Thursday 22 December 2011 1 comments

राजेश मोहता की कविताएं

राजेश मोहता की कविताएं
 
एक अपरिचित चेहरा, एक अपरिचित नाम राजेश मोहता। हिन्दी कविता में सर्वथा अपरिचित  एक नया हस्ताक्षर कहीं- कभी कोई प्रकाशन की सूचना नहीं। पर राजेश मोहता की इन कविताओं को पढकर कोई भी  अचंभित हो सकता है। इतनी गहरी और पकी हुयी कविताएं…निश्चय ही असीम संभावनाएं दिखायी देती है। राजेश मोहता का पहला काव्य संग्रह ’बहुत जल्द’ बोधि प्रकाशन से छपा है। एक कवि सीधे संग्रह से पाठक के बीच?बहुत ही अज़ीब और आश्चर्यजनक परंतु शायद सच है। राजेश की कविताओं ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया  जब आप पढेंगे तो मेरी बात की ताकीद करेंगे, भरोसा है। राजेश की कविताओं के अनेक वितान दिखाई देते हैं।  अजीब तरह का नैराश्य, छटपटाहट, उथल-पुथल. स्वयं के साथ-साथ अपने आस-पास की समस्त विषमताओं, विकृतताओं के प्रति घृणा का भाव और भी बहुत कुछ ऎसा जो उनके कवि को विचलित करता है। अपने पहले संग्रह ’बहुत जल्द’ से कुछ कविताएं उदाहरण के लिए उन्होनें भेजी हैं। इन कविताओं को पढकर महसूस होता है कि कवि अपने समय की विकृतियों, विषमताओं और मानवीय रिश्तों के धुसरते रंगो से कितना उद्वेलित है। 

जन्म:  10 जून 1964 श्री गंगानगर (राजस्थान) संप्रति: अध्यापन
संपर्क: 11/323 मुक्ता प्रसाद नगर, बीकानेर (राज)
मो: 07737279162, 09214583795



सार्थकता की तलाश

मेरी नींद में
एक धिक्कार सोच है
जो सपनों की कटोरी में बंद है
पर धन्य हो जाना चाहती है
और अचानक
स्वप्न के टूट जाने पर
मैं गीदड़ की तरह
उबासता हुआ
अपना मुख बंद कर लेता हूं
मेरे भीतर
स्वप्नों का एक गहरा आकाश भी है
जिसमें पड़ा अर्थ
मैं पकड़ना चाहता हूं
अचानक मुझे
बहलाने के लिए
बाहर टूटे फ़्रेम सी
एक लिपी-पुति ऎतिहासिक औरत
आकर खड़ी हो जाती है
जिसके नरम-नरम गोश्त को
इतिहास की कुंठाओं ने
कई बार नोचा है।
तब एक बार फ़िर
मैं गीदड़ की तरह
उबासता हुआ
अपना मुख बंद कर लेता हूं
क्योंकि
गोश्त के भीतर आकाश नहीं है
गोश्त तो एक उबासी है
जो मैं रोज़ लेता हूं
*****

खण्डित विश्वास

तुम ऎसे थे नहीं
तुम ऎसे हो नहीं
तुम तो बस बह गए थे तेज धारा में
धारा/जो लहरों में बंटी
फ़िर भी एक
तुम मुझमें
मैं तुम में
फ़िर भी लहरों में बंटे
हम सभी के विश्वास।
*****

तलाश बंद

गहन द्वंद  से उपजे
सहज तनाव
आंसू पीते ही चले गए
और अचानक एक दिन
कंधों की तलाश बंद हो गई।
*****

कीचड़ से विद्रोह

वर्तमान
एक मृत हो चुका
मुर्दा शमशान है।
मैं इस शमशान पर
पूरी घृणा से थूकता हूं
और अस्वीकार करता हूं
कि आदमी
गर्भ की गर्म भट्टियों में
पैदा होनेवाला
एक ऎसा उत्तेजित मांस का लोथड़ा है
जो केवल और केवल
ऊबभरी उबासियों के मुक्त होने के लिए
औरतों के गर्भ में
गरम गोश्त के बीज़ बोता है
मैं अस्वीकार करता हूं
तुम्हारी घृणित परिभाषा से
कि भावी नस्ल के लिए
ऎसा वर्तमान जीना जरूरी है
जिसमें आदमी की आंख ही मर जाए
आदमी अपनी ही बच्चियों का
बेशर्म दलाल हो जाए
और निरर्थक आदर्शों को
घसीटता हुआ
भव्य इमारतों के गीत गाए।
मैं विद्रोह करता हूं
और अब
इस विद्रोह से भी
विद्रोह करता हूं।
*****

