Thursday 1 December 2016 0 comments

उखड़े खंभे - हरिशंकर परसाई

 उखड़े खंभे  हरिशंकर परसाई 

एक दिन राजा ने खीझकर घोषणा कर दी कि मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भे से लटका दिया जाएगा। सुबह होते ही लोग बिजली के खम्भों के पास जमा हो गए। उन्होंने खम्भों की पूजा की, आरती उतारी और उन्हें तिलक किया।
शाम तक वे इंतजार करते रहे कि अब मुनाफाखोर टांगे जाएंगे- और अब। पर कोई नहीं टाँगा गया।
लोग जुलूस बनाकर राजा के पास गये और कहा,” महाराज, आपने तो कहा था कि मुनाफाखोर बिजली के खम्भे से लटकाये जाएंगे, पर खम्भे तो वैसे ही खड़े हैं और मुनाफाखोर स्वस्थ और सानन्द हैं।”
राजा ने कहा,” कहा है तो उन्हें खम्भों पर टाँगा ही जाएगा। थोड़ा समय लगेगा। टाँगने के लिये फन्दे चाहिये। मैंने फन्दे बनाने का आर्डर दे दिया है। उनके मिलते ही, सब मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से टाँग दूँगा।
भीड़ में से एक आदमी बोल उठा,” पर फन्दे बनाने का ठेका भी तो एक मुनाफाखोर ने ही लिया है।”
राजा ने कहा,”तो क्या हुआ? उसे उसके ही फन्दे से टाँगा जाएगा।”
तभी दूसरा बोल उठा,” पर वह तो कह रहा था कि फाँसी पर लटकाने का ठेका भी मैं ही ले लूँगा।”
राजा ने जवाब दिया,” नहीं, ऐसा नहीं होगा। फाँसी देना निजी क्षेत्र का उद्योग अभी नहीं हुआ है।”
लोगों ने पूछा,” तो कितने दिन बाद वे लटकाये जाएंगे।”
राजा ने कहा,”आज से ठीक सोलहवें दिन वे तुम्हें बिजली के खम्भों से लटके दीखेंगे।”
लोग दिन गिनने लगे।
सोलहवें दिन सुबह उठकर लोगों ने देखा कि बिजली के सारे खम्भे उखड़े पड़े हैं। वे हैरान हो गये कि रात न आँधी आयी न भूकम्प आया, फिर वे खम्भे कैसे उखड़ गये!
उन्हें खम्भे के पास एक मजदूर खड़ा मिला। उसने बतलाया कि मजदूरों से रात को ये खम्भे उखड़वाये गये हैं। लोग उसे पकड़कर राजा के पास ले गये।
उन्होंने शिकायत की ,”महाराज, आप मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से लटकाने वाले थे ,पर रात में सब खम्भे उखाड़ दिये गये। हम इस मजदूर को पकड़ लाये हैं। यह कहता है कि रात को सब खम्भे उखड़वाये गये हैं।”
राजा ने मजदूर से पूछा,”क्यों रे,किसके हुक्म से तुम लोगों ने खम्भे उखाड़े?”
उसने कहा,”सरकार ,ओवरसियर साहब ने हुक्म दिया था।”
तब ओवरसियर बुलाया गया।
उससे राजा ने कहा,” तुमने रातों-रात खम्भे क्यों उखड़वा दिये?”
“सरकार,इंजीनियर साहब ने कल शाम हुक्म दिया था कि रात में सारे खम्भे उखाड़ दिये जाए।”
