मित्रो! आज अपने समय के जनपक्षधर और प्रगतिशील चेतना के अग्रज मेरे प्रिय कवि, कथाकार डा. योगेन्द्र किसलय की पुण्य तिथि पर स्मरण करते हुए अभी उनकी कुछ चर्चित कविताएं.....
एक ऎसे कवि और कथाकार जिनकी कविताओं को अज्ञेय ने भी ’नया प्रतीक, में प्रकाशित किया था।
"एक पूरी रात जागकर ’और हम’ की कविताओं को पढ गया था और तब से लगातार वे मेरे साथ रही हैं, जैसे किसी लंबे रास्ते में बहुत से चेहरे, पेड़ और बेचैनियों के अस्त-व्यस्त रंग पीछे छूट कर भी हमेशा साथ हो जाते हैं। योगेंन्द्र जैसे कवियों को टटोलने और जानने से पहले स्वयं को बिल्कुल अकेला करना पड़ता है। वे सारे लबादे उतार देने होते हैं जो अदीठ आकारों की तरह मन को ढंक लेते हैं। - मणि मधुकर (कविता संग्रह ’और हम’ की भूमिका में) राजस्थान साहित्य अकादमी के विशिष्ट साहित्यकार सम्मान १९८९-९० से सम्मानित योगेन्द्र किसलय ने राजस्थान की समकालीन कविता पर केंद्रित नंद चतुर्वेदी के संपादन के बाद दूसरे काव्य संकलन का सम्पादन भी किया। योगेन्द्र जी के दो काव्य संग्रह ’और हम’ व ’फ़ासले कायम है’ बहुत चर्चित रहे।
एक ऎसे कवि और कथाकार जिनकी कविताओं को अज्ञेय ने भी ’नया प्रतीक, में प्रकाशित किया था।
"एक पूरी रात जागकर ’और हम’ की कविताओं को पढ गया था और तब से लगातार वे मेरे साथ रही हैं, जैसे किसी लंबे रास्ते में बहुत से चेहरे, पेड़ और बेचैनियों के अस्त-व्यस्त रंग पीछे छूट कर भी हमेशा साथ हो जाते हैं। योगेंन्द्र जैसे कवियों को टटोलने और जानने से पहले स्वयं को बिल्कुल अकेला करना पड़ता है। वे सारे लबादे उतार देने होते हैं जो अदीठ आकारों की तरह मन को ढंक लेते हैं। - मणि मधुकर (कविता संग्रह ’और हम’ की भूमिका में) राजस्थान साहित्य अकादमी के विशिष्ट साहित्यकार सम्मान १९८९-९० से सम्मानित योगेन्द्र किसलय ने राजस्थान की समकालीन कविता पर केंद्रित नंद चतुर्वेदी के संपादन के बाद दूसरे काव्य संकलन का सम्पादन भी किया। योगेन्द्र जी के दो काव्य संग्रह ’और हम’ व ’फ़ासले कायम है’ बहुत चर्चित रहे।
योगेन्द्र किसलय की कविताएं
वे घर जो नंगे हैं
यानी जहां कमरों में पेलमेंट्स
जड़ाऊ सोफ़े
रंगीन परदे नहीं-
तुम्हारी समझ में वहां पशु रहते हैं
असभ्य,
गुफ़ा-मानव।
वे झौंपे
जिनमें झुककर प्रवेश किया जाता है
जहां बीच के लठ्ठे पर
लटकी होती है समूची गृहस्थी
जहां लचके, घुने शहतीर
बस कपाल पर ही गिरा करते हैं-
तुम्हारी समझ में वहां सज़ायाफ़्ता
चोर, डाकू, खूनी, देशद्रोही,रहते हैं
निष्कासित,
शापित जन ।
तुम्हारी ऊंची टेकरी पर बने भव्य आवास से
मेरे गांव की जो टिमटिमाती बत्तियां हैं
वे सब इज़्ज़त-गंवायी
जवान लड़कियों और बहुओं की पनीली आंखें नज़र आती हैं
तो तुम्हारी उठती नहीं
और तुम उन्हें देखना तक नहीं चाहते
मैं सोचता रहा हूं
कि नंगे घरों और अंधियायी झोंपड़ियों को
हिकारत की नज़र से देखकर
क्या सुख मिलता होगा तुम्हें?
