Saturday 29 October 2011 4 comments

निशांत की कविताएं


मित्रों! उदाहरण में आज आपके सामने हैं निशांत। एक ऎसे कवि जो तड़क-भड़क प्रदर्शन और छपास-चर्चा रोग से दूर राजस्थान के एक छोटे से गांव में बरसों से अनवरत अपने रचनाकर्म में लगे हैं। निशांत का कवि बिना किसी भारी-भरकम तामझाम वाले शब्दजाल के सीधे अपने समय को व्यक्त करता है और जो आलोचक  सरल अभिव्यक्ति को कविता के रूप में खारिज़ करते हैं उनके मानद्ण्डों लिए सवाल खड़े करता है। 


निशान्त(रामजी लाल) जन्म: 1949पीलीबंगा (हनुमानगढ़) राजस्थान,कुछ प्रमुख- कृतियाँ धंवर पछै सूरज (राजस्थानी)झुलसा हुआ मैंसमय बहुत कम हैखुश हुए हम भी (हिंदी कविता संग्रह)
संपर्क-निशान्त,वार्ड नं. 6,निकट वन विभाग,पीलीबंगा-335803
जिला- हनुमानगढ़ (राजस्थान) फोन- 01508-235616


निशांत की कविताएं


संगीत सुनें

संगीत सुनें
आओ ! संगीत सुनें
चलती चक्की का
संगीत सुनें
झाडू का संगीत सुनें
बिलौने का संगीत सुनें
संगीत सुनें
धुलते कपड़ों की
थप ! थप ! का
कुत्तर करते
टोके की
कट  ! कट ! का
खाती की
ठक! ठक! का
ऐंरण और हथौड़े का
सिल पर घिसती
रांपी का
जमीन काटते
फावड़े का
कपड़ा बुनती
खड्डी का
संगीत सुनें
आओ! संगीत सुनें!
*****

टूट-फ़ू

काम चाहे
कितना ही पक्का
पुख्ता हो
बिगाड़ आ ही
जाता है उसमें
निभाता नहीं वह
उम्र भर साथ
मसलन
घिस जाते हैं
मैन गेट के
‘गेटवाल’
गल जाती है
बिजली की तारें
उखड़ जाता है
पलस्तर
यहां तक कि
अच्छे खासे
रिश्तों में भी
आ जाती है
दरार
कुछ भी नहीं होता
ऐसा
जो हमें कर दे
पूर्ण निश्चिंत
*****

सुबह

दिन की शुरुआत
होती है
सुन्दर- सुहानी
जैसे पिता कोई
लुभाए अपने बच्चे को
स्कूल भेजने को
फिर तो उसे होता है
दिन भर तपना
*****

रंगीन पत्थर

स्पंदन होता था कभी
इनमें भी
पथराए थे जब कभी
देख रहे होंगे
कुदरत का ऐसा ही
रंग कोई!
*****

ऐसा भी
कभी कभी
जब हम
हँस रहे होते हैं
दुःख छुपकर
हम पर
हँस रहा होता है।
*****



Sunday 23 October 2011 9 comments

डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’ की गज़लें


मित्रों! इस बार उदाहरण में प्रस्तुत है डा. दिनेश त्रिपाठी ’शम्स’ की हिन्दी गज़लें । आम आदमी की भाषा में आम आदमी से आम आदमी की बात करती शम्स की ये रचनाएं ध्यान अवश्य खींचती है.. 

