मित्रो! इस बार उदाहरण में हैं कवयित्री संगीता सेठी। संगीता जी की कविताओं को पढते हुए आप पाएंगे कि कवयित्री व्यष्टि से समष्टि तक हर तरफ़ मचे हाहाकारों से कितनी उद्वेलित है। और मां के बहाने मैनुअल से टैक्नीकल होती जा रही जीवन चर्या को भी बहुत ही गहराई से बांचती-जांचती है।
आत्मकथ्य : जो सुख बच्चों की कहानियाँ लिखने में मिलता है वो कहीं नहीं। बच्चों की हर छोटी-छोटी हरकतों पर गौर कर उन्हें कहानी में पिरोकर आनन्द लेती हूँ ।
संगीता सेठी जन्म :12 सितम्बर 1966 सम्प्रति : प्रशासनिक अधिकारी, भारतीय जीवन बीमा निगम शिक्षा:बी.एस.सी.,एम.ए.(अंग्रेजी एवं हिन्दी), फैलोशिप इन इंश्योरेंस, प्रकशित कृतियाँ : पापा के आस-पास(डायरी विधा), विश्वास की छाया में (काव्य संग्रह), काँधा (कहानी संग्रह), आस्था की कहानियाँ (बाल कथाएँ), मैं धरती तू आकाश (काव्य संग्रह), राजस्थान साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित, प्रकाश्य कृतियाँ:एक देह एक आत्मा प्रकाशित रचनाएँ: कादिम्बिनी,आउट्लुक,मधुमती,राजस्थान पत्रिका,दैनिक भास्कर,मेरी सहेली,गृहलक्ष्मी, सरिता,गृहशोभा,वनिता,बालहँस,नन्दन,च्म्पक,नन्हें सम्राट,मेरा देश, जनसत्ता,हिन्दुस्तान में रचनाएँ प्रकाशित इन्टरनेट मैग्ज़ीन : अपराजिता और हिन्द युग्म में निरंतर लेखन
उपलब्धियाँ:
- स्काउट-गाइड संस्था में गर्ल गाइड के रूप में ज्ञानी जैल सिंह से राष्ट्र्पति पुरस्कार्(1984)
- विद्यालय, महाविद्यालय,नगर,राज्य स्तर पर कविता, कहानी, वाद-विवाद, भाषण,नृत्य,गायन,प्रतियोगिता में अनेक पुरस्कार
- दैनिक भास्कर रचना पर्व में कहानी काँधा को प्रथम पुरस्कार (2004)
- मेरी सहेली पत्रिका के वार्षिक कहानी प्रतियोगिता में कहानी "मैं भई रे कुंती"”को प्रथम पुरस्कार(2009)
- नन्हें सम्राट की 2009-2010 की कहानी प्रतियोगिता में कहानी नानी माँ का जन्मदिन पुरस्कृत “”
- चित्तूर(आन्ध्र प्रदेश) के विद्यालय की पाँचवी कक्षा के पाठय क्रम में कहानी शामिल
- द सण्डे इण्डियन के सर्वे के अनुसार विश्व की 111 हिन्दी लेखिकाओं में शामिल
- बीसवीं सदी की कथाकारों में शामिल
संगीता सेठी की कविताएं
हाहाकार
हाहाकार
मचा है मन में
मै कौन ?
मैं क्यों ?
किसके निमित्त ?
क्या करने आई हूँ
पृथ्वी पर ?
