मित्रो! आज उदाहरण में हैं 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित व 'राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय' से 'गोल्ड मेडल' स्नातक प्रसिद्ध अभिनेत्री,रंग कर्मी और नाट्य निर्देशक नादिरा बब्बर अब तक 70-80 नाटकों का मंचन कर चुकी हैं। 'यहूदी की लड़की' नामक नाटक से शुरु उनके रंग सफर में संध्या छाया, लुक बैक इन एंगर, बल्लबपुर की रूपकथा, बात लात की हालात की,भ्रम के भूत, बेगम जान आदि प्रसिध्द प्रस्तुतियां हैं इसके अतिरिक्त उन्होंने 'दयाशंकर की डायरी', 'शक्कुबाई', 'सुमन और साना', 'जी जैसी आपकी मर्जी' सहित ना जाने कितने ही नाटक स्वयं लिखे। उनकी स्वयं की एक नाट्यशाला है, जिसका नाम है 'एकजुट'। नादिरा जी कविताएं भी लिखती हैं, स्त्री के अछूते मन की ये कविताएं सीधे सीधे मन को छूती हैं।
मेरी माँ के हाथ
मेरी माँ के हाथ, मेरी माँ के हाथ
चौड़े, मज़बूत, भरे भरे हाथ
कुछ खुदरे, मर्दाने, मज़दूरों जैसे हाथ I
मेरी माँ के हाथ....
जवान, हसीन, कमसिन, मेहंदी से रचे
सुहाग का जोड़ा सँभालते, चूड़ियों से भरे
अरमानों से मचलते, मुहब्बत की ख़ुशियों को समेटते हाथ I
मेरी माँ के हाथ I
अब्बा का शाना-ब-शाना सियासत में साथ देते
लाल झंडा उठाते, जुलूसों में नारे लगाते
अफसाने, कहानियाँ, नज़में लिखते
अदब के बेशकीमती ख़ज़ाने लुटाते
कॉलेज में पढ़ाते, रात-रात भर जागकर कापियाँ जाँचते हाथ I
मेरी माँ के हाथ...
फिर अब्बा की उम्रक़ैद की ख़बर सुनते
हम तीनो बेटियों को तन्हा पालते,
हमारी तालीम और सेहत के लिए रात-दिन मेहनत करते
तेज़ बुखार में हमारे माथे पर पट्टियाँ रखते
रातों को उठ उठ के हमे दवा पिलाते हाथ I
मेरी माँ के हाथ....
तेज़ धूप में बाहर निकलते वक़्त हमे पना पिलाते
सर्दियों में हमारे बदन के आस-पास रज़ाई दबाते
पुरानी उतरनों की मरम्मत कर उन्हें नया बनाते
कभी फ़ुर्सत में हमें ग़ालिब और फैज़ समझाते
फन और अदब से हमारा तआरुफ़ कराते
मामूली दाल और चावल को बेहतरीन पकाते हुए हाथ I
मेरी माँ के हाथ...
बदतमीज़ियों पर जो तेज़ चांटा बन जाते
वही आँसू पोछते, सीने से लगाते
कभी लाड करते, कभी दूर से फटकारते
ज़िन्दगी का हमे धीरे-धीरे मतलब समझाते
हम लोगों की परवरिश के लिए अपने ज़ेवर बेचते हाथ I
मेरी माँ के हाथ...
मेरी कामयाबियों पर भरपूर तालियाँ बजाते
मेरी ग़लतियों पर बेहद शर्मिंदा हो जाते
फिर अब्बा की मौत का ग़म सहते
उन्हें रुख्सतकर तन्हा रह जाते
टूटते हुए, मुरझाते हुए, सिसकते हुए,
अकेलेपन का बोझ न सह पानेवाले हाथ I
मेरी माँ के हाथ...
