Saturday 31 March 2012 0 comments

डा. राजानंद की कविताएं

मित्रो! आज उदाहरण में 80 से भी अधिक वसंत देख चुके वरिष्ठ कवि, उपन्यासकार, कथाकार, नाटककार, रंगकर्मी व रंग निर्देशक डा. राजानंद की कविताएं। मैं अपने समय में आलोचना द्वारा उपेक्षित किए गंभीर रचनाकारों की बात यदाकदा करता रहा हूं, उनमें एक नाम डा. राजानंद का भी है। डा. राजानंद साहित्य के मौन साधक रहे हैं। उनके रचनाकर्म और रचनाकार का महत्त्व बताते के लिए  शायद इतना बताना काफ़ी होगा कि सप्तक कवि, आलोचक, नाटककार डा.नंदकिशोर आचार्य ने अपनी सद्य प्रकाशित आलोचना कृति ’रचना का अंतरंग’ डा. राजानंद को समर्पित की है। राजानंद जी की इन कविताओं को पढते हुए आप पाएंगे कि ये  कविताएं  समकालीन कविता  के मिज़ाज़  से कहीं पीछे नहीं हैं। इन कविताओं में कवि कितनी सरलता से बहुत ही सूक्ष्म अनुभूतियों को  एक विराट अभिव्यक्ति देता देता है-
जो नहीं होता
वही हुआ हो जाता है
तभी तो तुम
सृष्टि हो
मैं क्रमश:

डा. राजानंद
जन्म: 15 अगस्त 1931(फ़ैजाबाद) शिक्षा: एम. ए. पी.एच.डी., बी.एड., साहित्यरत्न उपलब्धियां हासिल कर प्रौढ शिक्षा, पत्रकारिता, स्वतंत्र लेखन, नाट्‍य निर्देशन व आयाम नाट्‍य संस्थान के अध्यक्ष रहे।  सृजन: शायद तुम्हें पता नहीं, तब क्या सोचोगे(काव्य), प्यासे प्राण, नीली झील: लाल परछाइंया, रूप-अरूप, यहां से वहां तक, घड़ी दो घड़ी, एक बार फ़िर, बिखरे-बिखरे मन, इदम्‍, अंशावतार, ये होशवाले लोग, औरत में औरत, ना सुख धूप न छांव, पूर्वजा (उपन्यास), मम्मी ऎसी क्यों थी, कल किसने देखा(कहानी संग्रह), बहादुर शाह ज़फ़र और अन्य एकांकी, सदियों से सदियों तक, अश्वथामा, रोशनीघर, राजानंद के नाटक(गणगौर/जोगमाया), आदमी हाजिर है/ चौकियां कौन तोड़ेगा, गुंगबांग मर गया(तीन नाटक), चंदा बसे आकाश, सरस्वती कहां खो गई(नाटक), शहद का महल, जब तक सांस तब तक आस( बाल नाटक), स्वाहा! स्वाहा! (नुक्कड़ नाटक), संवेदना के बिम्ब(आलोचना), गांधी युग: दशा-दिशा, गांधी दर्शन और शिक्षा, गांधी और भारत संस्कृति की धर्मिता(विविध) के अलावा वातायन, सप्ताहांत के लिए पत्रकारिता व रंग रंग बहुरंग(शिक्षा विभाग राज.) का सम्पादन।
पुरस्कार व सम्मान : एक बार फ़िर(उपन्यास) के लिए  राजस्थान साहित्य अकादेमी का रांगेय राघव पुरस्कार, इदम्‍(उपन्यास) के लिए उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान पुरस्कार के अलावा राजस्थान साहित्य अकादेमी व राजस्थान संगीत नाटक अकादेमी के कार्यकारिणी सदस्य भी रहे।
विशेष: पुरस्कृत नाटक- चीख, सदियों से सदियों तक, चौकियां कौन तोड़ेगा का लेखन व निर्देशन
सम्प्रति: 2/30 मुक्ता प्रसाद नगर, बीकानेर- 334004, दूरभाष: 2252513



डा. राजानंद की कविताएं

सूना
जा रहा था
सूना
न इधर
न उधर
देखता
चेहरा सख्त
हिला हुआ
पर्तों से।
मानता है वह
अकेले को
अकेला चलना चाहिए
अपने को
कातते
लपेटते
उधेड़ते।
*****