अब इंजीनियर बुलाया गया। उसने कहा उसे बिजली इंजीनियर ने आदेश दिया था कि रात में सारे खम्भे उखाड़ देना चाहिये।
बिजली इंजीनियर से कैफियत तलब की गयी,तो उसने हाथ जोड़कर कहा,”सेक्रेटरी साहब का हुक्म मिला था।”
विभागीय सेक्रेटरी से राजा ने पूछा, खम्भे उखाड़ने का हुक्म तुमने दिया था।”
सेक्रेटरी ने स्वीकार किया,”जी सरकार!”
राजा ने कहा,” यह जानते हुये भी कि आज मैं इन खम्भों का उपयोग मुनाफाखोरों को लटकाने के लिये करने वाला हूँ,तुमने ऐसा दुस्साहस क्यों किया।”
सेक्रेटरी ने कहा,”साहब ,पूरे शहर की सुरक्षा का सवाल था। अगर रात को खम्भे न हटा लिये जाते, तो आज पूरा शहर नष्ट हो जाता!”
राजा ने पूछा,”यह तुमने कैसे जाना? किसने बताया तुम्हें?
सेक्रेटरी ने कहा,”मुझे विशेषज्ञ ने सलाह दी थी कि यदि शहर को बचाना चाहते हो तो सुबह होने से पहले खम्भों को उखड़वा दो।”
राजा ने पूछा,”कौन है यह विशेषज्ञ? भरोसे का आदमी है?”
सेक्रेटरी ने कहा,”बिल्कुल भरोसे का आदमी है सरकार। घर का आदमी है। मेरा साला है। मैं उसे हुजूर के सामने पेश करता हूँ।”
विशेषज्ञ ने निवेदन किया,” सरकार ,मैं विशेषज्ञ हूँ और भूमि तथा वातावरण की हलचल का विशेष अध्ययन करता हूँ। मैंने परीक्षण के द्वारा पता लगाया है कि जमीन के नीचे एक भयंकर प्रवाह घूम रहा है। मुझे यह भी मालूम हुआ कि आज वह बिजली हमारे शहर के नीचे से निकलेगी। आपको मालूम नहीं हो रहा है ,पर मैं जानता हूँ कि इस वक्त हमारे नीचे भयंकर बिजली प्रवाहित हो रही है। यदि हमारे बिजली के खम्भे जमीन में गड़े रहते तो वह बिजली खम्भों के द्वारा ऊपर आती और उसकी टक्कर अपने पावरहाउस की बिजली से होती। तब भयंकर विस्फोट होता। शहर पर हजारों बिजलियाँ एक साथ गिरतीं। तब न एक प्राणी जीवित बचता, न एक इमारत खड़ी रहती। मैंने तुरन्त सेक्रेटरी साहब को यह बात बतायी और उन्होंने ठीक समय पर उचित कदम उठाकर शहर को बचा लिया।
लोग बड़ी देर तक सकते में खड़े रहे। वे मुनाफाखोरों को बिल्कुल भूल गये। वे सब उस संकट से अविभूत थे, जिसकी कल्पना उन्हें दी गयी थी। जान बच जाने की अनुभूति से दबे हुये थे। चुपचाप लौट गये।
उसी सप्ताह बैंक में इन नामों से ये रकमें जमा हुईं:-
सेक्रेटरी की पत्नी के नाम- दो लाख रुपये
श्रीमती बिजली इंजीनियर- एक लाख
श्रीमती इंजीनियर -एक लाख
श्रीमती विशेषज्ञ – पच्चीस हजार
श्रीमती ओवरसियर-पांच हजार
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Sunday 1 May 2016 0 comments

