Tuesday, 28 May 2013 5 comments

औरतें सपने नहीं देखा करतीं व अन्य कविताएं - देवयानी भारद्वाज

"मेरे लिए यह दुनिया 
घर की बाखर है 
जिसमें लगाती हूं दौड़ निःसंकोच 
खेलती हूं, हंसती हूं, गाती हूं 
आसमान को छूने की जिद ठाने हूं"

मित्रो! उदाहरण में आज हमारे साथ हैं हमारे समय की कविता में एक महत्त्वपूर्ण और सशक्त युवा हस्ताक्षर देवयानी भारद्वाज। अपने अकूत विश्वास और हौंसलों से भरी "गोरैया सा चहकना चाहती हूँ मैं चाहती हूँ तितली की तरह उड़ना, और सारा रस पी लेना चाहती हूँ जीवन का" व "आसमान को छूने की जिद ठाने"  युवा कवयित्री देवयानी भारद्वाज। "खुद के बनाए और खुद पर हावी होते साम्राज्य को खरोंचती ही रहती हूं अपनी छुटकी अंगुली से" का माद्दा रखनेवाली कवयित्री देवयानी की कविताएं अपने आसपास के परिवेश और विसंगतियों से उपजी हमारे रोजर्मरा की ज़िंदगी की जद्दोज़हद कविताएं हैं। इन कविताओं की बेबाकी, गहराई और धार सचमुच मार करनेवाली है।


देवयानी भारद्वाज 
जन्‍म 13 दिसंबर 1972 , शिक्षा एम ए हिन्‍दी साहित्‍य (राजस्‍थान विश्‍व विद्यालय) व़र्ष 1995.

वर्ष 1994 से 2004 तक पत्रकारिता के दौरान नियमित फिल्‍म समीक्षा तथा फीचर लेखन। वर्ष 2001 में प्रेम भाटिया फैलोशिप के तहत 'विकास की असमानता और विस्‍थापित होते लोग' विषय पर अध्‍ययन (अब तक अप्रकाशित)। भोजन के अधिकार आंदोलन के साथ एक नियमित बुलेटिन 'हक' का संपादन। व़र्तमान में शिक्षा में सक्रिय स्‍वयं सेवी संस्‍था 'दिगंतर' के साथ असोसिएट फैलो के रूप में कार्यरत। 
कथन, शिक्षा विमर्श, जनसत्ता, आउटलुक आदि पत्रिकाओं तथा प्रतिलिपि, समालोचन, असुविधा, आपका साथ साथ फूलों का, परिकथा ब्‍लोगोत्‍सव आदि ब्‍लोग्‍स पर कविताएं प्रकाशित। अखबारों के लिए छिट-पुट लेखन कार्य जारी। अंग्रेजी एवं हिन्‍दी में शिक्षा से संबंधित अनेक अनुवाद प्रकाशित।


औरतें सपने नहीं देखा करतीं व अन्य कविताएं - देवयानी भारद्वाज




एक दिन

कपड़े पछीटते-पछीटते एक दिन 
मेरे हाथ दूर जा गिरे होंगे 
मेरी देह से 

चूमते-चूमते छिटक कर 
अलग हो गए होंगे 
होंठ मेरे चेहरे से 

तुम्हारे दांतों बीच दबा स्तन 
नहीं कराएगा मेरे ही सीने पर होने का अहसास 

वह लड़की जो मुझमें थी 
सहम कर दूर खड़ी होगी 
तड़प रहा होगा कोई भ्रूण मुझसे हो कर जन्मने को 

क्रूर 
बेहद क्रूर होगी 
मेरे आस-पास की शब्दावली 
निश्चेष्ट पड़े होंगे मेरे अहसास 

कठिन 
उस बेहद कठिन समय में 
रचना चाहूंगी जब एक बेहतर कविता 
मेरी कलम टूट कर गिर गई होगी 
लुढ़क गई होगी मेरी गर्दन एक ओर 
तुम अपलक देख रहे होगे 
उस दृश्य को


तुम 

तुमसे ज्यादा कुछ नहीं 
तुमसे कम पर कोई समझौता नहीं 
तुम्हारे सिवा कोई नहीं है 
मंज़ूर मुझे


मुश्किल न था कुछ भी 

आसमान छूना चाहा होता मैंने 
तो मुश्किल न थी 
आसमान छूना 
चाहा नहीं था मैंने 

दुनिया को बदलने का सोचा होता 
तो कूद सकती थी 
एक अंधी लड़ाई में 
दुनिया को बदलने का 
सोचा नहीं था मैंने

सत्ता ने कभी लुभाया होता मुझे 
अपने आस-पास 
कोई तो साम्राज्य गढ़ ही लेती मैं 
सत्ता ने कभी 
लुभाया नहीं मुझे 

आसमान को जहां था 
वहीं देखना चाहा 
दुनिया को समझने की कोशिश में 
बिता आई हूं चौथाई सदी 
खुद के बनाए 
और खुद पर हावी होते साम्राज्य को 
खरोंचती ही रहती हूं 
अपनी छुटकी अंगुली से 