क्रमश: मैं

जो नहीं होता
वही हुआ हो जाता है
तभी तो तुम
सृष्टि हो
मैं क्रमश:।
*****

पुनरावृत्ति

तुम्हारी सुगंध
जो सांसों में बसकर
रात-रात सपने रचती थी
अब मेरी रहाइश हो चुकी है।
वही तो है जो मुझे अक्षय रखती है
मैं शीशे-सा पारदर्शी
पहुंचता हूं अन्यों के पास
उनके अद्‍भुतपन को
अभिव्यक्त करता हुआ।
वे समझते हैं
प्रकट हो रहा हूं मैं
जबकि होती है
वास्तव में
तुम्हारी पुनरावृत्ति
*****

सुबह का चांद

ठहरा रहता है सुबह
चांद, कि वह सुने
अपने लिए
प्रार्थना के शब्द।
सूरज के उगते ही
करने लगते हैं लोग
सूर्य नमस्कार
मुस्कराता है चांद
व्यंग्य में।
*****

उत्सर्ग

तुमने ही कहा था
देह में मन है
मन में ऊर्मीयां
रहती हैं
स्व के साथ
देखना, सुनना, चाहना
हुआ कई बार
कभी स्वीकारा
स्व ने
कभी नकारा।
तब तुम आए
छवियों
छवियों की छटा
के साथ
स्वीकारा
हां, स्वीकारा
तुम्हें अधूरेपन के
पूरक की तरह।
एकमेक हो गए हम
जैसे बादल में बादल
जल में जल
यही तो होना था
उत्सर्ग पर्व।
*****







Sunday 25 March 2012 0 comments

वत्सला की कविताएं

मित्रो! इस बार उदाहरण में प्रस्तुत है वरिष्ठ कवयित्री वत्सला के सद्य प्रकाशित काव्य संकलन ’चाहा अनचाहा इसी खिड़की से’ कुछ चयनित कविताएं। वत्सला की कविताएं सामान्य ढर्रे से लिखी जा रही कविताओं से  कुछ हटकर हैं।  जिन्होंने वत्सला जी के पहले संग्रह ’यह जो दिखता है सागर’ पढा है, मेरे इस कथन के साक्षी होंगे। ’चाहा अनचाहा इसी खिड़की से’  संकलन की कविताओं को कवि के ’यह जो दिखता है सागर’ से  आगे की काव्य यात्रा कहा जा सकता है। इन कविताओं में कवि अपने बाहर से भीतर की यात्रा करता हुआ प्रतीत होता है, यह यात्रा साधारण नहीं है।   ये कवि के स्वयं से साक्षात होने की कविता है।  इन कविताओं  में  गहन-सूक्ष्म अनुभूतियां पूरी संवेदना के साथ अभिव्यक्त हुयी है। इन कविताओं में रमने के लिए कवि की तरह पहले आपको अपने मन में रमना पड़ेगा, वत्सला जी की इन कविताओं को पढते हुए मुझे ऎसा ही कुछ महसूस हुआ। कम से कम और जरूरी शब्दों में छोटे-छोटे बिम्ब रचती गहन अनुभूतियों की ये काव्य अभिव्यक्तियां पाठकों  को भीतर तक संवेदित-आंदोलित करेगी, मेरा विश्वास है। उनकी कविता बहुत ही कोमलता से एक स्त्री के मन के भीतर को जानने-बूझने की  का प्रयास करती है। कहीं प्रेम की छटपटाहट, कहीं पीड़ा, कहीं प्रलाप, निराशा-हताशा, शिकायतों के झंझावतों के बावजूद एक रास्ता खोजने का उपक्रम भी है। मछली कवयित्री के मन का पसंदीदा प्रतीक प्रतीत होता है, शायद यही वजह है कि उन्होंने मछली के प्रतीक 36 कविताओं की सीरीज लिखने में सफ़ल हो सकी हैं। ’चाहा अनचाहा इसी खिड़की से’ की अधिसंख्य कविताएं वह, तुम व प्रकृति को संबोधित करते हुए अपने मन के उद्वेगों को खोलती हुयी संग्रह की भूमिका लिखनेवाले प्रमोद कुमार के शब्दों,’प्रेम कविताएं एक अलग अहसास देती हैं। प्रेम शायद अपने अधूरे होने के सौंदर्य से अधिक अभिभूत करता है’ को सार्थक करता है।