मैं समझाना चाहता हूं
कि कभी लूट से भरे गज़नी के भंडार
अब रिक्त हो गए हैं
कि राजाओं के रत्न-जड़ित तख्त
बाज़ारों में बिकने लगे हैं-
फ़िर तुम और तुम्हारा भिन्न
अदम्य,
और समर्थ होने का गर्व
क्या है?
तुम्हें मालूम है कि नहीं
जब पहाड़ी पर बने ऊंचे प्रासाद से
तुम्हारा पांव फ़िसलेगा कभी
तो तुम सीधे
मेरे गांव की तराई में आकर गिरोगे
और तुम्हें संभालेगी तब
असंतप्त औरतें
जिनकी देहों में तुमने दांत गाड़े थे
और जिनकी धुंधियायी रोशनी से
तुम्हें नफ़रत थी।
*****
(प्रकाशन- मधुमती- फ़रवरी-७६)
मेरा सोचना
छोटा मैं भी नहीं
मगर दरख्त बड़ा है
सूखा, क्लांत मैं भी नहीं
मगर दूब हरी है
अभिव्यक्ति मेरी भी है
मग स्फ़टिक प्रपात संगीतमय है
उफ़ान मुझ में भी है
मगर नदी में विद्रोह अनुकूल है-
तो मुझ में जो कुछ भी है
इतना गौण,
इतना अल्प
कि मैं स्वयं को न पहाड़ कह सकता हूं
न समुद्र, न दरख्त,
न पत्थरों की अंतरित कोमलता- दूध-झरना..
मगर मेरा दुराग्रह अथवा अहम्
जो मैं स्वीकार नहीं पाता
कि मैं आग नहीं, एक चिंगारी हूं,
महा समुद्र नहीं, एक बूंद हूं,
चौड़ा मार्ग नहीं, एक संकीर्ण गली हूं,
भव्य प्रासाद नहीं,एक ईंट हूं,
यंत्र नहीं, एक पुर्ज़ा हूं...।
क्या इस का एक मात्र कारण मेरा अहंकार है
या फ़िर दरअसल मैं ही सब कुछ हूं-
यह आकाश, यह धरती, यह समूची बुनावट?
ऎसा मैं सोचता हूं
मगर यही पर्याप्त है कि सोचता हूं
आश्रितों के इस दौर में
जहां प्रत्येक व्यक्ति भींत पर पनपी-टिकी बेल है
मैं स्वयं अपनी निष्क्रियता तोड़ता हूं
और समझता हूं ठीक अपने को उन से
जो बंद हैं, न खुले,
कलंकित हैं, न धुले!
*****
(प्रकाशन -नया प्रतीक -अगस्त ७७)
सीमांतर
यानी जहां कमरों में पेलमेंट्स
जड़ाऊ सोफ़े
रंगीन परदे नहीं-
तुम्हारी समझ में वहां पशु रहते हैं
असभ्य,
गुफ़ा-मानव।
वे झौंपे
जिनमें झुककर प्रवेश किया जाता है
जहां बीच के लठ्ठे पर
लटकी होती है समूची गृहस्थी
जहां लचके, घुने शहतीर
बस कपाल पर ही गिरा करते हैं-
तुम्हारी समझ में वहां सज़ायाफ़्ता
चोर, डाकू, खूनी, देशद्रोही,रहते हैं
निष्कासित,
शापित जन ।
तुम्हारी ऊंची टेकरी पर बने भव्य आवास से
मेरे गांव की जो टिमटिमाती बत्तियां हैं
वे सब इज़्ज़त-गंवायी
जवान लड़कियों और बहुओं की पनीली आंखें नज़र आती हैं
तो तुम्हारी उठती नहीं
और तुम उन्हें देखना तक नहीं चाहते
मैं सोचता रहा हूं
कि नंगे घरों और अंधियायी झोंपड़ियों को
हिकारत की नज़र से देखकर
क्या सुख मिलता होगा तुम्हें?
मैं समझाना चाहता हूं
कि कभी लूट से भरे गज़नी के भंडार
अब रिक्त हो गए हैं
कि राजाओं के रत्न-जड़ित तख्त
बाज़ारों में बिकने लगे हैं-
फ़िर तुम और तुम्हारा भिन्न
अदम्य,
और समर्थ होने का गर्व
क्या है?
