Wednesday 30 July 2014 0 comments

धन्य-धन्य यह लोकतंत्र व अन्य कविताएं : प्रेमचंद गांधी

उदाहरण: प्रेमचंद जयंती पर  विशेष अंक

मित्रो! प्रेमचंद जयंती के अवसर पर उदाहरण के लिए इससे सुखद और क्या हो सकता है कि इस अवसर पर हम हमारे समय के एक ऎसे समर्थ  कवि- कथाकार प्रेमचंद गांधी की कविताएं पाठकों के सामने रख रहे हैं जो हम सबको प्रिय हैं । कविता और संस्कृति- कर्म के क्षेत्र में प्रेमचंद गांधी का नाम आज किसी किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है। सही मायने में वे पाठकों के कवि है, जिनकी कविता पाठक पढ़ना चाहते हैं और उनकी कविताओं की प्रतीक्षा करते हैं। उनकी भाषा वाली सीरिज की तीन खण्डों में  'नास्तिकों की भाषा'  'भाषा की बारादरी' व 'भाषा का भूगोल' लम्बी और चर्चित कविताएं हमारे समय की कविता यात्रा में एक मील का पत्थर है, दुखद है कि हिन्दी कविता आलोचना ने अभी तक इस कविता और उसके कवि के बारे में अपनी कलम न के बराबर चलायी है। इस कवि की शक्ति का प्रमाण यहां संकलित उनकी कबिताएं स्वयं देती हैं। कविता को ठीक से जानने- समझने वाले आलोचक- पाठक भी इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं होंगे, मेरा ऎसा मानना है।


पर्यटन स्थलों पर जहां आमतौर पर लोग घूम- फिर चंद तस्वीरें ले मुदित हो लौट आते हैं, एक कवि शेरगढ़ जाता है तो वहां के क्या- क्या विस्मय पाठकों के लिए बटोरता है,  ’भग्न देवालय’ ’अटरु’ कविताएं इसकी साक्षी है। ’सावण की डोकरी सी सड़क’ धन्य धन्य लोकतंत्र’ हमारी व्यवस्था में फैली अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के कच्चे चिठ्ठे अनूठे अंदाज़ में कवि हमारे सामने रखता है। इसी तरह  ’कांगसियो’, ’दळ बादळी रो पाणी’व’पोदीना’ कविताओं में जिस भाषा- शिल्प, लोक-शैली में अपने समय के यथार्थ की वास्तविकताएं सामने आयीं हैं, अभिनव है।


धन्य-धन्य यह लोकतंत्र व अन्य कविताएं : प्रेमचंद गांधी



भग्न देवालय


पार्वती की हिलोरें खाती लहरों में
उबासियां लेता जीर्ण-शीर्ण इतिहास है शेरगढ़
उजड़े हुए वीरान मंदिर, महल और हवेलियों का
कोई भूला हुआ दर्द भरा तराना है शेरगढ़

जहां हर तरफ किसी दीवार या फर्श में
गड़ा हुआ खजाना खोजने आए लोगों की
हताश मेहनत के खुदे हुए गड्ढ़े हैं

पुरातत्व विभाग का चौकीदार नहीं खोल पा रहा
संरक्षित स्मारक का जंग लगा ताला
जैन तीर्थंकरों की विशाल प्रतिमाएं बंद हैं तालों में
वीरान किले पर साम्राज्य है मधुमक्खियों के असंख्य छत्तों का
जिसके प्रहरी हैं चमगादड़ और वन्यजीव

सुनसान हवेलियों से वो सब चुरा लिया गया है
जो किसी काम आ सकता है
फिर वो चाहे दरवाजा हो या चौखट-खिड़की
सिर्फ पत्थर बचे हैं अब
जिन्हें निकाल कर गांव वाले
नए घर और खेतों की मेड़ बनाते हैं
अनगिनत वनस्पतियां उग आई हैं
इस पुरा संपदा के आंगन में
जिन्हें रौंदकर मूर्ति तस्कर
निकाल ले गए एक शानदार इतिहास
विश्व बाजार में बेचने के लिए
तस्करों ने भव्य इतिहास ही नहीं
यहां का भूगोल भी बर्बाद कर डाला
चीख कर कहती है
पार्वती की वेगवती धारा

