Thursday, 22 December 2011

राजेश मोहता की कविताएं

राजेश मोहता की कविताएं
 
एक अपरिचित चेहरा, एक अपरिचित नाम राजेश मोहता। हिन्दी कविता में सर्वथा अपरिचित  एक नया हस्ताक्षर कहीं- कभी कोई प्रकाशन की सूचना नहीं। पर राजेश मोहता की इन कविताओं को पढकर कोई भी  अचंभित हो सकता है। इतनी गहरी और पकी हुयी कविताएं…निश्चय ही असीम संभावनाएं दिखायी देती है। राजेश मोहता का पहला काव्य संग्रह ’बहुत जल्द’ बोधि प्रकाशन से छपा है। एक कवि सीधे संग्रह से पाठक के बीच?बहुत ही अज़ीब और आश्चर्यजनक परंतु शायद सच है। राजेश की कविताओं ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया  जब आप पढेंगे तो मेरी बात की ताकीद करेंगे, भरोसा है। राजेश की कविताओं के अनेक वितान दिखाई देते हैं।  अजीब तरह का नैराश्य, छटपटाहट, उथल-पुथल. स्वयं के साथ-साथ अपने आस-पास की समस्त विषमताओं, विकृतताओं के प्रति घृणा का भाव और भी बहुत कुछ ऎसा जो उनके कवि को विचलित करता है। अपने पहले संग्रह ’बहुत जल्द’ से कुछ कविताएं उदाहरण के लिए उन्होनें भेजी हैं। इन कविताओं को पढकर महसूस होता है कि कवि अपने समय की विकृतियों, विषमताओं और मानवीय रिश्तों के धुसरते रंगो से कितना उद्वेलित है। 

जन्म:  10 जून 1964 श्री गंगानगर (राजस्थान) संप्रति: अध्यापन
संपर्क: 11/323 मुक्ता प्रसाद नगर, बीकानेर (राज)
मो: 07737279162, 09214583795



सार्थकता की तलाश

मेरी नींद में
एक धिक्कार सोच है
जो सपनों की कटोरी में बंद है
पर धन्य हो जाना चाहती है
और अचानक
स्वप्न के टूट जाने पर
मैं गीदड़ की तरह
उबासता हुआ
अपना मुख बंद कर लेता हूं
मेरे भीतर
स्वप्नों का एक गहरा आकाश भी है
जिसमें पड़ा अर्थ
मैं पकड़ना चाहता हूं
अचानक मुझे
बहलाने के लिए
बाहर टूटे फ़्रेम सी
एक लिपी-पुति ऎतिहासिक औरत
आकर खड़ी हो जाती है
जिसके नरम-नरम गोश्त को
इतिहास की कुंठाओं ने
कई बार नोचा है।
तब एक बार फ़िर
मैं गीदड़ की तरह
उबासता हुआ
अपना मुख बंद कर लेता हूं
क्योंकि
गोश्त के भीतर आकाश नहीं है
गोश्त तो एक उबासी है
जो मैं रोज़ लेता हूं
*****

खण्डित विश्वास

तुम ऎसे थे नहीं
तुम ऎसे हो नहीं
तुम तो बस बह गए थे तेज धारा में
धारा/जो लहरों में बंटी
फ़िर भी एक
तुम मुझमें
मैं तुम में
फ़िर भी लहरों में बंटे
हम सभी के विश्वास।
*****

तलाश बंद

गहन द्वंद  से उपजे
सहज तनाव
आंसू पीते ही चले गए
और अचानक एक दिन
कंधों की तलाश बंद हो गई।
*****