बहुत जल्द

बहुत जल्द
मैं अपने भीतर
उदित उस मोह की
क्रूरतम हत्या करूंगा।

बहुत जल्द मैं अपने श्मशान में
प्रवेश पानेवाले
जिंदा शवों को
अपनी ज़हरीली आग से
फ़ूंक डालूंगा।

बहुत जल्द
बहुत जल्द
एक बार फ़िर
मैं मरूंगा।
*****

ईश की पीड़ा

ओ.. मेरी कृति!
मुझे विश्वास देना
मैं कुछ न चाहूंगा
कुछ न चाहूंगा
मुझ से वह सब छीनना
जो मैं चाहता हूं
पर विश्वास मत छीनना
क्योंकि विश्वास छीनने पर
जैसे तुम टूटी हो
अधूरी पड़ी हो
मैं भी वैसे ही टूटूंगा
अधूरा पड़ा रहूंगा।
इसलिए हे मेरी कृति!
मुझ कृतिकार को ही तुम गढना
मुझे गढना
जब-तब मैं तुम्हें गढना भूलूं।
दण्ड देना
पीड़ा देना
थूकना मुझ पर
मुझ घृणा के पात्र से घृणा करना
पर उपेक्षित नहीं
मुझे गढना
पर विश्वास कभी मत छीनना
कभी नहीं।
*****

दोष पौरूष का

परंपरा कभी नववधु थी
जिसे युग का सत्य
बड़े जतन से ब्याह कर
लाया था इस धरती पर
दोनों के संसर्ग से जन्म हुआ
विश्वास का
जिसके साथ धरती पर
खेलते हुए हम सभी बहुत प्रसन्न थे
फ़िर हमने विवाह किया
अपने भीतर के संवेदन विवेक से
जिसके संसर्ग से जन्म हुआ आस्था का
जिसके साथ भीतर खेलते हुए
हम सभी प्रसन्न थे।
तभी तो
परंपरा
युग का सत्य
विश्वास
संवेदना
विवेक
आस्था
और हम सभी
स्वरपान किया करते थे
अनहदनाद का प्रतिफ़ल
पर अचानक
एक दिन अंह जाग उठा पौरुष का
पकड़ बाल संवेदना के
फ़ेंक दिया उसे भीतर से बाहर
और लुप्त हुआ युगों से गूंजता
इस सृष्टि में अनहद नाद
शायद
अभिशप्त हुए हम सब उसी दिन
तब सूत्रपात हुआ
एक नई खण्डित सृष्टि का
जिसमें है
खण्डित परंपरा
खण्डित विश्वास
खण्डित संवेदना
खण्डित विवेक
खण्डित आस्था
और खण्डित हम सब
कल जब
कुरूप परंपरा
अपने पिचके गालों
व फ़ूले पेटवाले कमज़ोर विश्वास को
अपनी गोद में  लिए हुए
मेरे बायीं ओर खड़ी थी
तथायुग का सत्य
अज्ञात सत्ता को कोसता हुआ
मेरी दायीं ओर खड़ा था
तब मैं
दोनों के बीच खड़ा था
तटस्थ!
निरपेक्ष सा
अपने ही भीतर
मरा हुआ।
*****


Thursday 8 December 2011 3 comments

डा. नीरज दइया की कविताएं

 
मित्रो ! आज उदाहरण में अपनी कविताओं के माध्यम से रु-ब-रू हो रहे हैं वरिष्ठ युवा  कवि नीरज दइया । नीरज दइया की पहचान एक राजस्थानी कवि, आलोचक, संपादक और बाल-साहित्यकार के रूप में अब तक रही है, राजस्थानी भाषा में उनकी  कविताएं अपनी एक अलग पहचान-स्थान रखती है और राजस्थानी कविता को एक नई ऊर्जा और उष्मा दी है। उनकी लम्बी कविता के राजस्थानी कविता-संग्रह देसूंटो’  को काफ़ी सराहा गया है। देसूंटो’  रोटी-रोजी के फ़ेर में अपनी ज़मीन से बेदखल होने पर मजबूर और मजबुरियों में एक आदमी के भीतर-बाहर की उथल-पुथल का बहुत ही गहरी संवेदनात्मक अनुभूति का सजीव आख्यान है। नीरज दइया की इन हिन्दी कविताओं का मुहावरा भी उतना ही गहन और गंभीर है जितना कि राजस्थानी का। वे अपने आसपास की स्थितियों और समस्त विषमताओं को बहुत ही सूक्ष्मता से देखते-समझते हुए उसे काव्याभिव्यक्ति देते हैं। यहां प्रस्तुत है उनकी कविता की प्रेम दृष्टि और प्रेम-परख से  युक्त एक हरा-भरा संसार...