यहां के बाशिंदे निकले पेट पालने के लिए
जो बचे हैं वो पथरीली धरती की कोख से
जैसे-तैसे अन्न उपजाने में लगे रहते हैं अहर्निश

गांव का एक बुजुर्ग सोचता है
क्या कभी पहले जैसा चहल-चहल भरा होगा शेरगढ़
क्या बेगम की हवेली में फिर गूंजेंगे स्त्रियों के कहकहे और गीत
क्या जिनालय में गूंजेगा णमोकार मंत्र
क्या पार्वती के तट पर पछाड़ खाती लहरों का
कभी रुक सकेगा आर्तनाद?

अटरू


यहां कच्चे रास्ते में
मिट्टी और कचरे के नीचे
दबी पड़ी है पुरा संपदा

भग्न देवालय है गढ़गच्छ
न जाने कौन-से प्रकोप से धराशायी हुआ
यह विशाल मंदिर
एक हजार बरस पुरानी मूर्तिकला का अद्भुत खजाना
बेतरतीबी से बिखरा पड़ा है चारों ओर यहां

पुरातत्ववेत्ताओं ने खुदाई में
निकाल तो लिया मंदिर का मुख्य आधार
वेदी की दीवारों पर अक्षत बची भव्य प्रतिमाएं
लेकिन नहीं बचा सका मूर्ति तस्करों के हाथों से उन्हें

कितना विशाल रहा होगा इस मंदिर का प्रांगण
जहां कहते हैं दो बाप-बेटे कहीं बिछुड़े तो
इसी परिसर में रहते हुए
पंद्रह बरस बाद ही मिल सके किसी समारोह में

ठीक से मुआयना करने के लिए
भग्न मंदिर के अवशेषों पर करनी पड़ती है चढ़ाई
महान कला के इतिहास पर
पांव रखते हुए
होना पड़ता है शर्मसार

अटरू की सरजमीं में
ना जाने कितनी पुरा संपदा दबी पड़ी है अभी भी
जहां जरा-सी खुदाई में निकल आता है
कोई ना कोई ऐतिहासिक पाषाण

स्मारक परिचर दिखाता है
एक विशाल कमरे में बंद पड़ा कला का खजाना
हम फिर शर्मिंदगी से भर जाते हैं
जब देखते हैं किसी अनाड़ी ने
बेरहमी से सिंदूर पोत कर
यक्ष प्रतिमा को हनुमान बना डाला

एक मामूली ताले की सुरक्षा में कैद है
अरबों की पुरा संपदा
बचाव के लिए दीवार पर लटकी है
एक पुरानी दुनाली बंदूक
जबकि एक मामूली नेता घूमता है
हथियारबंद फौज के साथ

गढ़गच्छ से लौटते हुए सोचता हूं मैं
भव्य और गौरवशाली कलात्मक इतिहास को
किसी आपदा ने जितना नष्ट किया
उससे कहीं ज्यादा हमने नष्ट होने दिया
वर्ना कैसे कोई तस्कर
यहां की प्रतिमा को न्यूयार्क बेच आता?
  

सावण की डोकरी-सी सड़क


इन गाँवों तक आ तो गई है सड़क
प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कृपा से
पता नहीं कब तक रहेगी यह
एक बारिश भी झेल पायेगी या नहीं

जब राजधानी में ही बह जाती हैं
हर बारिश में सड़कें
इन गाँवों का क्या होगा
नहीं सोचते इन गाँवों के आदिवासी

उनके लिए सड़क का होना न होना बेमानी है
कौनसी कार, जीप या बाइक है उनके पास
जिसके लिए चाहिये सड़क
उनके पास तो साइकिल तक नहीं
और कौनसी बस-मोटर आती है यहाँ
जिसे चलने के लिए चाहिये सड़क

