Saturday, 5 May 2012

सुशीला शिवराण की कविताएं

मित्रो! इस बार उदाहरण में आपके सामने हैं  इन दिनो फ़ेसबुक पर  अपने हाइकुओं से सर्वाधिक सक्रिय कवयित्री सुशीला शिवराण। सुशीला जी की कविताएं अपने मूड और मिज़ाज की कविताएं हैं। ईमानदार कविताएं…जिनमें जैसा वह महसूसती है, कागज़ पर उतार देती है। उनकी कविताओं में आपको कहीं  कोई कवित्त कारीगरी भले ही न लगे, दिखे पर कविता का एक उनमान जरूर दिखायी देगा।

मुंबई और कोच्ची में नेवल पब्लिक स्कूल, बिरला पब्लिक स्कूल, पिलानी, डी.ए.वी. गुड़गाँव से अपनी शिक्षण-यात्रा करते हुए आजकल सनसिटी वर्ल्ड स्कूल, गुड़गाँव में अध्यापनरत । अध्ययन-अध्यापन के अतिरिक्त खेलों से विशेष प्रेम। दिल्ली विश्वविद्‍यालय और दिल्ली राज्य का वॉलीबाल में प्रतिनिधित्व के अलावा भ्रमण का भी शौक रखनेवाली सुशीला शिवराण हिन्दी साहित्य, कविता पठन एवं पिछ्ले २० वर्षों से शिक्षण से जुड़ी हैं।

जन्म:२८नवंबर१९६५ झुण्झुनू,राजस्थान, शिक्षा : बी.कॉम.,बी.एड., एम.ए., संप्रति– शिक्षिका


सुशीला शिवराण की कविताएं


जला है जिया.......

गीली लकड़ी सा धुँआ

लिपटा है वज़ूद से

कलेजे की हूक से

भीगी पलकों से

उलझी अलकों से

नम गालों से

बिखरे बालों से

लरजते होंठ से

मन की चोट से...

कलेजा भिंचता सा

अंतस में कुछ खिंचता सा

गले में कुछ अटका सा

किरच-किरच दिल टूटता सा

श्‍वास कुछ-कुछ रूकता सा....

बाँच के पाती

कहता है मीत -

मेरी शांति के लिए

मुझे कुछ दे सकते हो?
दफ़ना दो अहसासों को 

प्यार भरी बातों को

मधुर यादों को

हसीन ख्वाबों को

बिसरा दो मुझे

और हर उस शय को

जो मुझसे जुड़ी है

बोलो मेरी शांति के लिए

क्या मुझे ये दे सकते हो !
*****


स्त्री होकर सवाल करती है!

ओ दम्भी पुरूष !

सदियों से छला है तुमने

कभी देवी-गृहलक्ष्मी

अन्नपूर्णा-अर्धांगिनी

ह्रदय-स्वामिनी- भामिनी

क्या-क्या नहीं पुकारा मुझे?

पुलकित-आनंदित

बहलती रही मैं

तुम्हारे बहलावों-छलाओं से !

देवी बनकर लुटाती रही

तुम पर सर्वस्व अपना

कहाँ की मैंने अपेक्षा

तुम्हारी रही सदैव

प्रस्तर-प्रतिमा

आंगन तुम्हारे

ना कोई आशा

ना अभिलाषा

पीती रही दर्द के प्याले

पिघलती रही पल-पल

जलती रही तिल-तिल

सिमटती, मिटती रही !

पुत्री बन बनी अनुगामिनी

प्रेयसी थी समर्पिता

पहन मंगलसूत्र

नाम-गोत्र-पहचान

किए न्यौछावर खुशी-खुशी

मातृत्व-सुख से हुई

गर्वित-निहाल

पाला उनको

जो थे अंशी

तेरे-मेरे लाल ।

आज खोजती हूँ खुद को

पूछती हूँ खुद से

कौन थे तुम

जो आए अचानक

लील गए सपने मेरे

बो दिए सपने अपने

भीतर मेरे-बहुत गहरे

पूछती हूं पा एकांत खुद से

कर पाईं क्या न्याय स्वयं से तुम

मेरे भीतर उठते इन सवालों से

सचमुच बहुत डरती हूँ

मुझ तक सीमित हैं जब तक

सब ठीक है-सुंदर है तब तक

हो जाएंगे जब कभी मुखरित

बहुत सताएंगे सवाल तुमको

फ़िर तुम चिल्लाओगे

स्त्री होकर सवाल करती है !

ये क्या बवाल करती है?

सोच लो !

क्या तुम तैयार हो

मचते बवाल के लिए

उठते सवाल के लिए ?
*****

कुछ हाइकु

1)
मुद्दतें हुईं

खुल के हँसा है वो

रोने के बाद

2)
रजनीगंधा

रातों को महकाए

जग तो सोए

3)

देखा न कभी

बसता है मुझी में

मिलन की प्यास

4)
उपजी पीड़

बहता गया नीर

खाली मनवा ।


5)
घर की धुरी
बुनते भ्रमजाल
जग निहाल
*****


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