22 सितंबर 1968  को रतनगढ,चूरु (राजस्थान) में जन्मे डा. नीरज दइया वर्तमान में केंद्रीय विद्यालय, क्रमांक-1, वायुसेना, सूरतगढ, जिला गंगानगर (राज) में हिन्दी के पी.जी.टी. अध्यापक हैं। लेखन नीरज जी को विरासत में मिला है। आपके पिता स्व. सांवर दइया केंद्रीय साहित्य अकादमी से पुरस्कृत राजस्थानी के ओजस्वी कथाकार, कवि थे। इसीलिए नीरज साहित्यिक वातावरण में पले-बढे और आरंभ में राजस्थानी में ही लिखना स्वीकार किया। नीरज मानते हैं कि लेखन में भाषा नहीं वरन लेखन ही महत्वपूर्ण होता है । एम. ए. हिंदी और राजस्थानी साहित्य में करने के पश्चात निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोधविषय पर शोध कार्य किया । साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के लिए ग-गीत” (काव्य संग्रह कवि मोहन आलोक) का राजस्थानी से हिंदी अनुवाद किया जो अकादेमी द्वारा 2004 में छपा । राजस्थानी में मौलिक कविता संग्रह के रूप में साखतथा देसूंटोकविता-संग्रह हैं । निर्मल वर्मा के कथा संग्रह और अमृता प्रीतम के कविता संग्रह के राजस्थानी अनुवाद भी किए जो महत्त्वपूर्ण माने गए हैं । अनेक संग्रहों में सहभागी रचनाकार के रूप में प्रकाशित और राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर की मासिक पत्रिका जागती जोतका संपादन भी किया । राजस्थानी कविता और अनुवाद के लिए कई मान-सम्मान और पुरस्कार भी मिले हैं । "आलोचना रै आंगणै" (आलोचना) 2011 पिछले ही दिनों बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है। हिंदी कविताओं का प्रथम संग्रह उचटी हुई नींदशीध्र-प्रकाश्य है । अकादमी में मनोनित राजनियुक्ति के अभाव में पिछले कई वर्षों से राजस्थानी साहित्य  की एक मात्र अकादमिक मुख पत्रिका बंद होने के कारण  राजस्थानी साहित्य लेखन में आए गतिरोध को नीरज दइया ने अपनी राजस्थानी वेब पत्रिका नेगचारके माध्यम से पाटने का सद्प्रयास भी किया जो अनवरत जारी है। संपर्क-
 neerajdaiya@gmail.com 


 नीरज दइया की कविताएं  

सांस-सांस गाती है..
झीनी-झीनी चदरिया
ओढ़ रखी है मैंने भी
तुम्हारे नाम की।
मेरी सांस-सांस
गाती है दिन-रात
बस तुम्हारा ही नाम।
भीतर-बाहर आती-जाती
गुनगुनाती है हवा
बस एक ही आलाप....।
***

छवि
तुम्हारी घबराहट से
होने लगती है-
मुझे भी घबराहट।
हर मौसम का है
अपना एक रंग
घबराहट में बिखर कर
बदल जाते हैं रंग
अमूर्त चित्र में
दिखने लगती है-
छवि कोई मूर्त...
***

चांद
हमारे प्रेम से पहले
था आकाश में चांद
मैंने देखा नहीं
जब देखा भी
दिखा नहीं ऐसा
दीख रहा है अब जैसा...!
माना कि चांद वही है
चांदनी भी वही है
बस देखने वालों में
हो गया हूं शामिल मैं
एक नई आंख लिए
क्या सूझा मुझे
कि बिठा दिया तुमको
मैंने चांद पर!
***

हर बार नया
घटित होता है
जब जब भी प्रेम
पुराना कुछ भी नहीं होता
हर बार होता है नया
घटित हुआ तब जाना-
यह एक अपूर्व-घटना है
किसी दुर्घटना जैसी भी....
मीरा ने कहा था-
घायल की गति
घायल जाने।
***

