Saturday 23 August 2014 0 comments

अच्छी लड़कियां व अन्य कविताएं – संजय शेफर्ड

मित्रो! उदाहरण के इस अंक में हैं कविता के युवा हस्ताक्षर संजय शेफर्ड। संजय शेफर्ड की कविताएं अपनी ज़मीन और परिवेश से जुड़ी कविताएं है और उनका कवि बहुत ही सहज तरीके से अपने समय की विसंगतियों को पूरी संवेदना और गहन अनुभूति के साथ पढ़ता और रेखांकित करता है। मौत का सिध्दांत, मैं कल्पना करता हूं’ अच्छी लड़कियां कविताओं में जहां अपने समय की वीभत्स विद्रूपताओं, विसंगतियों से मुठभेड़ हैं वहीं  ’जिसका बहना किसी को दिखायी नहीं देता, मां का कवयित्री होना’ कविताओं में अपने परिवेश से जुड़ाव रखते हुए अपनी ज़मीन- जड़ों को सहेजे रखने की ज़द्दोजहद। संजय की कविताएं भरोसा देती हैं कि उनके कवि के पास कहने को बहुत कुछ है , और वह ढब भी और सबसे बड़ी बात, उनकी कविताओं में उतावलापन नहीं दिखता, वे बहुत संयत और सहज रास्ते अपने उत्स को छूती है।

आत्मकथ्य 

लेखन और पाठन का सफर जीवन में काफी देर से जुड़ालेकिन घुम्मकड़ी कीप्रवृति मुझमें जन्म के साथ ही मौजूद थी। उस समय जब लोगों का वक़्त लोगों की अंगुली पकड़कर उम्र के साथसाथ चलता है। मेरा वक़्त मेरी उम्र के साथ किसी भी रूप में चलने से इंकार कर दिया था।पढ़ाई-लिखाई वधारणा को भाग्य की नियति मानकर कई वर्षों तक मैं अपने पुश्तैनी पेशेभेड़ पालन की वज़ह इधर-उधर भटकता रहाऔर यहीं  मेरा साक्षात्कार जंगलपहाड़नदीनाले और प्रकृति से हुआजाने-अनजाने में ही सही मेरा मन भावनाओंसंवेदनाओ और अहसासों सागर के रूप में मुझमें लहराने लगा। वे रातें मुझे आज भी याद हैंजिन्हें खुली पलकोंके आगोश में लेकर मैंने कभी किसी नदीनाले के किनारे या फिर वियाबान जंगलों की बांहों में बिताई थी।                            उन दिनों शेफर्ड हट जैसी कोई चीज अस्तित्व में नहीं आई थी। उस समय भेड़ पालन करने अथवा चराने वालों का कोई निश्चित ठौर ठिकाना नहीं होता था।  जहां सांझ ढली वहीं भेड़ों के लिए ठहराव ढूंढा और पाल डालकर खुले आसमान के नीचे सो गए। उस दौरान सर्दीगर्मीबरसात को मैंने बहुत करीब से देखाछूया और खुदमें महसूस किया। उस समय मेरे पास एक विस्तृत धरतीखुला आसमान और दूरदूर तक लहराता अथाह सागर था।    कुछेक ही दिनों में यह यायावरी भरी जिन्दगी मुझे रास आने लगी थी। यहां हमारी आवश्यकताएं बहुत ही सीमित थी। हम पूरी तरह से प्राकृतिक चीजों पर आश्रित थेपेड़ से तोड़कर फल खा लियाप्यास लगने पर किसी नदी का पानी पी लियाभूख सताने लगी तो उपले इकट्ठा करके आग जलाई और लिट्टी आदि बनाया और पेट भर लिया। सही मायने में दुखदर्द और विषाद क्या होता है बहुत दिनों तक जाना ही नहीं लेकिन एक दिन मेमने की में में आवाज़ से रात का सन्नाटा टूटा तो ऐसा लगा कि सिर पर पहाड़ गिर गया।   
उस समय भी जंगली जानवर रात के सन्नाटे में निचाट जगहों पर आकर शिकार तलाशते रहते थे। सुबह पास के खेत में उस मेमने की हड्डियोंबाल और खाल को लहू में लिपटा देखकर मन सिहर उठा और यहीं से जीवन में दुखदर्दविषाद और संवेदना का फूटा और वक़्त के साथ अपना आकर लेता रहा। इस तरह जन्म के साथ के सात शुरूयाती सालों ने मेरे हृदयआत्मा कई अनकही कविताओंकहानियोंउपन्यासों को जन्म दिया जिसका लिखा जाना इस 27 साल की उम्र में पहुँचाने के बावजूद भी बाकि है। 

सही मायने में जब मैं कविता लिखता हूं तो कविता नहीं महज अपने मन के भाव लिखता हूंकभीकभी यही भाव विचार बन जाते हैंस्थायित्व की प्रक्रिया पार कर अपना प्रतिविम्ब बनाते हैंऔर कविता बन जाते हैं। मेरी कविताकुछ कल्पनाकुछ यतार्थकुछ वक़्त को समेटने की कोशिशकुछ प्रतिध्वनिकुछ परछाईकुछ प्रतिविम्ब के आलावा कुछ भी तो नहीं है। 