तुम्हें मालूम है कि नहीं
जब पहाड़ी पर बने ऊंचे प्रासाद से
तुम्हारा पांव फ़िसलेगा कभी
तो तुम सीधे
मेरे गांव की तराई में आकर गिरोगे
और तुम्हें संभालेगी तब
असंतप्त औरतें
जिनकी देहों में तुमने दांत गाड़े थे
और जिनकी धुंधियायी रोशनी से
तुम्हें नफ़रत थी।
*****
(प्रकाशन- मधुमती- फ़रवरी-७६)
मेरा सोचना
छोटा मैं भी नहीं
मगर दरख्त बड़ा है
सूखा, क्लांत मैं भी नहीं
मगर दूब हरी है
अभिव्यक्ति मेरी भी है
मग स्फ़टिक प्रपात संगीतमय है
उफ़ान मुझ में भी है
मगर नदी में विद्रोह अनुकूल है-
तो मुझ में जो कुछ भी है
इतना गौण,
इतना अल्प
कि मैं स्वयं को न पहाड़ कह सकता हूं
न समुद्र, न दरख्त,
न पत्थरों की अंतरित कोमलता- दूध-झरना..
मगर मेरा दुराग्रह अथवा अहम्
जो मैं स्वीकार नहीं पाता
कि मैं आग नहीं, एक चिंगारी हूं,
महा समुद्र नहीं, एक बूंद हूं,
चौड़ा मार्ग नहीं, एक संकीर्ण गली हूं,
भव्य प्रासाद नहीं,एक ईंट हूं,
यंत्र नहीं, एक पुर्ज़ा हूं...।
क्या इस का एक मात्र कारण मेरा अहंकार है
या फ़िर दरअसल मैं ही सब कुछ हूं-
यह आकाश, यह धरती, यह समूची बुनावट?
ऎसा मैं सोचता हूं
मगर यही पर्याप्त है कि सोचता हूं
आश्रितों के इस दौर में
जहां प्रत्येक व्यक्ति भींत पर पनपी-टिकी बेल है
मैं स्वयं अपनी निष्क्रियता तोड़ता हूं
और समझता हूं ठीक अपने को उन से
जो बंद हैं, न खुले,
कलंकित हैं, न धुले!
*****
(प्रकाशन -नया प्रतीक -अगस्त ७७)
१
मैंने प्रयोग किए कविता में
कविता नहीं बिकी
मैंने उसे बौध्दिकता दी
कविता नहीं बिकी
मैंने उसे नंगा कर दिया
कविता नहीं बिकी
क्यों नहीं बिकी यह
जब मैं ऎसा चाहता था
जब मैं बहुत पहले बिक चुका था?
मैं कविता में विद्रोह भरता रहा
लेखकीय ईमानदारी की पताका हाथ में लिए
शब्दों का रुजगार करता रहा
जो कुछ भी जीवन में घटित नहीं हुआ
वह सब आसानी से कविता में हो गया।
मैं कायर था
मगर मेरी कविता में साहस था
मैं समझौता परस्त था
मगर मेरी कविता तरकश थी
मैं अपने पड़ोस से अनभिज्ञ था
मगर मेरी कविता समूचा विश्व घूम आयी थी
मैं टहलुआ था
मगर मेरी कविता आज़ाद थी
मेरी कितनी ही असंगतियों को ओढ-ढो रही है कविता
यह कविता नहीं
मेरे पंगु विचारों की दम तोड़ती बैशाखी है
जिसे मैं अपनी कांख में दबाए घूम रहा हूं
और बम्बई और दिल्ली में बैठे
आकर्षक औरतों की फ़ोटुएं छाप रहे हैं
*****
२
मित्र का अर्थ
बैसाखियों पर चलना है
और दुश्मन का अर्थ
सतर्क रहना है
सतर्क मैं कभी रहा नहीं
पर अब इन बैसाखियों को
कहां फ़ेंकूं..कहां फ़ेंकू..