प्रेम का समय
जब मैंने किया प्रेम
वह समय नहीं था
वह प्रेम था समय से पहले
जब समय था प्रेम का
समय ने कुछ कहा नहीं
मैं दुखी था,
वह शोक किसका था-
उसका, प्रेम का या समय का?
समय निकलने के बाद
फिर हो गया है प्रेम
या लौट कर आया है प्रेम!
समय से पहले का प्रेम दुखदायी
और समय के बाद का प्रेम
होता है कष्टकारक
ठीक समय पर
होता ही नहीं प्रेम!
***

पानी
खुशी मिलने ही वाली थी
वह खड़ी थी सामने बनकर-
एक लड़की!
उससे इजहार किया जा सकता था
अपनी बेबसी का
अपने अरमानों का भी
सब कुछ कहा जा सकता था
मगर खुशी
इतनी पहले कभी नहीं मिली थी
एकदम पागल कर देने वाली
दिल को जोर-जोर से धड़काने वाली
जोश, उत्साह, उमंग में लिपटी खुशी
प्यार में लिपटना चाहती थी।
प्यार था भीतर हमारे
फिर भी हम चाहते थे प्यार।
प्यार की प्यास में भी
मांगते हैं हम पानी!
मैंने भी मांगा
प्यार की जगह
खुशी से सिर्फ- पानी...
पानी! 
***

मौन शब्द
तुम्हारी तस्वीर देखकर
लगता है यह
कुछ कहने वाली है,
या फिर कुछ क्षण पहले ही
कुछ कहा है तुमने।
क्या कहा है तुमने?
कुछ कहा है तुमने!
मैंने नहीं सुना जिसे
या फिर मेरे सामने आते ही
कुछ कहते-कहते रुक गई हो तुम।
नियति है तस्वीर की
वह कुछ नहीं कहती
मगत बोलती बहुत कुछ है...
मित्रो! यहां पूरी हो गई थी कविता।
मगर एक टिप्पणी है,
आगे कि पंक्तियां-
उसने कहा-
यह कुछ नहीं कहेगी।
***
Saturday 3 December 2011 2 comments

हरीश बी. शर्मा की कविताएं


मित्रों आज उदाहरण में हैं युवा कवि हरीश बी. शर्मा। दैनिक भास्कर, हनुमानगढ, राजस्थान के प्रभारी हरीश बी. शर्मा पत्रकार से पहले एक संवेदनशील रचनाकार के रूप  पहचाने जाते हैं। हाल ही में केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा नव घोषित सर्वोच्च बाल साहित्य पुरस्कार राजस्थानी भाषा के लिए उनकी कृति  सतोळिया के अलावा राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से नाट्य विधा के लिए दिए जाने वाले देवीलाल सामर पुरस्कार  से भी नवाज़ा जा चुका है। अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में उनका कहना है,’ मैं यही जान पाया कि समय के साथ रचना की जुगलबंदी ही सृजनात्मक क्षणों की अभिव्यक्ति है।   मैं कभी खुद को किसी सांचे में नहीं ढाल पाया। एक विचार या विधा का नहीं हो पाया। इसकी वजह भी है। मुझे अपनी रचनाओं को विचारधारा या प्रचलित विमर्शोँ के पेटे समझना या समझाना अपमानजनक लगता है। हां, कहने का माध्यम जरूर बदलता रहा। ऐसे ही किसी समय में मैं कविताओं से दूर हो गया। नाटकों और कहानियों के करीब। हरीश जी की इन कविताओं का स्वर में लेखन के बारे में उनकी सोच की ताकीद करता है। हरीश का कवि जूझता रहता है अपने आपसे, अपने आस-पास से, एक छटपटाहट कुरेदती रहती है उसकी अनुभूतियों को..सहमति-असहमति सब कुछ दर्ज है यहां बिना किसी लाग-लपेट के...

