प्रमोद कुमार शर्मा भी हमारे समय के उन कवियों में हैं जिनके साथ आलोचना ने अभी तक न्याय नहीं किया है, इसका प्रमाण और कवि की यह व्यथा अपने सद्य प्रकाशित चौथे काव्य संकलन ’कोसों दूर’ की भूमिका के साथ इन शब्दों में ध्वनित होती है,’ और तो क्या कहूं- आलोचकों से यही निवेदन है कि वे अपना मूल्यांकन जरूर जनपद के सामने रखें।’
”कोई भी काव्य वस्तु अंत:करण के आयतन का वह बिम्ब होती है जो क्रमबध्द सूत्रों से जीवन की डीएनए रच रही होती है। कविता यही बिम्ब है मेरे लिए। यही रूपक। यही छंद। मेरी पहली शर्त है –जीवन के इस डीएनए की रक्षा होनी चाहिए और यह संभव है शब्द में। ’ अपनी कविताई को इस अनोखे अर्थ में परिभाषित करने वाले प्रमोद कुमार शर्मा की कविताएं पढते हुए आपको सचमुच महसूस होगा कि यह कवि अपने समय से वह किस कदर कितना उद्वेलित और आंदोलित है? उन्हें हर जगह एक क्यों? दिखायी देता है जिससे वह जूझने में अपने-आपको पूरा झौंक देते हैं फ़िर भी असंतुष्ट रहते हैं, कहीं भी जक नहीं पड़ती। उनकी कविता सवालों के भीतर उत्तर के साथ-साथ नए सवाल खड़े करती दिखायी देती हैं। जनकवि स्व. हरीश भादानी इसे उनकी विशिष्टता मानते हैं, ’मुझे प्रमोद से आशा रखनी चाहिए कि वह अपने इसी रचना रूप के साथ ’धर मंजला- धर कूंचा’ चलता जाए।’ कवि मंगत बादल प्रमोद की कविता के बारे में कहते हैं,’’प्रमोद के पास अद्भुत सम्प्रेषण है। परिनिष्ठित भाषा है। सुगठित शिल्प के भीतर विचार को सांझा करने की शक्ति है। प्यारा आदमी है, प्यारी कविताएं लिखता है।’ इसी बात को आगे बढाते हुए ओम पुरोहित’कागद’ को लगता है ’प्रमोद कुमार शर्मा की कविताओं में यथार्थ अपनी निजता के साथ प्रस्तुत होता है। जहां बनावटीपन या ओढे गए सत्य का मिश्रण नजर नहीं आता। अब आप ही देखें..प्रमोद जी की कविता में क्या है?
जन्म 1 मई 1965, शिक्षा: एम.काम. व नाटक में राजस्थान विश्वविद्यालय से सर्टिफ़िकेट कोर्स संप्रति: आकाशवाणी बीकानेर में वरिष्ठ उद्घोषक।
प्रकाशन: सच तो ये है, सड़क पर उतरेगा ताजमहल, कोसों दूर(हिन्दी काव्य संग्रह), बीज(एक लंबी कविता), सावळ-कावळ (राजस्थानी कहानी संग्रह), आदमी घर आया, छुपी हुयी लड़की, गुडनाइट इंडिया (कहानी संग्रह), बोली तू सुरतां(राजस्थानी कविता संग्रह), क्लाड ईथरली(उपन्यास), व राजस्थानी उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य।
पुरस्कार-सम्मान- ’छुपी हुयी लड़की’ कहानी संग्रह के लिए ’विद्यादेवी मुन्नीलाल एवं बृजकुमार बहल स्मृति पुरस्कार-2009, नगर विकास न्यास, बीकानेर द्वारा एल पी टैस्सीटोरी सम्मान-2012 व जैसलमेर पर केंद्रित रेडियोवृत्त रूपक आकाशवाणी मैरिट सर्टिफ़िकेट-1994, 1995 व 1997 के अलावा जैसलमेर व बीकानेर जिला प्रशासन द्वारा सम्मान ।
प्रमोद कुमार शर्मा की कविताएं
इस सुबह में तुम
जनवरी की इस भीगी सुबह में
धरती धो रही है अपने मटमैले पाँव
कि उतार रही है अपना मल इस मास में
आकाश छलक रहा है
संभाले भी कैसे अमृत भरा
कलश धन्वन्तरी का
पेड़ भी इधर चुप हो गए हैं अचानक
करते हुए आपस में सर्दी की बातें।
मैं देखना चाहता हूं चुप्पी के पार
फाड़कर दीदे अपने कोहरे की पैठ में
किन्तु नहीं दिखता कोई द्वार