प्रश्न दर प्रश्न
बढती जाती हूँ
दिल के हर कोने में
पाती हूँ
मचा है
हाहाकार
----------------
चलती जाती हूँ
सड़क पर
शोर गाड़ियों का
घुटन धुँए की
चिल्ल-पौं होर्न की
सबको जल्दी
आगे जाने की
उलझे हैं सारथी
हर गाड़ी के
देते हुए गालियाँ
एक दूसरे को
देख रही हूँ मैं
एयरकंडीशन कार में
बैठी
मचा है
सड़क पर
हाहाकार
--------------------
चलती हूँ हाई-वे पर
दौड़्ते दृश्यों में
एक बस्ती के बाहर
ज़मीन से ऊपर
सिर उठाए
नल के नीचे
बाल्टियों की कतारें
अपनी बारी के
अपनी बारी के
इंतज़ार मे
तितर-बितर लोग
उलझते एक दूसरे से
कि नहीं है सहमति
एक घर से
दो बाल्टी की
मेरे घर के बाहर
एक बालिश्त
घास का टुकड़ा
पी जाता है
ना जाने
कितना गैलन पानी
और यहाँ बस्ती में
एक बाल्टी
पानी के लिए
मचा है
हाहाकार
--------------
पिज़्ज़ा पर
बुरकने के लिए
चीज़
केक को
सजाने के लिए
क्रीम
डेयरी बूथ पर
रोकी कार मैंने
देखकर लम्बी कतार
सड़क तक
थोड़ी धक्कमपेल में
ठिठकी मैं
कोई झगड़ा
कोई फसाद
आशंका मन में
कतार के सबसे
पीछे खड़े
मफलर में
लिपटे चेहरे को
पूछा
“आज क्या है इस डेयरी पर ”
मूँग की दाल
मिल रही है
कंट्रोल रेट पर
बहनजी !
आप भी ले आओ
राशन कार्ड
एक धक्के से
खिसक गया वो
और पीछे
मचा है यहाँ भी
हाहाकार !
--------------
मेरे चाचा का
इकलौता बेटा
सड़क दुर्घटना में
सो गया
सदा के लिए
चीखों-पुकार
करुण-क्रन्दन
नोच गया दिल
पोस्ट्मार्टम के
इंतज़ार में
खड़े हम
अस्पताल के पोर्च में
प्रसव वेदना से
तड़पती
माँ ने
दम तोड़ दिया
छ्ठा बच्चा था
उसका
“अब इतने जनेगी तो
मरेगी ही ना ”
लोगों के जुमले
मचा रहे थे
मन में मेरे हाहाकार
---------------------
हैती में आया है भूकम्प
ले ली है जानें
कितने लोगों की
रोते बिलखते
उजड़ते बिखरते
लोगों के चेहरे
पिछली सारी यादों को
गडमगड करते
कभी सुनामी
कभी बाढ
कभी भूकम्प
कभी सूखा
और नहीं तो
तूफान भंवर
इससे भी नहीं थमा
धरती सागर
तिल-तिल बढती
ग्लोबल वार्मिंग
मच रहा हैं
हाहाकार
-----------------
धरती से ऊपर
क्षितिज पर
आसमान में
कभी बादलों का
रोना वर्षा से
कभी सूरज का सोखना
धरती से
कभी छेद है
ओज़ोन परत में
और धरती के पार
आकाश गंगा के रास्ते
सौर मण्डल के अपने दर्द
कभी सूर्य को ग्रहण
कभी चन्द्र को ग्रहण
कभी टूटता तारा
कभी उलका पिण्ड
अलग होते आकाश से
मचा है खगोल में भी
हाहाकार
------------------
उठती हूँ नींद से
मचा है
हाहाकार
अब भी मन में
उथलता
पुथलता
नख से शिख तक
करता हुआ
आँखे नम
कौन हूँ ?
क्यों हूँ ?
कहाँ से ?
कब आई हूँ ?
अपना ये हाहाकार
कुलबुलाता है
धरती पर
बिसरते लोगों से लेकर
धरती के पार तक
उनके हाहाकार से
छोटा हो गया है
मेरा हाहाकार
*****
नहीं बाँच सकती कोई माँ
वो ज़माना चिट्ठी पत्री का
जब बांच नहीं सकती थी माँ
ज़माने भर की चिट्ठियाँ
बस रखती थी सरोकार
अपने बेटों की चिट्ठियों से
जो दूर देश गया था कमाने
सुन लेती थी अपने पति कि बाणी में
या घर की सबसे पढी लिखी बहू से
पर फिर भी उन्हें आँचल में छिपाकर
सुनने जाती थी
पड़ौस की गुड्डी या शन्नो से
तृप्त हो जाती थी आत्मा
और फिर से आँखें ताकती थी हर शाम
उस डाकिए को
इस कमजोरी से उबरी
माँ अब साक्षर होने लगी
चिट्ठियों के लफ्ज़ पह्चानने लगी
इधर बेटे बेटियों के लफ्ज़
होने लगे और गहरे
माँ को नमस्ते ! पापा को राम-राम !