वत्सला : एम.ए.(समाज शास्त्र), पी.एच.डी., डिप्लोमा-नेचुरोपैथी एवं योग
सृजन: यह जो दिखता है सागर, चाहा अनचाहा इसी खिड़की से(काव्य संग़ह), हम ही किसी बीज में(एक लंबी कविता), कुछ शब्द हमारे भी( काव्य संपादन) के अलावा देश की सभी लब्ध-प्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन

सम्पर्क :  1 स 4, पवनपुरी, बीकानेर(राज) मो. 09461872525



वत्सला की कविताएं


मछली की आंख: एक दुनिया

समंदर जहां था
कहां था वहां
था
मछली की आंख में
जहां
था
मन मेरा वहां

मछली
कहां से लाई
जल
तुमने जब भी
जानना चाहा
प्यास रह गयी
हर पल

वह
देख लेती है
जल के उस पार
चीर सकती है
दु:ख
समंदर का
पर वह
क्यों नहीं
समझ पाया
मन उसका

समंदर
जल पीता रहा
पोर-पोर
मछली का
उसमें हर बार
जल
होता गया अनंत

आज ये क्या हुआ
समंदर
बिना रीते ही जान गया
नदी का सूखना
और दर्द उसके
भर दिया उसे
आज
मछली ने ली है
एक आश्वस्ति की
सांस
*****

एक खिड़की खुली रहती है

मेरी
एक खिड़की खुली रहती है सदा
झांकते हुए कितने ही चेहरे
घर को टटोलते हैं
दरवाजे पर चाहे
लगा गया है सांकल, समय
जान-बूझकर
अब समंदर पर ताला तो
लग नहीं सकता
उसे भी हक है जानने का
खारे और मीठे का अंतर
जाना गया कि नहीं
पहचाना गया कि नहीं
कौन है जो खोलेगा यह द्वार
मैं हूं कि फ़ेंकती रही हूं सदा
चाहा-अनचाहा इसी खिड़की से
*****

उसकी आंखें

लेना चाहती रहीं थीं
उसकी आंखें
हर बार एक वादा
टूटने के लिए
मुट्ठी खाली है
या बंद
समझने में
एक उम्र गुजर जाती है
याद आते हैं
वे अनकहे वादे
उसकी आंखों में
कितनी मछलियां
लावे में
तैर जाती है
****

पीले बिच्छू

तुम सांप बने
ऎतराज नहीं किया
फ़िर संपोले दिए
प्रतिकार नहीं किया
तुम पयोधरों में
गड़ाए रहे
विषदंत
करते रहे
पीढियों को
ज़हरीला
सोचा
किसी एक दिन
नीलपर्णी
अपने कंठ में
समा लेंगे
तब रह जाओगे
शायद चंदनीय सर्प
पर आज
संपोले
बदल गए हैं
पीले बिच्छुओं  में
जो लील रहे हैं
जन्मदायिनी को
कहां हो जनमेजय
क्या कर सकोगे
फ़िर एक यज्ञ
पीले बिच्छुओं का
*****

प्रार्थना

वह सुनता है
प्रार्थना
खाली नहीं लौटाता
कभी प्रार्थित हाथ
पर
क्या जानते हैं
वे हाथ
प्रार्थना हो सके थे
स्वंय भी
किसी एक पल में
*****




























































