मित्रो! आज उदारण में आपके सामने हैं उर्दू के तरक्की पसंद व आवाम के शायर मरहूम अज़ीज़ आज़ाद की चंद चुनिंदा गज़लें। अज़ीज़ साहब की ये गज़लें ज़माने और आदमी की फ़ितरत को जिस अंदाज़ में हमारे सामने रखती है, वह काबिल ए तारीफ़ है। गज़ल के एक एक शेर जैसे आप से ही मुखातिब हो एक ऎसा सवाल आपके भीतर छोड़ देते हैं जिसके जवाब में आप बगलें झांकते दिखायी देंगे। अमन और इंसानियत अज़ीज़ आज़ाद की गज़लों का मौजूं है। कुछ लोग मशहूर होते हैं और कुछ महबूब। अज़ीज़ साहब अपने सुननेवालों के महबूब शायर थे। शायरी और अदबकारी के अलावा आवाम में अपनी रफ़ाकत के लिए भी जाने जाते थे 21 मार्च 1944 को बीकानेर में बीकानेर में जन्मे अज़ीज़ आज़ाद साहब ने 20 सितंबर 2006 को यकबयक दुनिया से रुख्सत हो गए लेकिन अपनी बिंदास और मस्त शख्सियत की बदौलत अपने नाम की तरह सबके अज़ीज़ रहे। वे सही बात कहने से कभी नहीं चूकते थे भले ही सामने कोई लाट साहब ही क्यों न हो।
प्रकाशित कृतियां- टूटे हुए लोग(उपन्यास), उम्र बस नींद सी, भरे हुए घर का सन्नाटा, चांद नदी में डूब रहा है( गज़ल संग्रह), हवाओं और हवाओं के बीच (कविता संग्रह), कोहरे की धूप( कहानी संग्रह) व देश की सभी पत्र-पत्रिकाओं में रचना प्रकाशन के अलावा राजस्थान उर्दू अकादमी के सदस्य होने के साथ-साथ अकादमी से संपादित ’तजकरा शोरा-ए- बीकानेर का संपादन व मुशायरों में शरीक।
अज़ीज़ आज़ाद की गज़लें
1
सावन
को ज़रा खुल के बरसने की दुआ दो
हर
फ़ूल को गुलशन में महकने की दुआ दो
मन
मार के बैठे हैं जो सहमे हुए डर से
उन
सारे परिंदों को, चहकने की दुआ दो
वो
लोग जो उजड़े हैं फ़सादों से बला से
लो
साथ उन्हें फ़िर से, पनपने की दुआ दो
कुछ
लोग जो खुद अपनी निगाहों से गिरे हैं
भटके
हैं खयालात बदलने की दुआ दो
जिन
लोगों ने डरते हुए दरपन नहीं देखा
उनको
भी ज़रा सजने-संवरने की दुआ दो
बादल
है के कोहसार पिघलते ही नहीं है
आज़ाद
इन्हें अब तो बरसने की दुआ दो
2
चलो
ये तो सलीका है बुरे को बुरा मत कहिए
मगर
उनकी तो ये ज़िद है हमें तो अब खुदा कहिए
सलीकेमंद
लोगों पे यूं ओछे वार करना भी
सरासर
बदतमीज़ी है इसे मत हौसला कहिए
तुम्हारे
दम पै जीते हम तो यारो कब के मर जाते
अगर
ज़िंदा हैं तो किस्मत से बुजुर्गों की दया कहिए
हमारा
नाम शामिल है वतन के जांनिसारों में
मगर
यूं तंगनज़री से हमें मत बेवफ़ा कहिए
तुम्हीं
पे नाज़ था हमको वतन के मो’तबर लोगों
चमन
वीरान-सा क्यूं है गुलों को क्या हुआ कहिए
किसी
जान ले लेना तो इनका शौक है आज़ाद
जिसे
तुम कत्ल कहते हो उसे इनकी अदा कहिए
3
जो
दुनिया में छाए-छाए फ़िरते हैं
मौत
से क्यूं घबराए फ़िरते हैं
सन्नाटे
पसरे हैं मन की वादी में
फ़िर
भी कितना शोर मचाए फ़िरते हैं
खुद
का बोझ नहीं उठता जिन लोगों से
वो
धरती का भार उठाए फ़िरते हैं
खुद
को जरा सी आंच लगी तो चीख पड़े
जो
दुनिया में आग लगाए फ़िरते हैं
उनके
लफ़्ज़ों में ही खुश्बू होती है