इसलिए यह नई-नवेली ‘पेवर’ सड़क
आजादी के साठ साला जश्‍न की
एक बीरबहूटी-सी सौगात है इन गाँवों को
अगले सावन पता नहीं
यह डोकरी रहे न रहे 

धन्य-धन्य यह लोकतंत्र


जिस गाँव में जाने के लिए सड़क नहीं
पीने के लिए साफ पानी नहीं
करने को मजदूरी नहीं

जहाँ आज भी लोग मजबूर हैं
नंगे पैर चलने और
नंगे बदन रहने के लिए
स्त्रियाँ अभिशप्त हैं चीथड़ों में जीने के लिए

जहाँ न कोई अस्पताल-डिस्पेन्सरी है
और न ही कोई स्कूल
जहाँ के लोग नहीं जानते
प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का नाम
और उनके ओहदों की अहमियत

जहाँ के लोगों को न अलकायदा का पता है न सद्दाम का
जो नहीं जानते बुश किस ताकत का नाम है
जिन्होंने जिन्दगी में कभी रेल नहीं देखी
चीलगाड़ी जिनके लिए
किसी भयानक चिड़िया का नाम है

ऐसे दीन-हीन फटेहाल आदिवासियों के द्वार
आई है हमारी सरकार
धन्य-धन्य यह लोकतंत्र
गाँव में खुली है देशी दारु की सरकारी दुकान 

कांगसियो *

........................
* एक राजस्‍थानी लोकगीत को याद करते हुए 
..............................

मैं तो पहले ही बरजती थी
मेले-ठेलों में मत जाओ ढोला
लेकिन क्‍या करूं
पीव जी मुझे लालच देकर
अपने साथ ले जाते
दिला लाते रंग बिरंगे रिबन और
काजल-बिंदी के साथ चूड़ी-कांचळी
साथ घूमते मैंने देखा कनखियों से
सिणगारियों को ताकते पिया को
घर लौटने पर अनजाने ही उमड़ता
मेरे भीतर गीत
’म्‍हारा छैल भंवर रो कांगसियो
सिणगारियां ले गई रै’
***
पहले पढ़ाई फिर नौकरी
और चले आए पिया जी शहर में
जहां न जाने कितनी सिणगारियां थीं
छुट्टी-तीज-त्‍यौंहार में
गांव आते पीव जी
जेब में से बखत-बेबखत
कंघी निकाल बालों को संवारते
मालजादी कंघी को घूरती मैं
चुपचाप गुस्‍से में गाती
’म्‍हारा छैल भंवर रो कांगसियो
सिणगारियां ले गई रै’
***
और एक दिन जिद कर
मैं भी चली आई

पिया संग शहर
बचाने पिया को
सिणगारियों के जाल से
मैं ठहरी गांव की
कैसे जानती शहरी रंग-ढंग
पर सौदा-सुलफ के लिए
पिया संग जाकर देखा
शहर क्‍या है
सिणगारियों का पूरा बाजार है
पिया ने धीरे-धीरे सिखाए
मुझे शहर के रंग-ढंग
मैं पीढ़े पर बैठ काजळ-टींकी करने वाली
करने लगी मेकअप
खुद ही बन बैठी सिणगारी
मेरे भीतर शायद कहीं
एक विश्‍वास था कि
ऐसा करने से मैं बचा लूंगी पिया जी को
बाजार की सिणगारियों से
***
गांव के मेलों में आने वाली
सिणगारियों के पास
कितना-सा तो होता था सामान
मेले के साथ ही हो जाता खत्‍म
पर इस नुगरे शहर में
कोई चीज कभी खत्‍म ही नहीं होती
रोज नई से नई आती
पुरानी शायद गांव के मेलों में चली जाती

