Saturday 20 April 2013 4 comments

होस्टल की लड़कियां : विमलेश त्रिपाठी की कविताएं

 
विमलेश त्रिपाठी 
मित्रो! उदाहरण में आज हैं युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार से सम्मानित हमारे समय के युवाओं में चर्चित और ध्यान खींचनेवाले कवि विमलेश त्रिपाठी। विमलेश की कविताओं में मुझे हमारे समय की चिंताएं और उनसे जूझने की व्यग्रताएं दिखायी देती है। किसी भी तरह के बनावटीपन से दूर ये कविताएं  सहज सी दिखती जरुर है कितुं सहज है नहीं। 

7 अप्रैल 1979  को बक्सर, बिहार के एक गाँव हरनाथपुर में जन्मे विमलेश त्रिपाठी प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड के पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत हैं और देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि  प्रकाशन के साथ 2004-5 के वागर्थ के नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित। “हम बचे रहेंगे” कविता संग्रह,दिल्ली व ’अधूरे अंत की शुरूआत, कहानी संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं और ’एक देश और मरे हुए लोग’ कविता संग्रह व ’कैनवास पर प्रेम’ उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य।

पुरस्कार व सम्मान- 
सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन की ओर से काव्य लेखन के लिए युवा शिखर सम्मान।कहानी संग्रह अधूरे अंत की शुरूआत पर युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार। 2004-5 के वागर्थ के नवलेखन अंक में प्रकशित ‘अधूरे अंत की शुरुआत’ और ‘परदे के इधर-उधर’ और 2010 में नया ज्ञानोदय में प्रकाशित कहानी ‘चिंदी-चिंदी कथा’ विशेष तौर पर चर्चित। डा.पूरनसिंह स्मृति सम्मान,  सूत्र सम्मान, राजीव गांधी एक्सिलेंट अवार्ड “हम बचे रहेंगे” कविता संग्रह नयी किताब, दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य। कहानी लेखन में भी समान रूप से सक्रिय।
संप्रति- कोलकाता में रहनवारी,परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में सहायक निदेशक (राजभाषा) के पद पर कार्यरत।
संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
· ब्लॉग: http://bimleshtripathi.blogspot.com
· Email: bimleshm2001@yahoo.com
· Mobile: 09748800649
चिट्ठा: अनहद

समकालीन कविता में हमारे भरोसे को बनाए रखने में उन कवियों की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं है जिनके पास बतौर ताक़त न तो जोड़ तोड़ की गणित है और न ही कोई विश्वसनीय आलोचक। ऐसे ही एक कवि हैं विमलेश त्रिपाठी। विमलेश की कविताओं में समय की उदासी है। उदास समय में कवि कहता है :
"मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ 
मेरे पास शब्दों की जगह 
एक किसान पिता की भूखी आँत है 
बहन की सूनी माँग है 
छोटे भाई की कम्पनी से छूट गई नौकरी है 
राख के ढेर से कुछ गरम उधेड़ती 
माँ की सूजी आँखें हैं" 
कितना त्रासद है उदास समय के सबसे कम जादुई कवि का यह आत्मस्वीकार। किसान पिता जो अन्न उपजाता है वह भूखा है। बहन है जो अनब्याही है। भाई है जो छँटनी या बन्द कारखाने की वजह से बेकार-बेरोजगार है। माँ है जिसकी आँखें सूजी हुई हैं। यह चित्र कविता में निस्सन्देह कोई कम जादुई कवि ही खींच सकता है। शब्दों का कोई बड़ा जादूगर तो क़लम की नोक से अनाज के दाने और बन्दूक की गोली एक साथ परोस देता है। लेकिन जो कम जादुई है वह अपेक्षाकृत अधिक ईमानदार है। कम से कम वह मध्यवर्गीय महानगरीय चेतना को लबादे की तरह नहीं ओढ़ता है बल्कि कपड़े की तरह पहनता है और कभी कभी त्वचा की तरह महसूस भी करता है। 

-नीलकमल



विमलेश त्रिपाठी की कविताएं 


होस्टल की लड़कियां-1

वे जोर-जोर से हंसती हैं
कभी-कभी चिढ़ाने की हद तक
दौड़ती हैं पिंजरे से छूट गए
खरगोश की तरह

उनके बक्से में रखी होती है जादू की पुड़िया
जिसे मां ने छुपकार रखे थे उनके आंचल में घर से निकलते समय
कहा था
कि बांधे रखेगी उन्हें
खानदान की मर्यादा और समाज के बंधनों से
यही जादू की पुडिया

वे रात के अंधेरे में
निकल जाती हैं बहुत दूर
कि जैसे चिड़िया अपनी पंखों की उड़ान नापती है
उनके सपने में उनके पैर
कभी थकते नहीं

वे सपने के बाद के जीवन को
बदल देना चाहती हैं
हर महीने बदलने वाले गंदी पट्टियों की तरह


बन जाती हैं जोगिन
बनाती हैं अपनी-अपनी जादू की पुड़िया
समय का दुर्गम पुल पाल करती करीने से

वे जीना चाहती हैं तय समय में
अपनी तरह की जिंदगी
जो उन्हें भविष्य में कभी नसीब नहीं होना...।।
*****


होस्टल की लड़कियां-2

वे बिना नाम की नदियां हैं
सदियों से बहती आ रहीं सतत्
कागज की छोटी नौकाएं
हमें खींचकर ले जातीं बचपन के नादान दिनों में

वे अमराइयों में पहली बार आई बौर हैं
हैं झीम-झीम हवा जो फागुन के ठीक पहले बहती
हमारे शरीर में नशे की तरह सेंध लगाती

वे सावन की बूंदे हैं
धरती की कोख को नम करतीं अपनी हंसी से
वे विलुप्त हो रही औषधियां हैं
जिनके बिना स्वस्थ नहीं रह सकती यह धरती

आकाश गंगाएं हैं वे
जिन्हें सदियों से मापने की कोशिश में है पूरी दुनिया...।
*****


होस्टल की लड़कियां-3

उन्हें झुलनी नथिया या पायल की जरूरत नहीं 
जरूरत हवा की
जो घर की दीवारों के बीच उनके लिए बहुत कम 

उन्हें जरूरत नहीं महंगे आई लाइनर्स नेल पॉलिश 
या खूब चटक आलता की
ऊब चुकी उनकी देह इन श्रृंगार प्रसाधनों से

उन्हे जरूरत खूब चमकीले धूप की
जिस पर जता सकें वे अपना हक किसी भी मनुष्य से अधिक
जिसे भर सकें अपनी आत्मा के सबसे गोपन जगह में
सुरक्षित पूरे जीवन भर के लिए बेहिचक

उन्हें जरूरत उस संगीत की जो जीवन में
एक बार ही बज पाता है 
सबसे खूबसूरत और सबसे सधे और मीठे सूर में

उन्हें जरूरत उस मृत्यु की
जिसके बाद सचमुच का जीवन शुरू होता है...।।
*****
- विमलेश त्रिपाठी 


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