परिचय
डा. दिनेश त्रिपाठी `शम्स’ उपनाम - `शम्स’,जन्मतिथि -०३ जुलाई १९७५,जन्मस्थान – मंसूरगंज , बहराइच , उत्तर प्रदेश, शिक्षा – एम . ए.(हिन्दी), बी. एड., पीएचडी.(हिन्दी), सम्प्रति – वरिष्ठ प्रवक्ता (हिन्दी) जवाहर नवोदय विद्यालय , बलरामपुर , उत्तर प्रदेश, पुस्तकें –  जनकवि बंशीधर शुक्ल का खडी बोली काव्य (शोध प्रबंध ),मीनाक्षी प्रकाशन,नयी दिल्ली,  आखों में आब रहने दे (गजल संग्रह ) मीनाक्षी प्रकाशन , नयी दिल्ली, सम्मान – साहित्यिक संस्था काव्य धारा , रामपुर , उत्तर प्रदेश द्वारा सारस्वत सम्मान, अखिल भारतीय हिन्दी विधि प्रतिष्ठान द्वारा द्वारा सारस्वत सम्मान, राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ द्वारा काव्य श्री आराधक मनीषी सम्मान, अखिल भारतीय अगीत परिषद , लखनऊ द्वारा दान बहादुर सिंह सम्मान,  बाल प्रहरी , द्वाराहाट , अल्मोड़ा , उत्तराखन्ड द्वारा राष्ट्रीय बाल साहित्य सम्मान, गुंजन साहित्यिक मंच रामपुर , उत्तरप्रदेश द्वारा प्रशस्ति –पत्र, शिक्षा साहित्य कला विकास समिति,बहराइच,उत्तर प्रदेश द्वारा गजल श्री सम्मान,  नवोदय विद्यालय समिति , नयी दिल्ली द्वारा गुरु श्रेष्ठ सम्मान, जनकवि बंशीधर शुक्ल स्मारक समिति , लखीमपुर , उत्तरप्रदेश द्वारा जनकवि बंशीधर शुक्ल सम्मान, प्रोग्राम सपोर्ट यूनिट फाउंडेशन द्वारा ग्रामीण विकास के क्षेत्र में सृजनात्मक योगदान हेतु प्रशस्ति –पत्र,  अंजुमन फरोगे अदब , बहराइच उत्तर प्रदेश द्वारा स्व. श्याम प्रकाश अग्रवाल सम्मान
पता - जवाहर नवोदय विद्यालय
ग्राम – घुघुलपुर , पोस्ट – देवरिया -२७१२०१
जिला – बलरामपुर , उत्तर प्रदेश
संपर्क – मोबाइल – ०९५५९३०४१३१
इमेल – yogishams@yahoo.com
ब्लॉग – dinesh-tripathi.blogspot.com



डा. दिनेश त्रिपाठी ‘शम्स’  की गज़लें
1
ख़ुशबुओं का हिसाब रखता है ,
वो जो नकली गुलाब रखता है .

उसका अहसास मर गया शायद ,
इसलिए वो किताब रखता है .

पूछता है जवाब औरों सॆ ,
पहले जो खुद जवाब रखता है .

साथ देता है सच का सिर्फ़ वही ,
दिल में जो इन्क़लाब रखता है .

‘शम्स’ रखता है आग सीने में ,
और आंखों में आब रखता है .
 *****

2
वक़्त के सांचे में अब तुम भी ढलो ऐ शम्स जी ,
छल रहे हैं जो तुम्हें उनको छलो ऐ शम्स जी .

सब अंधेरा बांटते हैं इस नगर में आजकल ,
चाहते हो रोशनी तो खुद जलो ऐ शम्स जी .

क्या नहीं होता इरादों में अगर हो जान तो ,
हौसलों की बांह थामें बढ़ चलो ऐ शम्स जी .

ये नदी है प्यार की लम्बी बहुत गहरी बहुत ,
डूब जाओगे न इसकी थाह लो ऐ शम्स जी .

आपके अशआर सुनकर कौन है जो दाद दे ,
गूंगे-बहरों की सभा से फूट लो ऐ शम्स जी .
***** 
  
3
वक़्त जब इम्तहान लेता है ,
हर हक़ीकत को जान लेता है .

तोल लेता है पहले पर अपने ,
तब परिन्दा उड़ान लेता है.

भूख भड़की तो जान ले लेगी ,
लोभ लेकिन ईमान लेता है .

फ़ैसला कर चुका है पहले ही ,
फिर भी मुन्सिफ़ बयान लेता है .

मैं उसे दोस्त कैसे कह दूं वो-
मेरी हर बात मान लेता है .

वो तमन्चे उठा नहीं सकता ,
हाथ में जो क़ुरान लेता है .
 *****

कभी इनका हुआ हूं मैं कभी उनका हुआ हूं मैं ,
खुद अपना हो नहीं पाया मगर सबका हुआ हूं मैं .

तुम्हारी आंधियां मुझको करेंगी दर-ब-दर लेकिन ,
वो तोड़ेंगी मुझे कैसे महज तिनका हुआ हूं मैं .

तुम्हारे तन-बदन की सन्दली खुशबू से मुझको क्या ,
अभी मिट्टी की सोंधी गन्ध से महका हुआ हूं मैं .

मैं मंज़िल तक पहुंच जाऊंगा ये उम्मीद है मुझको ,
न तो ठहरा हुआ हूं मैं न ही भटका हुआ हूं मैं .