Friday 16 March 2012 2 comments

प्रमोद कुमार शर्मा की कविताएं

प्रमोद कुमार शर्मा भी  हमारे समय के उन कवियों में हैं जिनके साथ आलोचना ने अभी तक न्याय नहीं किया है, इसका प्रमाण और कवि की यह व्यथा  अपने सद्य प्रकाशित  चौथे काव्य संकलन ’कोसों दूर’ की भूमिका के साथ इन शब्दों में ध्वनित होती है,’ और तो क्या कहूं- आलोचकों से यही निवेदन है कि वे अपना मूल्यांकन जरूर जनपद के सामने रखें।‍’
”कोई भी काव्य वस्तु अंत:करण के आयतन का वह बिम्ब होती है जो क्रमबध्द सूत्रों से जीवन की डीएनए रच रही होती है। कविता यही बिम्ब है मेरे लिए। यही रूपक। यही छंद। मेरी पहली शर्त है –जीवन के इस डीएनए की रक्षा होनी चाहिए और यह संभव है शब्द में। ’ अपनी कविताई को इस अनोखे अर्थ में परिभाषित करने वाले प्रमोद कुमार शर्मा की कविताएं पढते हुए आपको सचमुच महसूस होगा कि यह कवि अपने समय से वह किस कदर कितना उद्वेलित और आंदोलित है? उन्हें हर जगह एक क्यों? दिखायी देता है जिससे वह जूझने में अपने-आपको पूरा झौंक देते हैं फ़िर भी असंतुष्ट रहते हैं, कहीं भी  जक नहीं पड़ती। उनकी कविता सवालों के भीतर उत्तर के साथ-साथ नए सवाल खड़े करती दिखायी देती हैं। जनकवि स्व. हरीश भादानी इसे उनकी विशिष्टता मानते हैं, ’मुझे प्रमोद से आशा रखनी चाहिए कि वह अपने इसी रचना रूप के साथ ’धर मंजला- धर कूंचा’ चलता जाए।’ कवि मंगत बादल प्रमोद की कविता के बारे में कहते हैं,’’प्रमोद के पास अद्भुत सम्प्रेषण है। परिनिष्ठित भाषा है। सुगठित शिल्प के भीतर विचार को सांझा करने की शक्ति है। प्यारा आदमी है, प्यारी कविताएं लिखता है।’ इसी बात को आगे बढाते हुए ओम पुरोहित’कागद’ को लगता है ’प्रमोद कुमार शर्मा की कविताओं में यथार्थ अपनी निजता के साथ प्रस्तुत होता है। जहां बनावटीपन या ओढे गए सत्य का मिश्रण नजर नहीं आता। अब आप ही देखें..प्रमोद जी की कविता में क्या है?

 प्रमोद कुमार शर्मा
जन्म 1 मई 1965, शिक्षा: एम.काम. व नाटक में राजस्थान विश्वविद्यालय से सर्टिफ़िकेट कोर्स संप्रति: आकाशवाणी बीकानेर में वरिष्ठ उद्घोषक।
प्रकाशन:  सच तो ये है, सड़क पर उतरेगा ताजमहल, कोसों दूर(हिन्दी काव्य संग्रह), बीज(एक लंबी कविता), सावळ-कावळ (राजस्थानी कहानी संग्रह), आदमी घर आया, छुपी हुयी लड़की, गुडनाइट इंडिया (कहानी संग्रह), बोली तू सुरतां(राजस्थानी कविता संग्रह), क्लाड ईथरली(उपन्यास), व राजस्थानी उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य।
पुरस्कार-सम्मान- ’छुपी हुयी लड़की’ कहानी संग्रह के लिए ’विद्यादेवी मुन्नीलाल एवं बृजकुमार बहल स्मृति पुरस्कार-2009, नगर विकास न्यास, बीकानेर द्वारा एल पी टैस्सीटोरी सम्मान-2012 व जैसलमेर पर केंद्रित रेडियोवृत्त रूपक आकाशवाणी मैरिट सर्टिफ़िकेट-1994, 1995  व 1997 के अलावा जैसलमेर व बीकानेर जिला प्रशासन द्वारा सम्मान ।


प्रमोद कुमार शर्मा की कविताएं
इस सुबह में तुम

जनवरी की इस भीगी सुबह में
धरती धो रही है अपने मटमैले पाँव
कि उतार रही है अपना मल इस मास में
आकाश छलक रहा है
संभाले भी कैसे अमृत भरा
कलश धन्वन्तरी का
पेड़ भी इधर चुप हो गए हैं अचानक
करते हुए आपस में सर्दी की बातें।

मैं देखना चाहता हूं चुप्पी के पार
फाड़कर दीदे अपने कोहरे की पैठ में
किन्तु नहीं दिखता कोई द्वार
ठीक वैसे ही -
जैसे तुम खड़ी हो जाती हो जब सामने
*****