फिर एक दिन ख़बर आई कि वो हाथ मर गए
वो हाथ जो जीतेजी एक पल न रुके,
अचानक आज कैसे थम गए
यूँ चुपचाप साकित कैसे हो गए
हक़ की लड़ाई की सिपाही के बेवा के हाथ I
मेरी माँ के हाथ...
मैं हैरान उन हाथों को देखे जाती थी
वो हाथ जिन्हें कभी आराम न मिला
महँगा कपड़ा, बेहतरीन खाना, अपना घर तक न मिला
फिर भी जो हमेशा ज़ोर-ज़ोर से हँसते थे
उम्मीद और इन्साफ़ का सबको सबक सिखाते थे
डूबते दिल से मैंने उन हाथों को सलाम किया
उन्हें चूमा, उनकी मुहब्बत का आख़री जाम पिया
ठन्डे से, मजबूर क़फ़न में लिपटे हाथ
चुपचाप, उदास हमे अलविदा कहते हाथ I
मेरी माँ के हाथ...
*******
कोई फ़ायदा नहीं
अब मान भी ले ऐ दिल
कि इस जंग का कोई फ़ायदा नहीं I
ये यक़ीन की नेकियाँ जीतती है,
और सच की फ़तह होती है,
ये किताबी बातें हैं,
ये तारीख़ी बातें हैं,
इन बातों में अब वाक़ई कुछ रखा नहीं,
अब मान भी ले ऐ दिल,
कि इस जंग का कोई फ़ायदा नहीं I
पता नहीं कौन से दौर में लिखी गयी थी इन्जील
और कौन से युग में रची गयी थी रामायण,
वो लोग, वो रौशनियाँ, वो इरादे, वो मसीहे,
सब आज की तारिकियों में कहीं खो से गये,
मुझे तो वैसा कोई मिला ही नहीं,
अब मान भी ले ऐ दिल
कि इस जंग का कोई फ़ायदा नहीं I
अब तो उसकी है पूजा जिसकी है ताकत,
गुरुर का सर ऊँचा, राज करे दौलत,
फटे पुराने सारे मुहावरे,बातें अच्छी-अच्छी,
सड़ी गली नसीहतें बुज़ुर्गों की,
उतार के फेंक दी हैं सबने,
पुराने कपड़ों की तरह,
अब उन सीधी सच्ची राहों पर,
कोई चलने वाला नहीं,
अब मान भी ले ऐ दिल,
कि इस जंग का कोई फ़ायदा नहीं |
दिल तो नहीं मानता मगर मजबूर है.
क्या अपने बच्चों को भी अब हम यही समझायें,
किसी पर यक़ीन न करें, सदा मक्कारी से पेश आयें,
अपने हर दोस्त को शक की नज़र से देखें,
फन उठाकर फुंफकारना हम उन्हें सिखाएं,
ताकि वो हमारी तरह कहीं,
नेकियों की जंग न लड़ते रह जायें,
कहीं वो भी हमारी तरह, ढलती उम्र में तन्हा टूट न जायें,
उन्हें तो कम-स-कम हम यही समझायें,
अब इस दुनिया में सच,
और मुहब्बत का कोई क़ायदा नहीं.
अब मान भी ले ऐ दिल,
कि इस जंग का कोई फ़ायदा नहीं |
*******
और तुम होते मैं ...
गर मैं तुम होती,
और तुम होते मैं,
तो तारीखें मुहब्बत की सब बदल जातीं...
तब तुम तड़पते और मैं सो जाती,
तब तुम रात भर रोते और मैं मुस्कुराती,
तब तुम ख़त लिखते और मैं भूल से कहीं गिरा देती |
तब तुम तन्हा खिड़की पर उदास से खड़े रहते,
मैं गर्म महफिलों में दोस्तों में भरमाती,
ग़लती मेरी होने पर भी, तुम माफ़ी मांगते,
मैं इस माफ़ी पर कुछ और अकड़ जाती,
गर मैं तुम होती,
और तुम होते मैं,
तो तारीखें मुहब्बत की सब बदल जातीं...