बरस बीत गए
मेलों में सिणगरियों को देखे
पर शहर की दुकानों पर
साड़ी-सलवार-जींस-पेंट में आ बैठी हैं
नए जमाने की सिणगारियां
***
घर-गृहस्‍थी बाल-बच्‍चे नाते-रिश्‍तेदारी
और पिया की तबादलों वाली नौकरी
इस चक्रव्‍यूह में मैं
भूल ही गई सिणगारियों को
अब तो मैं खुद ही थी सिणगारी
पिया की जेब में अब
जरूरत ही नहीं रही कंघी की
रेशमी बालों की जगह
नजर आता है चांद
और बरबस ही मेरे कण्‍ठ से फूटता है गीत
’म्‍हारा छैल भंवर रो कांगसियो
सिणगारियां ले गई रै
सिणगारियां लेगई रै
बिणजारियां ले गई रै।‘
दळ बादळी रो पाणी

‘कुण जी खुदाया कुआ बावड़ी ये
कुण जी खुदाया ये समद तळाव’
नहीं रहे वो सेठ-साहूकार
खत्‍म हो गए राजा-रानी सब
जो रेत के धोरों में
प्‍यासे कण्‍ठों के लिए खुदवाते थे
कुए-तालाब-बावडि़यां अनगिनत
सोने-सा था मोल पानी का
चातक ने सीख लिया था
एक बूंद पर जीना
ऊंट जैसे जानवर तक ने
विकसित कर ली थी
पानी बचाने की कला
घर-घर में सहेजकर
यूं जमा किया जाता था पानी
जैसे जोड़नी हो
उम्र में सांसों की संख्‍या

मरुधरा का रास्‍ता भूल गए
बादलों की तरह
भटक गई हमारी चेतना
मूंज की जेवड़ी की तरह बटी हुई
हमारी आदिम प्रज्ञा
लगातार पानी में रहने से
गळती ही गई-छीजती रही
हम भूलते गए पानी को अवेरना
और सूखते गए तमाम जलस्रोत
अब भी बरसते हैं मेघ
लेकिन हम खुद ही से पूछते हैं
’दळ बादळी रो पाणी भाया कुण तो भरै?’

पोदीना


1.
रेगिस्‍तान की विकट गर्मी में
जलती हुई लू और तपती धूप में
एक तुम्‍हीं तो हो
जो प्‍याज और छाछ के साथ
हमारे तन-मन को सुकून देते हो
तुम्‍हारी ही शान में
सदियों से गाती आ रही हैं
हमारी पीढि़यां
‘झुक जा रै हरिया पोदीना
ओ लुळ जा रै हरिया पोदीना
तनै सिल पै बंटाऊं हरिया पोदीना’।

2.
ना जाने कितनी सदियों पुरानी है
तुम्‍हारी और केवड़े की जंग
लेकिन, सास हो कि नणद
जिठानी हो कि देवरानी
तुम्‍हें ही लाड लडाती रहीं
मर्दों ने कभी हमारी तरह
नहीं गाए तुम्‍हारे गुण
सदा ही लट्टू रहे केवड़े के
मर्दों का मान रखने
और तुम्‍हारी सुगंध फैलाने
हमने माथे पर धरा केवड़ा
और तुम्‍हें गोदी में टाबर की तरह
और गाती चलीं सनातन
’लुळ जा रै हरिया पोदीना’।

गीत पानी के


पनघट और परीण्‍डे के गीत
तालाब, कुए और जोहड़ के गीत
नल-हैण्‍डपम्‍प के रास्‍ते चलकर
फ्रिज-टंकी में बंद हो गए
ऐसे बोतलबंद हो गये...