हाय मैं दूर अपने ही देश से

हाय रे परमात्मा मेरे।
तूने दिया बहुत बड़ा देश
पर मैंने देखा नहीं पूरा
कुछ देखने नहीं दिया शरीकों ने
वैसे जो छठी के भूगोल में था नक्शा
उसके हिसाब से कई तीर्थ कर लिये थे मैंने
किन्तु फिर जब जब प्रश्न उठा
नितिगत मसलों के निष्कर्षों का
मैं दूर रहा चाय की प्यालियों में
भाप बनकर उड़ते देश से
मैं दूर रहा - दूर कहीं पाचँ तारा की चिन्तन बैठक में
छुपे देश के पाँचांग गुरू से।
मैं दूर रहा मेरे परमात्मा
अपने ही कदमों तले छुपे आयतन से।
*****

आधा-अधूरा

कितना कुछ बिखरा पड़ा है
इन दिनों मेरे आस-पास
किसी की काँप रही है धड़
किसी का दिख रहा है सिर मुझे
कहीं-कहीं दिख रहे हैं पंजे केवल उचके हुए
कहीं पत्ती है
कहीं फूल है
और जड़ें हैं कहीं
यह किस आंख से देख रहा हूं मैं
मुझे सब कुछ आधा-अधूरा क्यों दिख रहा है?
*****

मुझे सराय दो पृथ्वी

नहीं-
यह धरती मेरा घर नहीं
इसे तो एक दिन छोड़ना पड़ेगा
- घर कोई छोड़ता है भला -
इधर:
मुझे सराय में रहना भी तो नहीं आया
और वैसे भी कुछ अमीरजादों ने इसे
रहने भी नहीं दिया सराय
कैसे कोई रहे फिर।
मैं पृथ्वी से अवकाश माँगता हूं
मुझे समय दो पृथ्वी
मुझे घर नहीं
सराय चाहिए
उसे ढूंढने दो मुझे।
*****

जिम्मेदारी भारी है

जिम्मेदारी भारी है
भाषा को बीमारी है
- शक
धक-धक कर रहे हैं दिलों में
सन्नाटे खड़े हो गए हैं महफिलों में
ऐसे में शब्दकोश टटोलने से क्या होगा?
वक्त जबकि:
हर चीड़िया की आंख में तीर खोज रहा है
और ईश्वर भी यकीनन यही सोच रहा है
कि तीरन्दाजी का ये खेल बंद होना चाहिए।
हमें भाषा में थोड़ा तो दर्द-मंद होना चाहिए।
*****

कविता से अनुराग

दूध का दूध
और पानी का पानी
कर देती है कविता
तब
जबकि उसमें साँच हो।
- आंच हो
जनपद के झुलसते झूम्पों की
व्यथा हो कड़वे-कसैले तूम्बों की
तब वह:
एक पटट्ी बांध लेती है आंख पर
थामते हुए हथ में न्याय का तराजू
- काजू
अच्छे नहीं लगते फिर सजे हुए प्लेट में
अक्षर बहुत बड़े दिखते हैं बच्चों की स्लेट में
हर कोई सावचेत - सजग हो जाता है
जब कविता से हमारा अनुराग हो जाता है।
*****

दंग हूं

दंग हूं:
मैं भाषा का बीज
खेत की परिभाषा नहीं जानता
- तानता
रहता हूं ऊपर से तेवर तीखे
जल-भुन जाते हैं घेवर घी के
शहर मेरे नाम पर डालता है सफेद चादर
व्याकरण मुस्कराता है डेढ़ इंच डायस पर
मैं उतर जाता हूं जनपद की आंख से।
चीखता हूं
चिल्लाता हूं
हां-हां मैं अंधों की बस्ती में
रंग हूं।
दंग हूं।।
*****

सबसे बड़ी सजा

कितना मुश्किल है प्रेम करते रहना
और कितना अनिवार्य।
लोग ढूंढ रहे हैं
हिंसा की जड़ में आक्सीजन
कितना सरल है नफ़रत करते रहना!
सच-
आदमी के पेट में चाकू उतारने में
नहीं है कोई झंझट
हे दुनिया के बहादुर हत्यारो!
हे दुनिया के विजेताओ!
“तुम सब नहीं कर सकते प्रेम
यही तुम्हारी सबसे बड़ी सजा है।“
*****
Wednesday 14 March 2012 0 comments