और बाकी बातें
पढे लिखे भाई-बहनों के लिए
लिखी जाने लगी
माँ उन दो पंक्तियों को आँखों में समाए
संजोने लगी चिट्ठियाँ
एक लोहे के तार में
और जब तब निकाल कर पढ लेती
वो दो पंक्तियाँ
डाकिए का इंतज़ार रहता
अब भी आँखों में
माँ ने पढना लिखना शुरु किया
गहरे शब्दों के मर्म को जाना
बेटे-बेटियों की चिट्ठियाँ
अब उसकी समझ के भीतर थी
पर ये शब्द जल्द ही
एस.एम.एस.में बदल गए
मोबाइल उसकी पहुँच से
बाहर की चीज़ बन गया
अब हर रिंगटोन पर
अपने पोते से पूछती
किसका एस.एम.एस ?
क्या लिखा ?
कुछ नही
कम्पनी का है एस.एम.एस
आप नहीं समझोगी दादी माँ!
माँ को और ज़रूरत हुई
बच्चों को समझने की
उसने जमा लिए हाथ
की-बोर्ड पर
माउस क्लिक और लैपटॉप की
बन गई मल्लिका
जान लिए इंटरनेट से जुड़्ने के गुर
पैदा कर लिए अपने ई-मेल पते
बना लिए ब्लॉग
मेल और सैण्ड पर क्लिक हो गए
उसके बाएँ हाथ का खेल
भेजने लगी अपने इंटरनेटी दोस्तों को
भेजने लगी अपने इंटरनेटी दोस्तों को
मेल और सुन्दर संदेश
बच्चे बड़े हो गए हैं
चले गए गए हैं परदेस
माँ अपने ई.मेल पते देती है
बेटा सॉफ्ट्वेयर इंजीनीयर है
बेटी आर्कीटेक्चर के कोर्स में
है व्यस्त
हर रोज़ अपने लैपटॉप
पर देखती है स्क्रीन
आज तो आया होगा
कोई लम्बा संदेश
उसकी आँखें थक रही हैं
स्क्रीन के रेडिएशन पर
नज़र जमाए
पर नहीं आया कोई मेल
माँ चिट्ठी के ज़माने में
पहुँच गई है
जहाँ नहीं बाँच सकती कोई माँ
अपने बच्चों नहीं चिट्ठियाँ
*****
हम करते ही नहीं प्रार्थनाएं
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ कि हमारे पड़ौस का
बीमार बच्चा
हो जाए चंगा
चहकता चिड़ियों सा
और खेलने लगे
आँगन में अपने
ताकि हमारे आँगन भी
उसके चहकने की आवाज़ें
आने लगें छन कर
और हमारे आँगन का बच्चा
उचक कर देखने लगे
पडौस की दीवार के उस पार
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
कि इस वर्ष बरसें बादल
किसानों की उन फसलों पर
जो देख रही हैं बाट
भरपूर पैदावार के लिए
ताकि धुँए भरे हमारे शहर में
पहुँचे तादाद में पैदावार
और हमारे जेब पर ना पड़े मार
और हम भरवा सकें
अपने वाहनों में पेट्रोल
और धुँआ करने के लिए
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
कि टूटे ना एक भी सितारा
इस आकाश की ओढनी से
लबालब रहे आकाश की ओढनी
सितारों से
ताकि ढकी रहे धरती
उस ओढनी की छाँव से
कि एक भी उल्कापिण्ड
धरती की छाती पर
गिर कर ना करे विलाप
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
देश के उस पार भी
आबोहवा चलती रहे
ठण्डी और सुखद
कि सरहद पर बची रहे गोलियाँ
ताकि एक भी चिंगारी
हमारी या उनकी सरहद पर
घास के एक भी टुकड़े को
जला ना सके ।
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
कि धरती पर जीने वाले
हर एक इंसान को
मुहैय्या हो रोटी कपड़ा और मकान
ताकि खाते वक्त रोटी,
पहनते वक्त कपड़े
और ओढते वक्त चादरें
नहीं आए हमारे सामने
उन लाचार लोगों की सूरतें
कि हम एक भी निवाला
निगल ना सकें हलक से
हम जानते ही नहीं है प्रार्थना
की शक्ति को
वरना वो ताकत
सिमट जाती है
आत्मबल बन कर