-प्रेमचंद गांधी


Wednesday 23 July 2014 1 comments

आँगन व अन्य कविताएं - शैलजा पाठक

मित्रो! आज उदाहरण में हैं युवा कवयित्री शैलजा पाठक, बहुत कम समय में हिन्दी कविता में जिन युवाओं ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज़ करायी है शैलजा भी उन में से एक हैं। सहज भाषा- बोध में गहरे भावों के साथ अपने समय और अपने वर्ग- पक्ष को अभिव्यक्त करती उनकी कविताओं का स्वर कोमल जरूर है लेकिन उनकी कलम इस कोमलता के साथ की पीड़ाओं को यथार्थ को परिवेश- प्रकृति के साथ साझा करते हुए जिस तरह सामने रखती हैं, दर्शनीय है....इन कविताओं में स्त्री- मन की संवेदनाओं से ओतप्रोत निजी अनुभूतियों के साथ-साथ अपने समय की दुश्चरित्र विद्रूपताओं से भी सीधा संवाद- सवाल करती है....

शैलजा पाठक - रानीखेत में जन्म..बनारस में पढाई लिखाई ..मुंबई में रह रही हूँ आजकल..खूब सरे पत्र-पत्रिकाओं में ब्लॉग में रचनाएँ प्रकाशित.....


आँगन व अन्य कविताएं - शैलजा पाठक


1 हथेली 

मेरी हथेकियों में 
बादल है 
कुछ उजला सांवला सा 

इन्हें चेहरे पे ढँक लूँ 
तो बरसते है 

इनके जरा से 
विस्तार में भी 
विदेशी पंछियों की 
कतारें उड़तीं है 
देश के इस कोने से उस कोने तक 

बांयी हथेली के किनारे 
बच्चे वाली रेखा है 
अब रेखा नही दो टिमटिमाती आँखें है 
जिन्हें चूम लेती हूँ अक्सर 
एक घर भी है ..मेरे नाम से 

सब कुछ तो लिखा है इनमें 
कुछ रेखाओं का मकड़-जाल है 
मेरी उलझने हैं शायद 

मैं बड़े एहतियात से धोती हूँ इन्हें .
------------

2 यादों की तस्वीर 

वो गीतों की तस्वीर बनाती थी 
आवाजों की रंगोली  में काढ़ती 
स्वप्न जो बिसर गए थे 
आज के आईने में सहेजती 
कल की यादें 
उसकी उँगलियों में बेचैन अक्षरों की 
अंगूठी कस जाती कभी 
उतार देती खाली पन्नों पर 
बिस्तर पर नींद को तहजीब से 
सुलाती 
करवटों को बस में रखती 

गमले के पौधों को नेह से सींचती 
वो नम रहते 
वो उजली यादों के साथ मुस्कराती 
आज दिए के साथ जला रही है 
एक और इन्तजार 

ठीक पूजा ख़तम होने के बाद 
मेरी पहनी हुई साड़ी से जुड़ी होती हैं 
तुम्हारी आँखें 

बरसों पहले देखा था तुमने अपलक 
अच्छी  लगती हो साड़ी में 

वो नज़र आज भी जिन्दा है 
मैंने अभी अभी पलकें चूम लीं है तुम्हारी 

अब बस  भी करो ...आँखें बोलती है तुम्हारी 
तुम्हारे नही होने को सुनती हूँ मैं चुपचाप ......
------------

3 आखिरी सच 

धीरे धीरे उसके सहेजे शब्द 
कविता में तब्दील होने लगे 

उसके अकेले पड़ते समय में 
उसके अतीत की अनुभूतियाँ 
गीत बनने लगी 

अपने सामने देखा उसने 
उसकी कविताओं का बेचा जाना 
गीतों का गाया  जाना 

पतझड़ में गिरे पत्तो सी 
वो चरमराती समय के 
पैरों तले 

उसको पहचानने वाले 
सभी मौसम बीत गए रीत गए 
एक दिन वो झील में तब्दील हो गई 
तमाम चेहरों की तमाम फिक्रें 
उसमे डूबती और खो जाती 

आज दो पहचानी आँखें तैर रही है 
मैंने नीली साडी पहनी है 
और वो आँखें देख रही है मुझे 
एकटक 

मैं शुन्य में तब्दील हो गई 
और कवितायों को अलविदा कह दिया ...
----------

4 निर्णायक 

वो निर्णायक की भूमिका में थे 
अपनी सफ़ेद पगड़ियों को 
अपने सर पर धरे 
अपना काला निर्णय 
हवा में उछाला 

इज्जतदार भीड़ ने 
लड़की और लड़के को 
ज़मीन पर घसीटा 
और गाँव की 
सीमा में पटक दिया 

सारी  रात गाँव के दीये 
मद्धिम जले 
गाय रंभाती रही 
कुछ न खाया 

सबने अपनी सफ़ेद पगड़ी खोल दी 
एक उदास कफन में सोती 
रही धरती 

रेंगता रहा प्रेम गाँव की सीमा पर ...