संक्षिप्त परिचय 

संजय शेफर्ड : मूल नाम संजय कुमार पाल। जन्म - उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जनपद में। शिक्षा - जवाहर नवोदय विद्यालय गोरखपुरभारतीय मीडिया संस्थान दिल्ली जेवियर इंस्टिट्यूट ऑफ कम्युनिकेशन मुंबई । कार्यक्षेत्र - एशिया के विभिन्न देशों में शोधकार्यव्यवसायिकतौर पर मीडिया एंड टेलीविजन लेखनसाहित्यसिनेमारंगमंच एवं सामाजिक कार्य में विशेषरुचि।विभिन्न पत्र पत्रिकाओंटेलीविजन एवं आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण।                    नुक्कड़ नाटकों का निर्देशन।  25 से अधिक नाटकों का लेखन।    
सम्प्रति – बीबीसी एशियन नेटवर्क में शोधकर्ता एवं किताबनामा प्रकाशनहिन्दीनामा प्रकाशन के प्रबंध निदेशक के तौर पर संचालन। 


अच्छी लड़कियां व अन्य कविताएं – संजय शेफर्ड


मौत का सिद्धांत

मौसम कुछ बदला-बदला सा था 
हसीं रात पर उदासियों का पहरा था 
हवाओं में लहू की गंध थी 
वह लाल रंग विभत्स हो चुका था 
जो कल तक सुनहरा था 

हर तरफ चीखें थीरुदन था 
हाहाकार मचा था 
मानवता की लड़ाई के नाम पर 
हर इंसान के माथे पर 
बस केवल नरसंहार लिखा था 

बम और तोपें नहीं थी वहां 
हसियागड़ासाकुल्हाड़ी पर 
मरने वालों का नाम लिखा था 
हम मर रहे थे अपने अपने ही घरों में 
रोटी-कपड़ा और मकान की खातिर 

कुछ लोग जिन्दा भी थे 
इसी अनवरत युद्ध के बीच 
और छीन-झपट रहे थे 
एक दूसरे से एक दूसरे के हिस्से की रोटी 

कुछ लोग जिन्दा थे 
डार्विन के जीवन संघर्ष के सिद्धांत पर 
कुछ लोग जिन्दा थे 
डार्विन के जीवन संघर्ष के सिद्धांत के विपरीत 

हम मर रहे थे अपने अपने ही घरों में 
रोटी-कपड़ा और मकान की खातिर 
हम मर रहे थे अपनी अपनी मौत से पहले 
मौत के तमाम सिद्धांतों से अनभिज्ञ।

मैं कल्पना करता हूं 



मैं कल्पना करता हूं 

जंगल के उस पार एक और जंगल की 

जहां खेल रही होगी 
मेरीअंधेरोंचांदनीदिनरंगएक
मैं कल्पना करता हूं कल्पना के उस पार एक और कल्पना की जहां पल रहें होंगे लोगों के कभी नहीं पुरे होने वाले सपने उनकी जागती आंखों की पुतलियों पर रखा होगा नींद का एक टुकड़ा उन्हीं कभी नहीं पूरे होने वाले अधूरे ख्वाबों के इन्तजार में कट रहे होंगे दिन मैं कल्पना करता हूं दुनिया के उस पार एक और दुनिया की जहां पलती हो लोगों के अंदर बहुत सारी दुनिया बिना किसी सीमा रेखा बिना किसी विस्फोटक शोरबिना किसी गतिरोध के बहती हों हवाएं प्यारअपनत्य और इंसानियत की दिलों से दिलों के बीच मैं कल्पना करता हूं सृष्टि के उस पार एक और सृष्टि की जिसमें धरती आकाश और समुन्दर हो जिसमें नदीपहाड़ और झरने हों जिसमें पेड़-पौधेजीवजंतु हों जिसमें बीज से वृक्ष बनता हो जिसमें मृत्यु के बाद बचा रहता हो जीवन गूंजती हों दुधमुंहे बच्चे की किलकारियां मैं कल्पना करता हूं इन तमाम कल्पनाओं के बावजूद एक टुकड़े सच की जिसमें से निकलकर मेरी पांच साल की बेटी बाहर आए उसकी कभी नहीं ख़त्म होने वाली दौड़ ख़त्म हो मैं कल्पना करता हूं महज कोरी कल्पना क्योंकि उस मासूम के साथ एक बाप की उम्मीदें भी मर चुकी हैंऔर इससे बड़ा कोई और सचवह नहीं देखना चाहता  
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जिसका बहना किसी को दिखाई नहीं देता