*****
३
लेखकों सृजनकारों का कोई मंत्री नहीं
ठीक भी है, उन्हें अपनी विपन्नता में रखना
ताकि उनके फ़फ़ोले फ़ूटें
और वे रचना करें-
वर्तमान में मरें
और भविष्य में जिएं..
*****
४
जो भागते हैं वे शरीफ़ हैं
जो कतराते हैं वे शरीफ़ हैं
जो चुप रहते हैं वे शरीफ़ हैं
जो सज़ा पाते हैं, वे शरीफ़ हैं
जो गरीब बने रहते हैं, शरीफ़ हैं
जो अभिनंदन नहीं करवा पाते, वे शरीफ़ हैं
जो हाकिम द्वारा सताए जाते हैं, वे शरीफ़ हैं
जो गले खंखार थूक नहीं पाते, वे शरीफ़ हैं
जो परिवर्द्दित मूल्यों पर पुस्तकें नहीं बेच पाते, वे शरीफ़ हैं
जो मंत्री बनने के लिए पंद्रह सिर उपस्थित नहीं कर सकते, वे शरीफ़ हैं
जो हर आरोप, लांछना पर मौन रहते हैं, वे शरीफ़ हैं
जो अपने हक के लिए गिड़गिड़ाते हैं, वे शरीफ़ हैं
जो पर्दे के पीछे रहते हैं, शरीफ़ हैं
जो बस जी रहे हैं
इस लघु तालिका के बाद
जो लंबी ज़मात बचती है
वे सब मेरी तरह उस नस्ल के हैं
जिसका नाम है दुष्ट अथवा शातिर
*****
५
मुझे देश के कर्णधारों से कोई शिकायत नहीं
सिवाय इसके कि
ये ओछे किस्म के इंसान हैं
गांधी के मुखौटे में
हिटलर का चेहरा छिपाए हैं
अंदर से तानाशाह हैं
और बात करते हैं प्रजातंत्र की
फ़ासिस्टों के खिलाफ़ जुलूस निकालते हैं
और खुद सबसे बड़े फ़ासिस्ट हैं
ये ऎनकिए
ये दंभी चेहरे
ये लफ़्फ़ाज़ी अय्यास
ये नेपोलियन, मुसोलिनी के भद्दे संस्करण
ये गौतम-गांधी के पदार्थवादी चेले
देश को डुबोएंगे...
*****
६
किताबों में अकर्मण्यता है
निरुद्देश्य चिंतन है
मात्र शब्द विलास है
जो व्यक्ति को कुछ हासिल नहीं करने देता
सिवाय इसके कि
वह मुड़े-तुड़े, फ़टे पृष्ठों पर रेंगनेवाला एक कीड़ा है
अथवा शुष्क आंखों में समायी विराट पीड़ा है
ज़िंदगी की पुस्तक मदरसे में नहीं
खुले आकाश के नीचे
उस चौड़े मैदान पर खुलती है
जहां बाज़ परिंदों पर झपटता है
उनका शिकार करता है
और तमाशाई वाह! वाह! कर उठते हैं...
6 comments:
योगेन्द्र किसलय हमारे प्रदेश और हिन्दी के समर्थ कवि-रचनाकार रहे हैं, उनकी कविताओं में अपने लोकजीवन और समय की अन्तर्ध्वनियां दूर तक सुनाई देती हैं, वे आज भी पढ़ने पर उतनी ही ताजा और प्रासंगिक लगती हैं। आपने उनकी चनिन्दा कविताएं यहां प्रस्तुत कर एक समर्थ कवि की याद को जीवंत कर दिया है। आभार।
waah !
योगेन्द्र किसलय की कविताएँ कभी ’लहर’ में पढ़ी थीं। हमारा हिन्दी जगत अपने कवियों-लेखकों को याद नहीं रखता। इसीलिए वे भी खो गए थे। योगेन्द्र जी की कुछ और कविताएँ प्रकाशित करिए। आभार।
He was my beloved father It is very difficult to express his qualities as he was a dynamic person.His memories are still alive. I will remember u forever
nd cherish ur blessings from heaven ,my adorable father.
Smita ( Youngest Daughter)
बेबाक़ , ईमानदार , सम्वेदनशील कविताएँ । शख़्सियत भी कुछ ऐसी ही रही होंगी कवि महोदय की ।
Realistic and beautiful
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