5 पिता

मोतियाबिंद से धुंधला गई 
पिता की आँखें 
रामायण के दोहे जितने याद हैं 
उतने ही गाते हैं 

बाकी समय राम 
का धुंधलाया बचपन 
याद कर 

धरते हैं बालकाण्ड पर 
अपनी खुरदुरी हथेलियाँ 
कोमलता से
-----------

6 नन्हीं हथेली 

कुछ मिनट को रुकती है 
हमारी गाड़ियां
ट्रेफिक सिग्नल पर 

उस कुछ सेकेण्ड या मिनट में 
रेगती है तमाम जिंदगी 
हमारे इर्द गिर्द 

कुछ कमजोर हाथों और सूखे होठों 
वाले मासूम बेचते है खिलौने 
किताबे संतरा 

ये बेचते हैं अपना बचपन 
हम खरीदते भी हैं कभी कभी 

हमारी गाड़ियाँ खुलते ही 
ये अपनी जिंदगी को वहीँ किनारे 
रोक लेते हैं 

कल मेरी गाड़ी के शीशे पर 
एक सांवला बच्चा अपनी हथेलियों 
के निशान छोड़ गया 

उन हथेलियों में सन्नाटा था 
फुटपाथ पे उडता एक फटा चादर 
जिसे वो अपने लिए बचाता  
उसकी आँखें  सूखी  नदी
जहाँ भूखी रेत का अंधड़ है 

हमारी गाड़ियों के निचे 
कुचली इनकी हथेलियां अब काली पड़ गई हैं 
----------

7 आँगन 

घर का आँगन पाट  के 
सुदर्शन भैया 
अपने कमरे को बड़ा करवा रहे है 

दीदी की शादी हल्दी संगीत 
से यही आँगन गुलजार था 
अपटन हाथ में छुपाये 
जीजा को लगाने पर कितनी धमाचौकड़ी 
की थी हमने 

आँगन के अतीत में सुतरी नेवार वाली 
खटिया है 
अम्मा हैं कहानियां है गदीया के निचे छुपा के रखा 
उपन्यास गुनाहों का देवता है 
आम के गुठली के लिए 
लड़ने वाले भाई बहन हैं 
टुटा हुआ दिल है 
भीगती हुई तकिया है 
थके हुए पिता की चौकी है 
इस आँगन पर झूमर सा 
लटकता आसमान है 

खिचड़ी की रस्म निभाई में 
पूज्य लोगों के सामने इसी आँगन में 
पिताजी यथाशक्ति खर्च कर भी 
निरीह से हाथ जोड़े खाना शुरू करने की 
विनती किये थे 

लड़कियां पराई हैं न 
उनके पास बस यादें है 
हम यादे बचाए तुम आँगन 
हो सकता है क्या ?
-----------
-शैलजा पाठक
Tuesday 22 July 2014 0 comments

हाशिया व अन्य कविताएं- मनीष कुमार

मित्रो! उदाहरण के काव्य-प्रांगण आज प्रस्तुत है पहली बार सामने आ रही एक नवांकुर कलम, मनीष कुमार की इन कविताओं में अपने समय की कहन देखते ही बनती है 
मनीष कुमार
जन्म 1 मार्च, 1985 
बीकानेर जिले की तहसील लूनकरनसर के कालू गांव में हुआ।
शिक्षा : बी.कॉम।