मेरी हस्ती बहुत छोटी मेरा रुतबा नहीं कुछ भी ,
डूबते के लिए लेकिन सदा तिनका हुआ हूं मैं .
*****

पूछ मत मुझसे कि क्या कैसा हुआ
जो हुआ जैसा हुआ अच्छा हुआ

मै भरोसा ले गया बाजार में
मुझको हर व्यापार में घाटा हुआ

जाने कब लौटेगा अपनी राह पर
आदमी है देवता भट्का हुआ

भूल जाता हू मैं अपने गम सभी
देखता हू जब तुझॆ हंसता हुआ

मानता हू जीत मैं पाया नहीं
मत समझ लेकिन मुझे हारा हुआ

जो अलमबर्दार आजादी का है
खुद वही बन्धन में है जकडा हुआ

प्यार का सूरज न जाने कब उगे
नफ़रतों का हर तरफ़ कुहरा हुआ


Friday 7 October 2011 3 comments

ओम पुरोहित ’कागद’ की कविताएं

मित्रों ! उदाहरण में प्रस्तुत है आज हिन्दी व राजस्थानी में समान अधिकार से लिखनेवाले कवि ओम पुरोहित ’कागद’।  नामचीन स्वनाम धन्य आलोचकों के  लिए हो सकता है यह नाम महत्त्वपूर्ण न हो लेकिन कविता  को जानने-समझने वाले पाठकों  के लिए ओम पुरोहित ’कागद’ नाम उतना परिचित और निकट है जितनी कवि और कविता को समझने की समझ। अपने समय से सीधे मुठभेड़ करती उनकी ये कविताएं इसकी बानगी भर है।  
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जन्म: 05 जुलाई 1957
उपनाम   कागद
जन्म स्थान- केसरीसिंहपुर, श्रीगंगानगर, राजस्थान, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
अंतस री बळत(1988),कुचरणी(1992),सबद गळगळा(1994),बात तो ही (2002)'कुचरण्यां (2002) पंचलडी (२०१०) आंख भर चितराम(२०१०)सभी राजस्थानी कविता-संग्रह । मीठे बोलो की शब्द परी(१९८६),धूप क्यों छेड़ती है (१९८६),आदमी नहीं है(१९९५),थिरकती है तृष्णा (१९९५) सभी हिन्दी कविता-संग्रह । जंगल मत काटो(नाटक-२००५),राधा की नानी (किशोर कहानी-२००६),रंगों की दुनिया(विज्ञान कथा-२००६),सीता नहीं मानी( किशोर कहानी-२००६),जंगीरों की जंग (किशोर कहानी-२००६)तथा मरुधरा(सम्पादित विविधा-१९८५) विविध राजस्थानी,हिन्दी और पंजाबी भाषाओं में समान रूप से लेखन। राजस्थान साहित्य अकादमी का पुरस्कार, राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर का पुरस्कार। E-mail- omkagag@gmail.com   hello- 01552-268863 & 09414380571
ब्लाग -
www.omkagad.blogspot.com &
 www.kavikagad.blogspot.com
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फिर कविता लिखेँ 
आओ
आज फिर कविता लिखें
कविता मेँ लिखेँ
प्रीत की रीत
जो निभ नहीँ पाई
याकि निभाई नहीँ गई !

कविता मेँ आगे
रोटी लिखें
जो बनाई तो गई
मगर खिलाई नहीँ गई !

रोटी के बाद
कफन भर
कपड़ा लिखें
जो ढांप सके
अबला की अस्मत
गरीब की गरीबी !

आओ फिर तो
मकान भी लिख देँ
जिसमेँ सोए कोई
चैन की सांस ले कर
बेघर भी तो
ना मरे कोई !

चलो !
अब लिख ही देँ
सड़कोँ पर अमन
सीमाओँ पर सुलह
सियासत मेँ हया
और
जन जन मेँ ज़मीर !
***


प्यार 
कुछ लोग
रोटी की तलाश मेँ थे
कुछ लोग
प्यार की तलाश मेँ
कहीँ प्यार के आड़े रोटी आ गई
तो कहीँ रोटी के आड़े प्यार ।
किसी को रोटी मिल गई
किसी को प्यार
जहां जहां भी
रोटी का व्यपार पला
वहां वहां प्यार
दम तोड़ता गया !
***

शेष रहे शब्द 
बहुत व्यापक है
हमारे बीच संवाद
निश्छल अकूंत
फिर भी
ऐसा तो नहीँ है
काम आ गए होँ
शब्दकोश के
सारे के सारे शब्द !

अभी तो शेष है
बहुत से सम्बोधन
हमारे तुम्हारे बीच
जिन्हेँ लाएंगे ढो कर
शेष रहे शब्द ही !


भाषा गणित नहीँ होती
इस लिए जरा रुको
शेष रहे शब्दोँ का
तलपट मत मिलाओ
शब्दकोश के पन्ने पलट कर।

आने वाले शब्द
अंतस से झरेंगे
या फिर हो सकते हैँ
शब्दकोशोँ से
बहुत दूर के
थोड़ा धैर्य भी रखो
अपने पास !
***

अज्ञात भय 
हवाएं मेरे शहर मेँ
उदास सी बहती हैँ
आजकल हर तरफ
शायद वे जान गई हैं
इधर गरजने वाले
दूधिया से दिखते
बादलों के दामन मेँ
पानी नहीँ है उधर !