तुम ग़म के , अपनी शर्म के हर राज़ मुझे बताते
और मैं बेदर्द बेपरवाही से उन्हें हवा में उड़ाती,
जब तुम तन्हाई से मजबूर, मेरे पाँव पर गिर जाते,
तो मैं गर्दन अकड़ा कर, तुम्हें अच्छा बुरा सिखाती,
तुम्हारी ज़रा सी बात का बहाना बना के,
तुम से हर रोज़ थोडा थोडा दूर चली जाती,
कभी अपने ख़ुद्दारी की शर्म रखने को,
तुम अगर मुझसे न बतियाते,
तो मैं अच्छा छुटकारा समझ,
तुम्हारे लिये एकदम ही चुप हो जाती
गर मैं तुम होती,
और तुम होते मैं,
तो तारीखें मुहब्बत की सब बदल जातीं |
जब तुम ज़िन्दगी की मजबूरी समझ,
मेरी हर बात मानते कई समझौते करते,
तब मैं इन समझौतों को अपना हक़ समझ,
ज़िन्दगी में कुछ और रंग-रलियाँ मनाती,
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर तुम्हें मेरी कमी लगती,
मुझे तुम्हारी तस्वीर अपने दायरे में छोटी लगने लगती,
तुम कुछ कहते और मैं न सुन पाती,
तुम हर बार आते और मैं न बुलाती,
तुम हाथ आगे करते, मैं पीछे हटाती,
तुम हँसना चाहते मैं तुम्हें बार-बार रुलाती |
गर मैं तुम होती,
और तुम होते मैं,
तो तारीखें मुहब्बत की सब बदल जातीं...
पर कैसे होता ये , ये तो नामुमकिन था,
ये क़िस्मत का लिखा भी क्या कभी मिटा था,
तुम तो तुम्ही हो, और मैं मैं ही,
तारीखें मुहब्बत की भी बिलकुल वैसी ही,
सदियों से चली आ रही रिवायतें हैं ये,
कौन बदलेगा,
घुटे हुए दिलों की शिकायतें हैं ये,
कौन सुनेगा |
*******
नादिरा बब्बर
Wednesday 18 March 2015
राकेश रोहित
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हरियाली की तरह बिखरा रहूँ सृष्टि के समवाय में - राकेश रोहित
मित्रो! उदाहरण में आज हमारे बीच हैं राकेश रोहित। फेस बुक पर सक्रिय कवियों में राकेश रोहित हमारे समय के ऎसे कवि हैं जो अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति में अपने समय को अपने तरीके से मांजने का प्रयास कर रहे हैं। राकेश की कविताएं स्वयं अपना शिल्प गढ़ती है और बिना किसी शब्दाडंबर के हम से सीधी मुखातिब होती है। ये कविताएं कहीं से भी इकरंगी नहीं है। जिस तरह ये कविताएं अपने समय- परिवेश की विषमताएं और विडम्बनाएं हमारे सामने रखती हैं, भरोसा दिलाती है कि राकेश की कविता दूर तक जाने की कुव्वत रखती है।
राकेश रोहित
19 जून 1971 जमालपुर में जन्मे व कटिहार (बिहार) से शिक्षित- दीक्षित राकेश भौतिकी में स्नातकोत्तर हैं। कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि रखते हैं। पहली कहानी "शहर में कैबरे" 'हंस' पत्रिका में प्रकाशन व "हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं" आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित होने के अलावा हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, आजकल, नवनीत, गूँज, जतन, समकालीन परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर, सारिका, संदर्श, संवदिया, मुहिम, कला आदि महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचनात्मक आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक रपटें प्रकाशित।
संप्रति : सरकारी सेवा.