मणिमोहन मेहता की कविताएं



मित्रो! आज उदाहरण में हमारे साथ हैं हमारे समय के वरिष्ठ कवि, अनुवादक मणिमोहन मेहता की कुछ कविताएं। मणिमोहन की कविताएं हमारे समय की कविताएं हैं इन में हमारे समय की मिठास के साथ साथ जो खटास है वह भी दिखायी देती है। इन कविताओं का स्वर आदमी में मानवीयता और मनुष्यता की स्थापना के लिए प्रतिबध्द है। 

मणि मोहन मेहता का जन्म 02 मई 1967 को सिरोंज (विदिशा) म. प्र. में हुआ।आपअंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर और शोध उपाधि  प्राप्त हैं। देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं ( पहल , वसुधा , अक्षर पर्व ,  समावर्तन , नया पथ , वागर्थ ,जनपथ, बया , आदि ) में कवितायेँ तथा अनुवाद प्रकाशित । वर्ष 2003 में म. प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से कविता संग्रह ' कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायेँ ' प्रकाशित ।वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक  ' एक सीढ़ी आकाश के लिए ' प्रकाशित ।वर्ष 2013 में  कविता संग्रह  " शायद " प्रकाशित ।इसी संग्रह पर म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार ।कुछ कवितायेँ उर्दू , मराठी और पंजाबी में अनूदित । इसके अतिरिक्त  " भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास " , " आधुनिकता बनाम उत्तर आधुनिकता " तथा " सुर्ख़ सवेरा " आलोचना पुस्तकों का संपादन भी किया है
सम्प्रति : शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय , गंज बासौदा ( म.प्र ) में अध्यापन ।
संपर्क : विजयनगर , सेक्टर - बी , गंज बासौदा म.प्र. 464221
मो. 9425150346
ई-मेल : profmanimohanmehta@gmail.com



मणिमोहन मेहता की कविताएं

हत्यारे

अकसर निःशस्त्र ही आते हैं

हत्यारे
हम ही ड़ाल देते हैं
अपने हथियार
और मारे जाते हैं
उनके हाथों

अपने ही हथियारों से ।


बारिश 


यह रेनकोट पहने हुए
आदमी का
एकालाप नहीं
प्यासी धरती की कोख में
दुबके हुए
बीज की प्रार्थना है ।


रंग- संवाद


पेड़ों ने भेजी हैं
धरती को 
अनगिनत पीली चिट्ठियाँ

देखना !
धरती भी 
जल्दी ही देगी
धानी जवाब ।



एक दिन 



एक पेड़ था
एक नाम था उसका
एक कुल खानदान भी था उसका
एक दिन 
टूटकर गिरा धरती पर 
और इसकी धमक सुनी गई
भाषा की छाती पर

एक नदी थी
धीरे - धीरे जिसने बहना बन्द किया
और एक दिन दम तोड़ दिया उसने
अपने ही किनारों पर
इसकी आखरी हिचकी भी 
सुनी गई भाषा की धड़कनों में

हजारों फूल थे , पहाड़ थे 
परिंदे और जीव - जंतू थे
बेशुमार रंग और शेड्स थे
एक दिन गायब हो गए दृश्य से
और आखरी बार देखे गए
भाषा की अँधेरी गली में

बेशुमार चीजें थीं
मामूली
बेहद मामूली सी
पर जिनकी तरफ देखो 
तो विस्मय से भर देती थीं 
एक दिन 
अपनी उपेक्षा से दुखी होकर
सबने छोड़ दिया
भाषा का घर ।



गति


अपनी गति से 
हो रहा है अंकुरण
धरती की कोख से

कोपलें फूट रही हैं 
फूल खिल रहे हैं 
तितलियाँ और परिंदे उड़ रहे हैं
पेड़ की शाख से बिछड़ कर
धरती की तरफ 
बढ़ रहे हैं ज़र्द पत्ते
सब अपनी ही गति से

कहीं कोई हड़बड़ाहट 
कहीं कोई बेचैनी नहीं
हमारी दुनियाँ की तरह
कहीं कोई होड़ नहीं
गति के साथ ।



रूपान्तरण

हरे पत्तों के बीच से
टूटकर बहुत ख़ामोशी के साथ
धरती पर गिरा है
एक पीला पत्ता
अभी - अभी एक दरख़्त से

रहेगा कुछ दिन और
यह रंग धरती की गोद में
सुकून के साथ
और फिर मिल जायेगा
धरती के ही रंग में

कितनी ख़ामोशी के साथ
हो रहा है प्रकृति में
रंगों का यह रूपान्तरण ।



निर्वस्त्र


अपने चेहरे
उतार कर रख दो
रात की इस काली चट्टान पर

कपड़े भी !
अब घुस जाओ
निर्वस्त्र 
स्वप्न और अन्धकार से भरे
भाषा के इस बीहड़ में

कविता तक पहुंचने का
बस यही एक रास्ता है ।


-मणि मोहन मेहता

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