हरीश बी. शर्मा का जन्म 9 अगस्त 1972 को कोलकाता  में हुआ लेकिन वे बीकानेर के मूल निवासी हैं और  पत्रकारिता में स्नातक और हिंदी में स्नातकोत्तर हैं । अपने पहले राजस्थानी कविता संग्रह ‘थम पंछीडा’ के शीर्षक से ही चर्चा में आए हरीश का दूसरा कविता संग्रह भी ‘फिर मैं फिर से फिरकर आता’ भी खासा चर्चित रहा। इसके अलावा किशोर वय के पाठकों के लिए लिखे उनके किशोर कहानी संग्रह ‘सतोळियो’ को हाल ही में केंद्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने राजस्थानी वर्ग में बाल साहित्य का नवघोषित सर्वोच्च पुरस्कार दिया  है। हिंदी और राजस्थानी में लगभग २० नाटक लिख चुके शर्मा के अधिकांश नाटक मंचित हैं। इन नाटकों में- हरारत, भोज बावळो मीरां बोलै, ऐसो चतुर सुजान, सलीबों पर लटके सुख, सराब, एक्सचेंज, जगलरी, कठफोडा, अथवा-कथा,देवता, गोपी चंद की नाव, प्रारंभक, पनडुब्बी प्रमुखत: है।

सम्पर्क: बेनीसर बारी के बाहर, बीकानेर(राज)
मो.न.  9672912603


हरीश बी. शर्मा की कविताएं


मुझे लौटना है

मुझे लौटना है
बिल्कुल
तय है लौटना
लेकिन
तुम्हारे पास नहीं
हां, तुम्हारे पास भी नहीं
बिल्कुल नहीं
क्योंकि तुम नाम हो
अब मुझे नहीं चाहिए कोई भी नाम
पहचान
जगह
संज्ञा
नहीं चाहिए सर्वनाम
कोई विशेषण
...
यहां तक लौटने की चाहत
खत्म हो रही है मेरी
या के घुटन होने लगी है यहां
या के अब और पाना चाहता हूं
है...! कोई है?
दे सकते हो तुम?
तुम...?
हां, बोलो तुम भी...?
कोई भी... जो सक्षम हो!
बोलो-बोलो-कोई तो हो
देह न अदेह
प्राण से परे
जीवात्मा न परमात्मा
सब भटक रहे हो-मुक्ति के लिए
तुम लोगों से-मुझे क्या मिलेगा बोलो
बोलो-मुझे क्या दोगे?
अब तक मेरी और तेरी चाहतों में
फर्क ही क्या रहा जो
सुकून की आस करुं तुझसे?
या के तुम मुझसे राहत पाओ!
छोड़ो भी सब, छोड़ो भी अब
तुम अपनी जानो-जाना है तो जाओ
वरना लौट जाओ
मुझे जाना है
लौटना है, लौटना है, लौटना है
बस! याद रखना मेरे पीछे आने से भी कुछ ना मिलेगा
आज तक अनुयायियों को संप्रदाय ही चलाने पड़े हैं
सब कुछ जानते अपने देवताओं के झूठ-सच
निभाने पड़े हैं-मंत्र
होमनी पड़ी है आस्थाएं
तुम ऐसा मत करना
मेरे कहे का संप्रदाय मत बनाना
मेरे से आस्था मत जोडऩा
जो खुद को ही नहीं ढूंढ़ पाया
बहुत पहले ही हो चुका है तुम्हारे सामने नंगा
सनद रहे-यह नग्नता साधना नहीं है
तुम भ्रम में मत पडऩा
मैं जानता हूं तुम भ्रम में नहीं, कौतुहल में हो
जानना चाहते हो
मैं
ऐसा हूं या वैसा
मिलेगा जवाब
मैं आऊंगा-बताने
इसीलिए लौटना है मुझे
मांगना है जवाब
दिग से, दिगंत से
मेरे होने के कारक बने उन सभी से
जो कर रहे हैं मेरा इंतजार
मैं जानता हूं
वे बेहद खुश होंगे
वे बुला रहे हैं
तुम इसे मेरी तरह लौटना ही कहना
वे भी इसे लौटना ही समझें तो बेहतर
सुना है
लौटने का कहकर निकले बहुतेरे
आज तक उन तक पहुंचे नहीं हैं
मुझे लौटना है
मुझे लौटना है
मुझे लौटना है

*****

याद

याद...!
तू मक्कार है।
कहा था नहीं आएगी।
आ गई ना...
अब सोच
ओढूं ना बिछाऊं
खिलाऊं ना पिलाऊं...
कहां जाएगी?
बता... बोल...
है कुछ अता-पता
है कुछ याद भी?  
*****