कीचड़ से विद्रोह

वर्तमान
एक मृत हो चुका
मुर्दा शमशान है।
मैं इस शमशान पर
पूरी घृणा से थूकता हूं
और अस्वीकार करता हूं
कि आदमी
गर्भ की गर्म भट्टियों में
पैदा होनेवाला
एक ऎसा उत्तेजित मांस का लोथड़ा है
जो केवल और केवल
ऊबभरी उबासियों के मुक्त होने के लिए
औरतों के गर्भ में
गरम गोश्त के बीज़ बोता है
मैं अस्वीकार करता हूं
तुम्हारी घृणित परिभाषा से
कि भावी नस्ल के लिए
ऎसा वर्तमान जीना जरूरी है
जिसमें आदमी की आंख ही मर जाए
आदमी अपनी ही बच्चियों का
बेशर्म दलाल हो जाए
और निरर्थक आदर्शों को
घसीटता हुआ
भव्य इमारतों के गीत गाए।
मैं विद्रोह करता हूं
और अब
इस विद्रोह से भी
विद्रोह करता हूं।
*****

बहुत जल्द

बहुत जल्द
मैं अपने भीतर
उदित उस मोह की
क्रूरतम हत्या करूंगा।

बहुत जल्द मैं अपने श्मशान में
प्रवेश पानेवाले
जिंदा शवों को
अपनी ज़हरीली आग से
फ़ूंक डालूंगा।

बहुत जल्द
बहुत जल्द
एक बार फ़िर
मैं मरूंगा।
*****

ईश की पीड़ा

ओ.. मेरी कृति!
मुझे विश्वास देना
मैं कुछ न चाहूंगा
कुछ न चाहूंगा
मुझ से वह सब छीनना
जो मैं चाहता हूं
पर विश्वास मत छीनना
क्योंकि विश्वास छीनने पर
जैसे तुम टूटी हो
अधूरी पड़ी हो
मैं भी वैसे ही टूटूंगा
अधूरा पड़ा रहूंगा।
इसलिए हे मेरी कृति!
मुझ कृतिकार को ही तुम गढना
मुझे गढना
जब-तब मैं तुम्हें गढना भूलूं।
दण्ड देना
पीड़ा देना
थूकना मुझ पर
मुझ घृणा के पात्र से घृणा करना
पर उपेक्षित नहीं
मुझे गढना
पर विश्वास कभी मत छीनना
कभी नहीं।
*****

दोष पौरूष का

परंपरा कभी नववधु थी
जिसे युग का सत्य
बड़े जतन से ब्याह कर
लाया था इस धरती पर
दोनों के संसर्ग से जन्म हुआ
विश्वास का
जिसके साथ धरती पर
खेलते हुए हम सभी बहुत प्रसन्न थे
फ़िर हमने विवाह किया
अपने भीतर के संवेदन विवेक से
जिसके संसर्ग से जन्म हुआ आस्था का
जिसके साथ भीतर खेलते हुए
हम सभी प्रसन्न थे।
तभी तो
परंपरा
युग का सत्य
विश्वास
संवेदना
विवेक
आस्था
और हम सभी
स्वरपान किया करते थे
अनहदनाद का प्रतिफ़ल
पर अचानक
एक दिन अंह जाग उठा पौरुष का
पकड़ बाल संवेदना के
फ़ेंक दिया उसे भीतर से बाहर
और लुप्त हुआ युगों से गूंजता
इस सृष्टि में अनहद नाद
शायद
अभिशप्त हुए हम सब उसी दिन
तब सूत्रपात हुआ
एक नई खण्डित सृष्टि का
जिसमें है
खण्डित परंपरा
खण्डित विश्वास
खण्डित संवेदना
खण्डित विवेक
खण्डित आस्था
और खण्डित हम सब
कल जब
कुरूप परंपरा
अपने पिचके गालों
व फ़ूले पेटवाले कमज़ोर विश्वास को
अपनी गोद में  लिए हुए
मेरे बायीं ओर खड़ी थी
तथायुग का सत्य
अज्ञात सत्ता को कोसता हुआ
मेरी दायीं ओर खड़ा था
तब मैं
दोनों के बीच खड़ा था
तटस्थ!
निरपेक्ष सा
अपने ही भीतर
मरा हुआ।
*****


1 comments:

dinesh tripathi said...

निश्चित ही राजेश की कवितायेँ प्रभावित करती हैं , इनमें एक गहरा अर्थबोध है जो कवि की छटपटाहट को व्यक्त करता है . बधाई राजेश को .

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