अज्ञात भय से
डरी सहमी हवाएं
पेड़ोँ के सान्निध्य से भी
बहुत कतराने लगी हैँ
चुपचाचप निकल जाती हैँ
शहर से दूर
धोरोँ पर
सिर धुन्न कर
तभी तो आजकल
नहीँ हिलता कोई पत्ता
पेड़ की किसी शाख पर !

रेत नहीँ छोड़ती
दामन हवा का
हाथ थाम कर
निकल पड़ती है
आकाश मेँ ढूंढ़ने
प्यास भर पानी !
***

Wednesday 5 October 2011 2 comments

राजेश चढ्ढा की कविताएं

राजेश चड्ढ़ा
पिता- स्व. श्री ओमप्रकाश चड्ढा। माता- श्रीमती सरला देवी।
जन्म- 18 जनवरी, 1963 को हनुमानगढ़ में।
शिक्षा- एम.कॉम. एमजेएमसी।
लोकप्रिय उद्घोषक व शायर। सन 1990 से नियमितरक्तदान । अध्यक्ष , सिटिज़न एकलव्य आश्रम । पंजाबी, हिन्दी व राजस्थानी तीनों भाषाओं में कार्यक्रमों की प्रस्तुति में विशेष महारत। पंजाबी कार्यक्रम 'मिट्टी दी खुश्बू' पड़ोसी देशों में भी बेहद लोकप्रिय। इस कार्यक्रम पर कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से लघुशोध भी हुआ। प्रथम नियुक्ति सितंबर 1986 में उदयपुर आकाशवाणी में हुई। जनवरी 1991 से सूरतगढ़ आकाशवाणी में सेवारत। इस दौरान देश की नामचीन हस्तियों, पूर्व राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरमन, मशहूर शायर निदा फाजली, जन कवि गोपाल दास 'नीरज' , अर्जुन पुरस्कार विजेता तथा विश्व कप बैडमिंटन चैंपियन प्रकाश पादुकोण तथा सुप्रसिद्ध कॉमेंटेटर मुरली मनोहर मंजुल से रेडियो के लिए साक्षात्कार। 1980 से निरंतर सृजनरत । उन्हीं दिनों से हनुमानगढ़ की साहित्यिक गतिविधियों के संयोजन में प्रमुख भूमिका । अखिल भारतीय साहित्य-विविधा 'मरुधरा' के चार सम्पादकों में से एक। इस विविधा का लोकार्पण मशहूर साहित्यकार अमृता प्रीतम ने किया। उल्लेखनीय है कि आपकी कहानियां हिन्दी की नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं तथा कहानी लेखन के क्षेत्र में भी आप पुरस्कृत हो चुके हैं। वर्तमान में आकाशवाणी सूरतगढ़ (राजस्थान) में वरिष्ठ उद्घोषक।  सम्पर्क : दूरभाष- 094143 81939
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चुप्पियां
तुम्हारी चुप्पियों को
जब-
एक-एक करके
खोलता हूं ,
मैं-
अपने आप से भी-
बस-
उसी वक़्त
बोलता हूं ।
***


फादर्स डे -
आज
अचानक
पिता की तस्वीर को देखते हुए
मैंने मां के सामने स्वीकार किया-
कितने दिन बाद
इस तस्वीर को देर तक देखा है-
ऐसा नहीं है कि पिता स्मृति में नहीं रहे !
कभी उन्हें
अपने से अलग रख कर
मैंने सोचा ही कहां !
***


प्रतीक्षा
दूर पर्वत पार से-
जैसे
पहाड़ी राग-
बुलाएगा कभी,
इसी प्रतीक्षा में,
ओढ़ कर
सन्नाटे को-
बिछा हुआ हूं,
रेत पर-
कब से !
***


ख़याल
यूं ही तो नहीं होता,
कुछ भी.
कोई ख़याल,
किसी वजह की,
कोख़ में ही,
लेता है जन्म.
होता है बड़ा,
काग़ज़ के,
आंगन में
***


महाकथा
पुरुष-
रचता है कथाएं ।
स्त्री-
रचती है महाकथा ।
प्रत्येक महाकथा-
घटित होती है !
स्त्री की धुरी पर ।
***


क्षमादान
है कोई अज्ञात !
जो उतर आता है -
ज्ञात को स्थापित करने ।
सलीब के बदले
क्षमा दान ले कर ।
***


कुछ है
है कुछ ऐसा
जिसे-
मैं भी जानता हूं,
तुम भी जानाते हो।
कुछ ऐसा भी है
जिसे-
मैं भी नहीं जानता,
तुम भी नहीं जानते।
बहुत कुछ-
सिर्फ़ मैं जानता हूं,
तुम नहीं जानते।
है कुछ ऐसा भी
जिसे-
सिर्फ़ तुम जानते हो,
मैं नहीं जानता !
बेचैनी-
उसी से है।
***

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