हाशिया व अन्य कविताएं- मनीष कुमार 

मैं
एक दिन
मुझसे मिलने गया मैं
पता चला मैं बाहर हूं
व्यस्त हूं किसी काम में
कुछ देर इंतजार किया मैं ने
कुछ देर बाद मैं लौट आया
फिर मालूम हुआ
तब तक लौट चुका था मैं
000

खुद की समझ
कभी कभी लगता है
खुद को समझ नहीं पाया मैं
कभी कभी लगता है
मेरी समझ
मुझे समझ नहीं पायी
और कभी-कभी लगता है ये
मेरी समझ के बाहर है
खुद को समझाना
000

राह में हम
राह में तुम हो
राह में मैं हूं
देखना
एक दिन
राह में मिलेंगे
हम दोनों
और
एक दूसरे को देखकर
होंगे चकित
000

मुसाफ़िर
चलते रहो
चलती हुई चींटी ने कहा
कह कर घुस गयी बिल में
उड़ना ही धर्म है
चिड़िया चिल्लायी
अपने घोसलें से
मंजिल करीब है
सोए हुए खरगोश ने कहा
मुसाफिर ने सब को सुना
सच्चे दिल से दुआ दी
और
चल दिया घर की तरफ
000

गुस्सा व रिझाना
रिझाना आसान है
और गुस्सा दिलाना मुश्किल
मैंने कहा-
तत्काल हंसी छूटी उधर
नहीं-नहीं गलत कह रहे हो।
गुस्सा दिलाना आसान है
और रिझाना मुश्किल।
मैंने नजरे दौड़ायी
उस ओर
मैं गलत नहीं
बिल्कुल सही था
मेरी जीत उनके होंठों पर बसी थी
000

खुशी
खुशी
सच में
क्या सच में महसूस की है
तुमने सच्ची खुशी
कहां मिल सकती है खुशी
कहां पाया जा सकता है उसे
गम भरे दिनों के बावजूद
कहते हुए
उसकी आंखों में 
अजब-सी खुशी की चमक दिखी
मैंने वादा किया है उस से
दिलाउंगा उसे सच्ची खुशी
वही खुशी
जो आज उसकी आंखों में देखी थी मैंने
कल उसे दे दूंगा उधार
बिना ब्याज के
000

जीवन में
जीवन में
(कुछ भी खोजें)
कही भी
कभी भी
किसी की तरह
कुछ नहीं मिलेगा
फिर भी
मैं यहां
तुम यहां
एक दूसरे का मुंह ताकते हुए
क्यों?
000

कहना और सुनना
कहने को बहुत कुछ है
मेरे पास
अगर तुम सुनना चाहो
सुनने को बहुत कुछ है
मेरे पास
अगर तुम्हरी आंखें बोले
इस
कहने और सुनने के सिवाय
बहुत कुछ है बचा हुआ
जो है कहने को
जो है सुनने को
कभी आना फुरसत में
बचा हुआ कुछ कहना तुम
बचा हुआ सुनना चाहता हूं मैं
000

तुम्हारे भीतर
तुम्हारे भीतर
एक फूल है
मुस्कुराने दो
तुम्हारे भीतर
एक गंध है
हवा में घुल जाने दो
तुम्हारे भीतर
एक बच्चा है शैतान
मुस्कुराने दो
रखना यह फूल
यह गंध
यह बच्चा
संभाल के
एक दिन आऊंगा मैं
खेलूंगा इनके साथ
000

हाशिया
लिखता जाता हूं
और छोड़ता जाता हूं
हाशिये कि जगह
क्यूं छोड़ा जाता है हाशिया
क्या हाशिये पर है लेखनी
क्या हाशिये पर है लिखने वाले
क्या हाशिये पर है पाठक
नहीं
बिल्कुल नहीं ...
बिल्कुल भी नहीं
शायद कुछ बचा रहा है लिखना
जिसे हम लिखेंगे
हाशिये पर
कभी और
000
मोबाइल : 9602452847 
ई-मेल : mk629549@gmail.com

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