गीत जैसा कुछ
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
वह लगे सुहानी बरखा सी
सूखे मरु को है सरसाती
कभी संवेदन, कभी स्पंदन
कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वो प्रणय कवि की ज्यों पंक्ति
वह कशिश गजल का मतला ज्यूं
वह छुअन बहारों की समीरा
वह लाज उदित होते रवि की
वह छन-छन पायल की भाषा
वह हंसी कहीं बिजली चमकी
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वह घनश्यामल बिखरी जुल्फें
वह दीपशिखा मद्धिम-मद्धिम
वह बंदनवार बहारों की
वह चरम बसंती पुरवाई
वह लय है गीतों की मेरे
वह वीणा मेरी वाणी की
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वह दिल में बसी प्यारी मूरत
वह जिसे सजाया ख्वाबों में
वह झील-सी गहराई जिसमें
हम डूबते ही हर बार चले
वह खिलता कमल, सिमटी दुल्हन
वह तुलसी मेरे अंगना की
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी
*****

एक भी रेशा 
रेशा-रेशा
रेशे लिए हाथ में
खेलता रहा
रेशे खुलना चाह रहे थे
उंगलियों के
अभिप्राय से
नहीं चाहता था ऐसा
क्योंकि
अपेक्षा थी किसी की
भला क्यों
उतरता उसकी अपेक्षाओं पर खरा
हां, मैं खोल सकता था रेशा-रेशा
लेकिन उलझाता रहा
और एक दिन जब लगा
हद हो गई है
अब तो खोल ही दूं रेशा-रेशा
जवाब दे दिया उंगलियों ने
उलझ चुकी थी मेरी उंगलियां
खुद के अभिप्रायों से
उसे आज भी लगता है
मैं खोल सकता हूं रेशा-रेशा
मैं
चकाचौंध हूं
इस कथित अपने आभा मंडल में
क्या कभी मुझे यह सब आता था?
सच तो यही है कि
मैं तो कभी खोल ही नहीं पाया-एक भी रेशा
हां, एक भी रेशा
*****

तब तक
तूने जब सेंध लगाई
छैनी से भी पहले
आंगन में फैल गई
तेरी रोशनाई
रेत, किरचें और उधर से आती किरण
हां, सूरज तेरा-मेरा अलग नहीं था
किरचें और रेत थी मेरी
मेरी दीवार से
फिर जाने क्यों लगता रहा जैसे
सब कुछ था प्रेरित-अभिप्रेरित
उधर से, तेरी ओर से
छैनी करती रही सूराख
टकराया तेरा होना
तेरे होने का अहसास
अलग था कुछ-अब तक अनदेखा
वजूद जो चाहता था चुरा लेना
मैं निश्चित, आश्वस्त!
क्या?
था क्या मेरे पास
चुराने लायक?
मैं भी समेट कर घुटने
टेक कर पीठ दीवार से
करने लगा इंतजार
चलती रही हथौड़ी
पिटती रही छैनी
बढऩे लगा आकार
सब कुछ दिखने लगा आरपार
मेरा बहुत कुछ जा चुका था उधर
*****

कहां है तू! 
निशान
ईश्वर
जिस पर 
विश्वास है बहुत
कहता है-
सोचकर तो देख
हाजिर-नाजिर
न हो तो कहना-
जो तूने सोचा
जो तूने चाहा
अब
ये सोचा-चाहा
जिम्मे है तेरे
संभाले
बिगाड़े
बढ़ाए या
खपा दे
करना तूने ही है
मैं 
पगलाया
हकलाया
हड़बड़ाया
चिल्लाता हूं-
कहां है तू!
कोई नजर नहीं आता
सिवाय कुछ निशानों के
जिन पर उंगलियां बनी हैं
...ईश्वर की
हां, बहुत है मेरे पास
ईश्वर का दिया
*****

        



Popular Posts

©सर्वाधिकार सुरक्षित-
"उदाहरण" एक अव्यवसायिक साहित्यिक प्रयास है । यह समूह- समकालीन हिंदी कविता के विविध रंगों के प्रचार-प्रसार हेतु है । इस में प्रदर्शित सभी सामग्री के सर्वाधिकार संबंधित कवियों के पास सुरक्षित हैं । संबंधित की लिखित स्वीकृति द्वारा ही इनका अन्यत्र उपयोग संभव है । यहां प्रदर्शित सामग्री के विचारों से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है । किसी भी सामग्री को प्रकाशित/ अप्रकाशित करना अथवा किसी भी टिप्पणी को प्रस्तुत करना अथवा हटाना उदाहरण के अधिकार क्षेत्र में आता है । किस रचना/चित्र/सामग्री पर यदि कोई आपत्ति हो तो कृपया सूचित करें, उसे हटा दिया जाएगा।
ई-मेल:poet_india@yahoo.co.in

 
;