फिर क्या ज़ुर्रत
कि पड़ौस का बच्चा
चंगा ना हो
फसलों पर
ना बरसें बादल
टूटे ना सितारे कभी
बहती रहे हवाएँ
ठण्डी और सुखद
इस पार भी
उस पार भी
और धरती पर जीने वाला
हर इंसान हो खुशहाल
कि दर्द का एक शूल भी
उसको छू ना पाए
दरअसल
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
उन सब के लिए ।
बीमार बच्चा
हो जाए चंगा
चहकता चिड़ियों सा
और खेलने लगे
आँगन में अपने
ताकि हमारे आँगन भी
उसके चहकने की आवाज़ें
आने लगें छन कर
और हमारे आँगन का बच्चा
उचक कर देखने लगे
पडौस की दीवार के उस पार
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
कि इस वर्ष बरसें बादल
किसानों की उन फसलों पर
जो देख रही हैं बाट
भरपूर पैदावार के लिए
ताकि धुँए भरे हमारे शहर में
पहुँचे तादाद में पैदावार
और हमारे जेब पर ना पड़े मार
और हम भरवा सकें
अपने वाहनों में पेट्रोल
और धुँआ करने के लिए
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
कि टूटे ना एक भी सितारा
इस आकाश की ओढनी से
लबालब रहे आकाश की ओढनी
सितारों से
ताकि ढकी रहे धरती
उस ओढनी की छाँव से
कि एक भी उल्कापिण्ड
धरती की छाती पर
गिर कर ना करे विलाप
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
देश के उस पार भी
आबोहवा चलती रहे
ठण्डी और सुखद
कि सरहद पर बची रहे गोलियाँ
ताकि एक भी चिंगारी
हमारी या उनकी सरहद पर
घास के एक भी टुकड़े को
जला ना सके ।
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
कि धरती पर जीने वाले
हर एक इंसान को
मुहैय्या हो रोटी कपड़ा और मकान
ताकि खाते वक्त रोटी,
पहनते वक्त कपड़े
और ओढते वक्त चादरें
नहीं आए हमारे सामने
उन लाचार लोगों की सूरतें
कि हम एक भी निवाला
निगल ना सकें हलक से
हम जानते ही नहीं है प्रार्थना
की शक्ति को
वरना वो ताकत
सिमट जाती है
आत्मबल बन कर
फिर क्या ज़ुर्रत
कि पड़ौस का बच्चा
चंगा ना हो
फसलों पर
ना बरसें बादल
टूटे ना सितारे कभी
बहती रहे हवाएँ
ठण्डी और सुखद
इस पार भी
उस पार भी
और धरती पर जीने वाला
हर इंसान हो खुशहाल
कि दर्द का एक शूल भी
उसको छू ना पाए
दरअसल
हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ
उन सब के लिए ।
*****
(साभार- स्पंदन)
प्रार्थनाएं
मैंने बोई प्रार्थनाएँ
उस बीज के लिए
मैंने सींची प्रार्थनाएं
उस कोंपल के लिये
मैंने पौषी
प्रार्थनाएं
उसके चटकने तक
मैंने गाई प्रार्थनाएं
उसके खिलने तक
मैंने गुनी प्रार्थनाएं
उसके बढ़ने तक
मैंने ध्याई प्रार्थनाएं
उसके फलने तक
मैंने समाधि प्रार्थनाएं
ब्रह्माण्ड के पोर-पोर में
समाने तक
*****
उस बीज के लिए
मैंने सींची प्रार्थनाएं
उस कोंपल के लिये
मैंने पौषी
प्रार्थनाएं
उसके चटकने तक
मैंने गाई प्रार्थनाएं
उसके खिलने तक
मैंने गुनी प्रार्थनाएं
उसके बढ़ने तक
मैंने ध्याई प्रार्थनाएं
उसके फलने तक
मैंने समाधि प्रार्थनाएं
ब्रह्माण्ड के पोर-पोर में
समाने तक
*****
(साभार ब्लोगत्सव)
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utkristh rachana
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