ईमेल - Rkshrohit@gmail.com
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https://meredoshabd.blogspot.in
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हरियाली की तरह बिखरा रहूँ सृष्टि के समवाय में- राकेश रोहित
कविता में उसकी आवाज
वह ऐसी जगह खड़ा था
जहाँ से साफ दिखता था आसमान
पर मुश्किल थी
खड़े होने की जगह नहीं थी उसके पास।
वह नदी नहीं था
कि बह चला तो बहता रहता
वह नहीं था पहाड़
कि हो गया खड़ा तो अड़ा रहता।
कविता में अनायास आए कुछ शब्दों की तरह
वह आ गया था धरती पर
बच्चे की मुस्कान की तरह
उसने जीना सीख लिया था।
बड़ी-बड़ी बातें मैं नहीं जानता, उसने कहा
पर इतना कहूँगा
आकाश इतना बड़ा है तो धरती इतनी छोटी क्यों है?
क्या आपने हथेलियों के नीचे दबा रखी है थोड़ी धरती
क्या आपके मन के अँधेरे कोने में
थोड़ा धरती का अँधेरा भी छुपा बैठा है?
सुनो तो, मैंने कहा
.......................!!
नहीं सुनूंगा
आप रोज समझाते हैं एक नयी बात
और रोज मेरी जिंदगी से एक दिन कम हो जाता है
आप ही कहिये कब तक सहूँगा
दो- चार शब्द हैं मेरे पास
वही कहूँगा
पर चुप नहीं रहूँगा!
मैंने तभी उसकी आवाज को
कविता में हजारों फूलों की तरह खिलते देखा
जो हँसने से पहले किसी की इजाजत नहीं लेते।
*****
उन्माद भरे समय में कविता की हमसे है उम्मीद
बहुत कमजोर स्वर में पुकारती है कविता
उन्माद भरा समय नहीं सुनता उसकी आवाज
हिंसा के विरुद्ध हर बार हारता है मनुष्य
हर बार क्रूरता के ठहाकों से काला पड़ जाता है आकाश।
सभ्यता के हजार दावों के बावजूद
एक शैतान बचा रहता है हमारे अंदर, हमारे बीच
हमारी तरह हँसता-गाता
और समय के कठिन होने पर हमारी तरह चिंता में विलाप करता।
जब मनुष्य दिखता है
नहीं दिखती है उसके भीतर की क्रूरता
और हम उसी के कंधे पर रोते हैं, कह-
हाय यह कितना कठिन समय है!
कविता फर्क नहीं कर पाती इनमें
इतने समभाव से मिलती है वह सबसे
इतनी उम्मीद बचाये रखती है कविता
मनुष्य के मनुष्य होने की!
आँखों में पानी बचाने की बात हम करते रहे
और आँसुओं में भींगती रही आधी आबादी की देह
धरती कभी इतना तेज नहीं घूम पाती कि
अँधेरे में ना डूबा रहे इसका आधा हिस्सा!
रोज शैतानी इच्छाएं नोच रही हैं धरती की देह
रोज हमारे बीच का आदमी कुटिल हँसी हँसता है
कविता कितना बचा सकती है यह प्रलयोन्मुख सृष्टि
जब तक हम रोज लड़ते न रहें अपने अंदर के दानव से!
समाज में अकेले पड़ते मनुष्य को ही
खड़ा होना होगा
अपने अकेलेपन के विरुद्ध
एक युद्ध रोज लड़ने को होना होगा तत्पर
अपने ही बीच छिपे राक्षसों से
इस सचमुच के कठिन समय में
कविता की यही हमसे आखिरी उम्मीद है।
*****
ज्ञान की तरह अपूर्ण नहीं
हर रोज नया कुछ सीखता हूँ मैं
हर दिन बढ़ता है कुछ ज्ञान
ओ ईश्वर! मैं क्या करूं इतने ज्ञान का
हर दिन कुछ और कठिन होता जाता है जीवन।
पत्तों की तरह सोख सकूँ
धूप, हवा और चाँदनी
फूल की तरह खिलूँ
रंगों की ऊर्जा से भरा।
पकूं एक दिन फल की तरह
गंध के संसार में
फैल जाऊं बीज की तरह
अनंत के विस्तार में।
हरियाली की तरह बिखरा रहूँ
सृष्टि के समवाय में
ना कि ज्ञान की तरह
अपूर्ण, असहाय मैं!