उबड़खाबड़ देह में 

रिसता हुआ पहाड़ भर देता है 

इतने आंसू कि 
एकपवुलियोंजिसकाउसजिसनेऔरउसीउस समुंदर से मिलने जिसका जल खारा होता है छातियों के दूध की तरह लौहयुक्त लेकिन यह मिलना, कोई मिलना नहीं बस स्पर्श है देहदेशसृष्टि का अब वह मिलकर लौट रही है उन्हीं रास्तों से उसी नदी के सहारे उसी पहाड़ की ओर जिससे उसकी आंखें डबडबाई थीं अथाह प्रसव पीड़ा को निस्तेज और उसके लौटने के साथ आकाश झुक गया है धरती एक उघड़ी देह में सिमट रही है समुंदर उसकी छातियों में समाता जा रहा है शायद 'पांव भारी होनाइसी को कहते हैं !जिसमें सिर पैर और छाती का दर्द एक हो जाता है 
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अच्छी लड़कियां 


एक लड़की जो खुद को उलट-पुलट
कभी काजल लगा
कभी होंठलाली के रंग को थोड़ा गाढ़ा कर
कभी बालों में खोता बनाती
कभी बालों को खुला रखकर
वक्षों के उभार को छुपाती हुई
हर रोज बदलती रहती है
धूप के आईने में अपनी तस्वीर
वह खुदको कितना बदल पाती है ?

सारी रात सजती हैसंवरती है
घर की दहलीज से
एक कदम बाहर निकालती है
चटाक की आवाज़ के साथ
आईने टूटकर सारी राह बिखर जाते हैं
बंद खिड़कियां खुलती
अपनी बालों में खुजली करती
दूर तक उसका पीछा करती हैं
वह लहुलुहान पैरों के साथ लौट आती है

उसके घर में आते ही
टूटे हुए आईने जमीन से उठकर
फिर से जुड़ने लगते हैं
वह फिर से अपने आपको सजाती-संवारती
खुदको सहारा देती,
भावनाओं को सहलाती
खुदको को जोड़ने की कोशिश करती
अपने जख्मी पैरों के बल पर
आईने के सामने खड़ी हो जाती है

धीरे-धीरे कविताओं और
कहानियों में खोने की कोशिश करती
कभी सिन्ड्रेलाकभी स्नो ह्वाइट बनती
वास्तविक दुनिया से दूर होने के क्रम में
दिवार पर टंगीएक खूबसूरत पेंटिंग बन जाती है

अच्छी लड़कियां पेंटिंग होती हैं :
एक लड़की के 'सुसाईड नोटमें लिखा था।
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मां का कवयित्री होना 


मां पढ़ना-लिखना नहीं जानती 
तनिक भी भाषा ज्ञान नहीं है उसे 
फिर भी हर रोज घर -गृहस्थी में 
बात - बात पर मुहावरों का प्रयोग करती 
नई - नई पांडुलिपियां गढती 
लोकक्तियां कहती रहती है 

हम पढ़े लिखे लोग 
खुदको कितना भी बड़ा विशेषज्ञ समझते रहे 
पर इससे इतर उसके लिए 
सूर्य -चंद्रदिन-रातनदी-पहाड़जल - अग्नि के 
अपने अलग अर्थ और अलग मायने है 

सूर्य को देखकर समय बता देती है 
समय को व्यवस्थित करना 
अच्छी तरह जानती है 
दिन को घंटे की सूइयों से 
आंकने की बजाय पहर कहती है 
रसोई सिर्फ खाना बनाने का कमरा नहीं देवालय है 
जिसे सुबहदोपहरसांझ तीनों पहर पूजती है 

चुल्हे पर अदहन रखकर 
ना जाने कितने पुस्तकालयों की समीक्षा करती 
अपनी अलिखित कविताओं को 
अपने ही भाषा में अक्सर लिखती - पढ़ती रहती है 
मां सिर्फ प्रेम नहीं कल्पना की भी बातें करती है 

कहती है कि 
कल्पना के बाद जो बचा रह जाता है 
वह भी कल्पना ही है !
और वास्तविकता के बाद का बचा शेष भी 
वास्तविकता ही होती है 
इसीलिए वह बिना लिखे ही वास्तविकता को लिखती 
वह बिना पढ़े ही वास्तविकता को पढ़ती है 

उलाहने में प्रेम ; प्रेम में उलाहने 
हास्य में व्यंगव्यंग में हास्य 
जीवन में भक्ति ; भक्ति में जीवन 
तीज - त्योहारों में आस्था ; आस्था में पर्व 
अलंकरण ; और उसके प्रयोग धर्म 
उसने खुद बनाएं ; खुद विकसित किए हैं 

कल्पना से इतर अपने जीवन के तमाम 
अनुभूतियों - अनुभवों से 
इसीलिए कवि सिर्फ कवि होते हैं !
मां सिर्फ और सिर्फ प्रयोगधर्मी होते हुए भी 
एक सफल कवयित्री है ; वह रचती हैं हमें ; 
सिर्फ शब्द से नहीं ; अपने हाड़मांस और लहू कणों से

बिलकुल वैसे ही जैसे हम स्याही से कविता लिखते हैं।
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