ठीक वैसे ही -
जैसे तुम खड़ी हो जाती हो जब सामने
*****
हाय मैं दूर अपने ही देश से
हाय रे परमात्मा मेरे।
तूने दिया बहुत बड़ा देश
पर मैंने देखा नहीं पूरा
कुछ देखने नहीं दिया शरीकों ने
वैसे जो छठी के भूगोल में था नक्शा
उसके हिसाब से कई तीर्थ कर लिये थे मैंने
किन्तु फिर जब जब प्रश्न उठा
नितिगत मसलों के निष्कर्षों का
मैं दूर रहा चाय की प्यालियों में
भाप बनकर उड़ते देश से
मैं दूर रहा - दूर कहीं पाचँ तारा की चिन्तन बैठक में
छुपे देश के पाँचांग गुरू से।
मैं दूर रहा मेरे परमात्मा
अपने ही कदमों तले छुपे आयतन से।
*****
आधा-अधूरा
कितना कुछ बिखरा पड़ा है
इन दिनों मेरे आस-पास
किसी की काँप रही है धड़
किसी का दिख रहा है सिर मुझे
कहीं-कहीं दिख रहे हैं पंजे केवल उचके हुए
कहीं पत्ती है
कहीं फूल है
और जड़ें हैं कहीं
यह किस आंख से देख रहा हूं मैं
मुझे सब कुछ आधा-अधूरा क्यों दिख रहा है?
*****
मुझे सराय दो पृथ्वी
नहीं-
यह धरती मेरा घर नहीं
इसे तो एक दिन छोड़ना पड़ेगा
- घर कोई छोड़ता है भला -
इधर:
मुझे सराय में रहना भी तो नहीं आया
और वैसे भी कुछ अमीरजादों ने इसे
रहने भी नहीं दिया सराय
कैसे कोई रहे फिर।
मैं पृथ्वी से अवकाश माँगता हूं
मुझे समय दो पृथ्वी
मुझे घर नहीं
सराय चाहिए
उसे ढूंढने दो मुझे।
*****
जिम्मेदारी भारी है
जिम्मेदारी भारी है
भाषा को बीमारी है
- शक
धक-धक कर रहे हैं दिलों में
सन्नाटे खड़े हो गए हैं महफिलों में
ऐसे में शब्दकोश टटोलने से क्या होगा?
वक्त जबकि:
हर चीड़िया की आंख में तीर खोज रहा है
और ईश्वर भी यकीनन यही सोच रहा है
कि तीरन्दाजी का ये खेल बंद होना चाहिए।
हमें भाषा में थोड़ा तो दर्द-मंद होना चाहिए।
*****
कविता से अनुराग
दूध का दूध
और पानी का पानी
कर देती है कविता
तब
जबकि उसमें साँच हो।
- आंच हो
जनपद के झुलसते झूम्पों की
व्यथा हो कड़वे-कसैले तूम्बों की
तब वह:
एक पटट्ी बांध लेती है आंख पर
थामते हुए हथ में न्याय का तराजू
- काजू
अच्छे नहीं लगते फिर सजे हुए प्लेट में
अक्षर बहुत बड़े दिखते हैं बच्चों की स्लेट में
हर कोई सावचेत - सजग हो जाता है
जब कविता से हमारा अनुराग हो जाता है।
*****
दंग हूं
दंग हूं:
मैं भाषा का बीज
खेत की परिभाषा नहीं जानता
- तानता
रहता हूं ऊपर से तेवर तीखे
जल-भुन जाते हैं घेवर घी के
शहर मेरे नाम पर डालता है सफेद चादर
व्याकरण मुस्कराता है डेढ़ इंच डायस पर
मैं उतर जाता हूं जनपद की आंख से।
चीखता हूं
चिल्लाता हूं
हां-हां मैं अंधों की बस्ती में
रंग हूं।
दंग हूं।।
*****
सबसे बड़ी सजा
कितना मुश्किल है प्रेम करते रहना
और कितना अनिवार्य।
लोग ढूंढ रहे हैं
हिंसा की जड़ में आक्सीजन
कितना सरल है नफ़रत करते रहना!
सच-
आदमी के पेट में चाकू उतारने में
नहीं है कोई झंझट
हे दुनिया के बहादुर हत्यारो!
हे दुनिया के विजेताओ!
“तुम सब नहीं कर सकते प्रेम
यही तुम्हारी सबसे बड़ी सजा है।“
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2 comments:
सुंदर अति सुंदर कविताएं
"तुम सब नहीं कर सकते प्रेम
यही तुम्हारी सबसे बड़ी सजा है "
बहुत गहरी बात कहती प्रमोद जी कि कविताएं
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