*****
पंचतंत्र, मेमने और बाघ
पानी की तलाश में मेमने
पंचतंत्र की कहानियों से बाहर निकल आते हैं
और हर बार पानी के हर स्रोत पर
कोई बाघ उनका इंतजार कर रहा होता है।
मेमनों के पास तर्क होते हैं,
और बाघ के पास बहाने।
मेमने हर बार नये होते हैं
और बाघ नया हो या पुराना
फर्क नहीं पड़ता।
जिसने यह कहानी लिखी
वह पहले ही जान गया था –
"मेमने अपनी प्यास के लिए मरते हैं
और ताकतवर की भूख तर्क नहीं मानती!"
*****
क्या रहेगा?
मैं पूछता हूँ बार-बार
भरकर मन में चिंता अपार
कोई नहीं सुनता...
मैं पूछता हूँ बार-बार।
लोग हँसते हैं
शायद सुनकर,
शायद मेरी बेचैनी पर
उनकी हँसी में मेरा डर है-
जब कुछ नहीं रहेगा
क्या रहेगा?
नहीं रहेगा सुख
दुःख भी नहीं
नहीं रहेगी आत्मा,
जब नहीं रहेगा कुछ
नहीं रहेगा भय।
कोई नहीं कहता रोककर मुझे
मेरा भय अकारण है
कि नष्ट होकर भी रह जायेगा कुछ
मैं बार-बार लौटता हूँ
कविता के अभयारण्य में
जैसे मेरी जड़ें वहाँ हैं।
मित्रों, मैं कविता नहीं करता
मैं खुद से लड़ता हूँ
- जब नहीं रहेगा कुछ
क्या रहेगा?
*****
पंचतंत्र की कहानियों से बाहर निकल आते हैं
और हर बार पानी के हर स्रोत पर
कोई बाघ उनका इंतजार कर रहा होता है।
मेमनों के पास तर्क होते हैं,
और बाघ के पास बहाने।
मेमने हर बार नये होते हैं
और बाघ नया हो या पुराना
फर्क नहीं पड़ता।
जिसने यह कहानी लिखी
वह पहले ही जान गया था –
"मेमने अपनी प्यास के लिए मरते हैं
और ताकतवर की भूख तर्क नहीं मानती!"
*****
कविता के अभयारण्य में
जब कुछ नहीं रहेगाक्या रहेगा?
मैं पूछता हूँ बार-बार
भरकर मन में चिंता अपार
कोई नहीं सुनता...
मैं पूछता हूँ बार-बार।
लोग हँसते हैं
शायद सुनकर,
शायद मेरी बेचैनी पर
उनकी हँसी में मेरा डर है-
जब कुछ नहीं रहेगा
क्या रहेगा?
नहीं रहेगा सुख
दुःख भी नहीं
नहीं रहेगी आत्मा,
जब नहीं रहेगा कुछ
नहीं रहेगा भय।
कोई नहीं कहता रोककर मुझे
मेरा भय अकारण है
कि नष्ट होकर भी रह जायेगा कुछ
मैं बार-बार लौटता हूँ
कविता के अभयारण्य में
जैसे मेरी जड़ें वहाँ हैं।
मित्रों, मैं कविता नहीं करता
मैं खुद से लड़ता हूँ
- जब नहीं रहेगा कुछ
क्या रहेगा?
*****
-राकेश रोहित
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©सर्वाधिकार सुरक्षित-
"उदाहरण" एक अव्यवसायिक साहित्यिक प्रयास है । यह समूह- समकालीन हिंदी कविता के
विविध रंगों के प्रचार-प्रसार हेतु है । इस में प्रदर्शित सभी सामग्री के
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