मित्रो! आज उदाहरण में हमारे साथ हैं हमारे समय के वरिष्ठ कवि, अनुवादक मणिमोहन मेहता की कुछ कविताएं। मणिमोहन की कविताएं हमारे समय की कविताएं हैं इन में हमारे समय की मिठास के साथ साथ जो खटास है वह भी दिखायी देती है। इन कविताओं का स्वर आदमी में मानवीयता और मनुष्यता की स्थापना के लिए प्रतिबध्द है।
मणि मोहन मेहता का जन्म 02 मई 1967 को सिरोंज (विदिशा) म. प्र. में हुआ।आपअंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर और शोध उपाधि प्राप्त हैं। देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं ( पहल , वसुधा , अक्षर पर्व , समावर्तन , नया पथ , वागर्थ ,जनपथ, बया , आदि ) में कवितायेँ तथा अनुवाद प्रकाशित । वर्ष 2003 में म. प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से कविता संग्रह ' कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायेँ ' प्रकाशित ।वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक ' एक सीढ़ी आकाश के लिए ' प्रकाशित ।वर्ष 2013 में कविता संग्रह " शायद " प्रकाशित ।इसी संग्रह पर म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार ।कुछ कवितायेँ उर्दू , मराठी और पंजाबी में अनूदित । इसके अतिरिक्त " भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास " , " आधुनिकता बनाम उत्तर आधुनिकता " तथा " सुर्ख़ सवेरा " आलोचना पुस्तकों का संपादन भी किया है
सम्प्रति : शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय , गंज बासौदा ( म.प्र ) में अध्यापन ।
संपर्क : विजयनगर , सेक्टर - बी , गंज बासौदा म.प्र. 464221
मो. 9425150346
ई-मेल : profmanimohanmehta@gmail.com
मणिमोहन मेहता की कविताएं
हत्यारे
अकसर निःशस्त्र ही आते हैं
हत्यारे
हम ही ड़ाल देते हैं
अपने हथियार
और मारे जाते हैं
उनके हाथों
अपने ही हथियारों से ।
बारिश
यह रेनकोट पहने हुए
आदमी का
एकालाप नहीं
प्यासी धरती की कोख में
दुबके हुए
बीज की प्रार्थना है ।
रंग- संवाद
पेड़ों ने भेजी हैं
धरती को
अनगिनत पीली चिट्ठियाँ
देखना !
धरती भी
जल्दी ही देगी
धानी जवाब ।
एक दिन
एक पेड़ था
एक नाम था उसका
एक कुल खानदान भी था उसका
एक दिन
टूटकर गिरा धरती पर
और इसकी धमक सुनी गई
भाषा की छाती पर
एक नदी थी
धीरे - धीरे जिसने बहना बन्द किया
और एक दिन दम तोड़ दिया उसने
अपने ही किनारों पर
इसकी आखरी हिचकी भी
सुनी गई भाषा की धड़कनों में
हजारों फूल थे , पहाड़ थे
परिंदे और जीव - जंतू थे
बेशुमार रंग और शेड्स थे
एक दिन गायब हो गए दृश्य से
और आखरी बार देखे गए
भाषा की अँधेरी गली में
बेशुमार चीजें थीं
मामूली
बेहद मामूली सी
पर जिनकी तरफ देखो
तो विस्मय से भर देती थीं
एक दिन
अपनी उपेक्षा से दुखी होकर
सबने छोड़ दिया
भाषा का घर ।
गति
अपनी गति से
हो रहा है अंकुरण
धरती की कोख से
कोपलें फूट रही हैं
फूल खिल रहे हैं
तितलियाँ और परिंदे उड़ रहे हैं
पेड़ की शाख से बिछड़ कर
धरती की तरफ
बढ़ रहे हैं ज़र्द पत्ते
सब अपनी ही गति से
कहीं कोई हड़बड़ाहट
कहीं कोई बेचैनी नहीं
हमारी दुनियाँ की तरह
कहीं कोई होड़ नहीं
गति के साथ ।
रूपान्तरण
हरे पत्तों के बीच से
टूटकर बहुत ख़ामोशी के साथ
धरती पर गिरा है
एक पीला पत्ता
अभी - अभी एक दरख़्त से
रहेगा कुछ दिन और
यह रंग धरती की गोद में
सुकून के साथ
और फिर मिल जायेगा
धरती के ही रंग में
कितनी ख़ामोशी के साथ
हो रहा है प्रकृति में
रंगों का यह रूपान्तरण ।
निर्वस्त्र
अपने चेहरे
उतार कर रख दो
रात की इस काली चट्टान पर
कपड़े भी !
अब घुस जाओ
निर्वस्त्र
स्वप्न और अन्धकार से भरे
भाषा के इस बीहड़ में
कविता तक पहुंचने का
बस यही एक रास्ता है ।
0 comments:
Post a Comment