान, शिक्षा : बी.कॉम.,बी.एड., एम.ए., संप्रति– शिक्षिका


सुशीला शिवराण की कविताएं


जला है जिया.......

गीली लकड़ी सा धुँआ

लिपटा है वज़ूद से

कलेजे की हूक से

भीगी पलकों से

उलझी अलकों से

नम गालों से

बिखरे बालों से

लरजते होंठ से

मन की चोट से...

कलेजा भिंचता सा

अंतस में कुछ खिंचता सा

गले में कुछ अटका सा

किरच-किरच दिल टूटता सा

श्‍वास कुछ-कुछ रूकता सा....

बाँच के पाती

कहता है मीत -

मेरी शांति के लिए

मुझे कुछ दे सकते हो?
दफ़ना दो अहसासों को 

प्यार भरी बातों को

मधुर यादों को

हसीन ख्वाबों को

बिसरा दो मुझे

और हर उस शय को

जो मुझसे जुड़ी है

बोलो मेरी शांति के लिए

क्या मुझे ये दे सकते हो !
*****


स्त्री होकर सवाल करती है!

ओ दम्भी पुरूष !

सदियों से छला है तुमने

कभी देवी-गृहलक्ष्मी

अन्नपूर्णा-अर्धांगिनी

ह्रदय-स्वामिनी- भामिनी

क्या-क्या नहीं पुकारा मुझे?

पुलकित-आनंदित

बहलती रही मैं

तुम्हारे बहलावों-छलाओं से !

देवी बनकर लुटाती रही

तुम पर सर्वस्व अपना

कहाँ की मैंने अपेक्षा

तुम्हारी रही सदैव

प्रस्तर-प्रतिमा

आंगन तुम्हारे

ना कोई आशा

ना अभिलाषा

पीती रही दर्द के प्याले

पिघलती रही पल-पल

जलती रही तिल-तिल

सिमटती, मिटती रही !

पुत्री बन बनी अनुगामिनी

प्रेयसी थी समर्पिता

पहन मंगलसूत्र

नाम-गोत्र-पहचान

किए न्यौछावर खुशी-खुशी

मातृत्व-सुख से हुई

गर्वित-निहाल

पाला उनको

जो थे अंशी

तेरे-मेरे लाल ।

आज खोजती हूँ खुद को

पूछती हूँ खुद से

कौन थे तुम

जो आए अचानक

लील गए सपने मेरे

बो दिए सपने अपने

भीतर मेरे-बहुत गहरे

पूछती हूं पा एकांत खुद से

कर पाईं क्या न्याय स्वयं से तुम

मेरे भीतर उठते इन सवालों से

सचमुच बहुत डरती हूँ

मुझ तक सीमित हैं जब तक

सब ठीक है-सुंदर है तब तक

हो जाएंगे जब कभी मुखरित

बहुत सताएंगे सवाल तुमको

फ़िर तुम चिल्लाओगे

स्त्री होकर सवाल करती है !

ये क्या बवाल करती है?

सोच लो !

क्या तुम तैयार हो

मचते बवाल के लिए

उठते सवाल के लिए ?
*****

कुछ हाइकु

1)
मुद्दतें हुईं

खुल के हँसा है वो

रोने के बाद

2)
रजनीगंधा

रातों को महकाए

जग तो सोए

3)

देखा न कभी

बसता है मुझी में

मिलन की प्यास

4)
उपजी पीड़

बहता गया नीर

खाली मनवा ।


5)
घर की धुरी
बुनते भ्रमजाल
जग निहाल
*****


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