संजय पुरोहित की कविताएं

मित्रो! उदाहरण में आज आपके सामने हैं संजय पुरोहित। संजय मूलत: कथाकार है लेकिन इधर  कु्छ समय से उन्होंने कविता में भी अपनी पहचान बनायी है। संजय की कविता अपने भीतर और बाहर से साक्षात की कविता है। उनकी कविता आम आदमी की पीड़ाओं  का बयान करती हुयी कोमलता से कठिन और कठोर सवाल करती है….. उनकी अनुभूति संवेदनाओं को टटोलती हुयी अभिव्यक्त होती लगती है। उनकी कविता चमत्कारी उलझावों से मुक्त बेबाक कविता है ….
सीढ़ियां उनको, जो हैं जात के पिछड़े
बंधे हैं काबिलों के पैर, कमाल है मौला

संजय पुरोहित । जन्म 21.12.1969 एम.कॉम. (व्यावसायिक प्रशासन), एम.ए. (अंग्रेजी साहित्य), एम.जे.एम.सी., बी.एड.
‘‘बावरा निवास‘‘, समीप सूरसागर झील, मेजर जेम्स विहार, धोबीधोरा,
बीकानेर-01
09413481345 (मोबाईल)
sanjaypurohit2112@gmail.com ,oa sanjaypurohit4u@yahoo.co.in
sanjay-purohit.blogspot.com
 प्रकाशन - मधुमती, वर्तमान साहित्य, हंस, दैनिक भास्कर, द ट्रिब्यून(हिन्दी), हिन्दुस्तान टाईम्स, पंजाब केसरी, युगपक्ष, अग्रदूत,कश्मीर टाईम्स, दैनिक मिलाप, अग्रदूत, पायलट, उत्तर उजाला, समीचीन,अनुकृति, युग तेवर, शुभ तारिका, विकल्प, दैनिक हिन्दु (मेरठ),व्यंग्य यात्रा, चेतांशी, समीचीन, माणक, पालिका समाचार आदि देश की लगभग सभी लब्ध- प्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में संजय की रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। इसके अलावा ‘कथांजलि‘ (हिन्दी कहानी संग्रह) (राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा वित्तीय सहायता वर्ष 2008-09 के अन्तर्गत प्रकाशित )  आकाशवाणी बीकानेर में वर्ष 1990 से 1995 तक आकाशवाणी में युववाणी कम्पेयर व प्रसारण आकस्मिक उद्घोषक के रूप में कार्य किया। इसके उपरान्त इन्टरनेट की वेब पत्रिकाएं साहित्यकुंज, सृजनगाथा, अनुभूति-अभिव्यक्ति, आखरकलश, रचनाकार, नेगचार में कहानियां, कविताएं, लघुकथाएं व साहित्यिक रिपोर्ट्स का प्रकाशन।
सम्मान - गणतंत्र दिवस पर मैथिलीशरण गुप्त युवा लेखन पुरस्कार- वर्ष2009, जिला प्रशासन द्वारा मंच संचालन के लिए सम्मानित 2007,राव बीकाजी संस्थान, बीकानेर द्वारा प.विद्याधर शास्त्री अवार्ड 2010,बीकानेर रत्न सम्मान 2005, अखिल भारतीय सरला अग्रवाल कहानी लेखन प्रतियोगिता 2008 का प्रथम पुरस्कार, ज्ञान फाउण्डेशन ट्रस्ट बीकानेर आदि अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मान एवं सराहना। विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं विविध कार्यक्रम समारोहों में मंच संचालन कार्य का विपुल अनुभव। स्थानीय टीवी चैनल के लिए अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संचालन,रिपोर्टिंग। राजकीय गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, राजस्थान दिवस, बीकानेर स्थापना दिवस, दशहरा का गत सात वर्षांे से संचालन। पर्यटन विभाग, राजस्थान के ऊॅंट उत्सव, बीकानेर, कोलायत फेयर (कोलायत) गोगामेड़ी (हनुमानगढ) में गत पॉंच वर्षों से उद्घोषक।