जो
सीने में दर्द छुपाए फ़िरते हैं
क्या
होगा आज़ाद भला इन गज़लों से
लोग
अदब से अब कतराए फ़िरते हैं
4
इस
दौर में किसी को किसी की खबर नहीं
चलते
हैं साथ-साथ मगर हमसफ़र नहीं
अपने
ही दायरों में सिमटने लगे हैं लोग
औरों
की गम-खुशी का किसी पे असर नहीं
दुनिया
मेरी तलाश में रहती है रात-दिन
मैं
सामने हूं मुझ पे किसी की नज़र नहीं
वो
नापने चले हैं समंदर की वसुअतें
लेकिन
खुद अपने कद पे किसी की नज़र नहीं
राहे-वफ़ा
में ठोकरें होती हैं मंज़िलें
इस
रास्ते में मौत का कोई डर नहीं
सज़दे
में सर काट के खुश हो गया यज़ीद
वे
साफ़ बुज़दिली है तुम्हारा हुनर नहीं
हम
लोग इस ज़हान में होकर हैं गुम अज़ीज़
जीते
रहे हैं ऎसे के जैसे बशर नहीं
5
तुम
ज़रा प्यार की राहों से गुजर कर तो देखो
अपने
ज़ीनों से सड़क पर भी उतर कर तो देखो
धूप
सूरज की भी लगती है दुआओं की तरह
अपने
मुर्दार ज़मीरों से उबर कर तो देखो
तुम
हो खंज़र भी तो सीने में समा लेंगे तुम्हें
प’
ज़रा प्यार से बाहों में भर कर तो देखो
मेरी
हालत से तो गुरबत का गुमां हो शायद
दिल
की गहराई में उतर कर तो देखो
मेरा
दावा है कि सब ज़हर उतर जाएगा
तुम
मेरे शहर दो दिन ठहर कर तो देखो
इसकी
मिट्टी में मुहब्बत की महक आती है
चांदनी
रात में दो पल पसर कर तो देखो
कौन
कहता है कि तुम प्यार के काबिल नहीं
अपने
अंदर से भी थोड़ा संवर कर तो देखो
6
देते
हैं लोग हक भी खैरात की तरह
खुद
मांगते हैं ज़ान भी सौगात की तरह
जीते
हैं ख्वाहिशात का लश्कर लिए हुए
रहते
हैं खुद में कैद हवालात की तरह
जो
खुद ही इक सवाल हैं देंगे भी क्या ज़वाब
मिलिए
न आप उनसे सवालात की तरह
सुलझे
हुए खयाल किताबों में दफ़्न हैं
उलझें
हैं हम तो आज के हालात की तरह
ये
ज़िंदगी भी ज़हर के प्याले-सी हो गई
पीना
पड़ेगा अब हमें सुकरात की तरह
रखते हैं लोग कैसे परिंदों को कैद में
होते
हैं ये भी आपके ज़ज़्बात की तरह
7
कुछ
नंगे भी उनसे कितने अच्छे हैं
जो
कपड़ों में रहकर बिल्कुल नंगे हैं
शाम
ढले जब सूरज डूबा तो जाना
हमसे
हमारे साए कितने लंबे हैं
हो
के समंदर तुम फ़ैले तो हमको क्या
हम
तो प्यासे अब भी पहले जैसे हैं
भोले-भाले
कातिल शातिर और मक्कार
इक
चेहरे में कितने कितने चेहरे हैं
बच्चे भी कुछ बुढों जैसे लगे हमें
कुछ
बुढे भी अब तक बिल्कुल बच्चे हैं
क्यों
लोगों के ऎब ही देखें हम आज़ाद
वे
भी देखो कुछ हम से अच्छे हैं
8
मेरे
वजूद का रिश्ता ही आसमान से है
न
जाने क्यूँ उन्हें शिकवा मेरी उड़ान से है
मुझे
ये ग़म नहीं शीशा हूँ हश्र क्या होगा
मेरी
तो जंगे-अना ही किसी चट्टान से है
सभी
ने की है शिकायत तो ज़ुल्म की मुझ पर
मगर
ये सारी शिकायत दबी ज़बान से है
मैं
जानता था सज़ा तो मुझे ही मिलनी थी
मुझे
तो सिर्फ़ शिकायत तेरे बयान से है
भरे
घरों को जला कर यूँ झूमने वालों
तुम्हारा
रिश्ता भी आख़िर किसी मकान से है
हमें
ज़माना ये कैसी जगह पे ले आया
ज़मीं
से है कोई रिश्ता न आसमान से है