संजय पुरोहित की कविताएं

आंसू (एक)

मोती श्वेत झिलमिलाते
अमूल्य !
अमूल्य इसलिए
कि ये झरते हैं
उस विपन्न के नेत्रों से
कि जो पहर दर पहर
हाड-तोड़ परिश्रम पर भी
नहीं बुझा पाता
भूख कृशकाय कुनबे की
तुम्ही बताओ
क्या इन मोतियो
इन आंसूओं का
कोई मूल्य हो सकता है भला
*****

आंसू (दो)

आंसू विभिषण बन
अंतस के
भेद बताए
दफन यादों की
कब्र पर
शबनम बन
उभर आए
ह्दय के
कृष्ण को
शुक्ल बन दरसावे
आंसू
क्या कम है विभिषण से

जो अंतस की लंका जलावे
*****

आंसू (तीन)

पतंगे की नियति
शमा से मिलन
और मिलन से
मृत्यू
शमा विरहणी ज्यूं
स्वदाहरत
पिघलाती काया
और छलकाती
अपने आंसू
तरल, तापित, निश्छल
जो क्षण भर में हो जाते हैं
पिलपिले ठोस श्वेत
और दर्ज हो जाते हैं
बचाव पक्ष के
गवाहों की सूची में
जिन्हे देनी होती है
शमा के त्याग की
गवाही
मौन अदालतों में
*****

आंसू (चार)

आंसू
भावों में लिपटे
जल में सिमटे
रसों में चिपटे
ममत्व को पुकारते
पार्थिव को स्वीकारते
स्नेह को आकारते
आंसू तुम अभिनेता
दुख को उगलते
और निगलते भी
सच को बताते
और छिपाते भी
आंसू
तुम कितने
विविध रूप रूपाय हो
*****

रचाव

मेरे उदास आंसू
पलकों के सिरहाने
बोझिल नयनों
के द्वारे
धो रहे पुतलियों की राह
कि मैं बिसराऊँ
उन क्षणों को
जो मेरे पोरों से
रच ना पाए
सत्य दर्पण
आखरों का गट्ठर
ढोते हुए
अर्थों को बिठला
ना पाया
रचाव की
टाटपट्टी पर
नयनों के अमृत कलश
से उबली बूंदों ने
छन्न से कर डाला
अन्तर्दृष्टि को
विराट, विशाल
और मैं
महसूसने लगा
सनसनाहट
अपनी कलम के
छोर पर
*****


निर्लिप्त

लो, फिर आ गई कालिमा,
फिर सुनाई देने लगा हैं,
गुंजन बिसरे पलों के झिंगुरों का
फिर से लगा है दिखने,
टिमटिमाना यादों के जुगनुओं का
गुम्फित फिर होने लगा हृदय
कहे-अकहे भावों से
स्मृतियां लेती अंगड़ाईयां फिर
हो रही तत्पर
लेने मुझे आगोश में
छोड़ आया था मैं जिन्हे
दूर, बहूत दूर
शून्य के बियाबान में,
सहसा मैंने पाया
स्वंय को मनुमंच पर
देखते ही देखते
पात्र आए खेलने
उभरा हुआ सा मेरा अतीत
खेल रहा है आज से
आज की अठखेलियों पर,
मुस्कुराता सा कल
इस खेल का मैं अनाड़ी
रह गया निर्लिप्त केवल!
रह गया निर्लिप्त केवल!!

*****

एक गज़ल

मयस्सर नहीं साफ पानी अवाम को
पी रहे वो बोतलें, कमाल है मौला

लूटते जो खजाने, मुल्क के जी भर,
फिर चुनावों में फतह, कमाल है मौला

लुट के भी नहीं चढ़ता कभी चौकी
वर्दी का ये रूआब, कमाल है मौला

ईलाज बिक रहे, शहर की अस्पतालों में,
हकीमों की तिजारत, कमाल है मौला

सीढ़ियां उनको, जो हैं जात के पिछड़े
बंधे हैं काबिलों के पैर, कमाल है मौला
*****


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©सर्वाधिकार सुरक्षित-
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