दरअसल 
सपनों को लेकर 
कोई महत्वाकांक्षा 
पाली नहीं थी मैंने 

अपनी सतह पर रहते 
उससे उठने की कोशिश करते 
सपनों को देखना और जीना 
लुभाता रहा मुझे


इच्छा

मेरी इच्छा के गर्भ में पल रही संतान 
मेरे सपनों में अक्सर ठहरती है तू 
मैं जुटा नहीं पाती इतना हरा 
अपने भीतर और बाहर 
जो लहलहा उठे तेरे आने से 
तेरे आने की इच्छा करने से 
रोकती हूं अपने को


हीनता 

कह जो दिया मैंने 
क्या सोचेंगे सब लोग 
छिछोरी बात, हल्के शब्द 
जाहिल छोरी


नदी - एक 

बहने को आतुर है 
एक नदी 
वेगमयी 
बांध के उस ओर 

बांध के द्वार खुलें 
तो देखें 
नदी का पारावार 


नदी - दो 

नदी बहना जानती है 
जानती है मिल जाना 
समुद्र के विस्तार में 
अपने समूचे वेग से 
भिगोती चलती है 
आस-पास की धरती 

वह तुम ही थे 
जिसने बनाए बांध 
रोक दिए नदी के पांव 
आज प्यासे बैठे हो 
नदी आए 
तो पानी लाए


जन्म की कथा

मां बताती थी 
आसमान से घर की बाखर में गिरी थी मैं 
ऐन मां की आंखों के सामने 
और उन्होंने गोद में उठा लिया था मुझे 

जन्म की कथा तो मां ही जानती हैं 
कितने ही आसमानों से गिरी हूं जाने कितनी बार 
मां ने हर बार भर लिया बांहों में 
दिया दुलार 
मेरे लिए यह दुनिया 
घर की बाखर है 
जिसमें लगाती हूं दौड़ निःसंकोच 
खेलती हूं, हंसती हूं, गाती हूं 
आसमान को छूने की जिद ठाने हूं 
पिता सीढ़ी ले आते हैं 
मां साया बन साथ रहती है


रोटी की गंध

पेट की भूख का रिश्ता रोटी से था 
यूं रोटी का और मेरा एक रिश्ता था 
जो बचपन से चला आता था 

रोटी की गंध में 
मां की गंध थी 
रोटी के स्वाद में 
बचपन की तकरारों का स्वाद 
इसी तरह आपस में घुले-मिले 
रोटी से मां, भाई और बहन के रिश्तों का 
मेरा अभ्यास था 

पिता 
वहां एक परोक्ष सत्ता थे 
जिनसे नहीं था सीधा किसी गंध और स्वाद का रिश्ता 

बचपन के उन दिनों 
रोटी बेलने में रचना का सुख था 
तब आड़ी-तिरछी 
नक्शों से भी अनगढ़ 
रोटी बनने की एक लय थी 
जो अभ्यास में ढलती गई 

अब
रोटी की गंध में 
मेरे हाथों की गंध थी 
रोटी के स्वाद में 
रचना और प्रक्रिया पर बहसों का स्वाद 

रोटी बेलना अब रचना का सुख नहीं 
बचपन का अभ्यास था


औरतें सपने नहीं देखा करतीं

हर सफल आदमी के पीछे 
होती है एक औरत ...

नितांत अकेली और असफल 

जिसकी इच्छाओं के जंग लगे संदूक में 
बंद पड़े हैं कई अधूरे सपने 
गर्द में सने 
सुगबुगाते हैं कभी अकेलेपन में उपजी इच्छाओं में 
और होते जाते हैं जमा 
उसी संदूक की अंधेरी तहों में 
जिसका ताला बरसों से खोला नहीं गया है 

जमी है जिस पर धूल 
जंग खा रहे हैं जिसके कुंदे 
चाबी जिसकी मिली नहीं कभी 
जीवन नदी के वेग में 
कब उसके हाथ से छूटी और बह गई 
अब तो यह भी याद नहीं 

उसका नहीं होता कोई एकांत 
जानते हैं सब 
औरतें सपने नहीं देखा करतीं


उसका जाना 

वह एक जंगल में गया 
जो बाहर से बीहड़ था 
अंदर से बेहद सुकुमार 

वहां जगमगाती रोशनियां थीं, 
रंग थे, फूलों वाली झाड़ियां थीं, 
सम्मोहक तंद्रिल संगीत था 

वह गया 
कि उतरता चला गया 
उसकी स्मृतियों में पीछे छूट चुके हम थे 
जिनके बाल बिखरे थे 
जिनके पैरों पर धूल जमी थी 
जो कई-कई दिनों में नहाते थे 

पलट कर उसने देखा नहीं 
हम देखते रहे उसका जाना 
एक बीहड़ में 
खौफनाक जानवरों के बीच 

हमें देख हिलाते हाथों की ऊर्जा उसकी नहीं थी


दबंग

वे जो अपनी दबंगता के लिए 
प्रभावित करते रहे थे मुझे 
दरअसल जीवन में सफल 
न हो पाने पर 
अपनी खीझ में 
ऊंचा बोलते थे बहुत


सहेलियां 

अब भी एक-दूसरी के जीवन में 
बनी हुई है उनकी जरूरत 
बीते समय के पन्नों को पलटते हुए कभी 
झांक जाता है जब 
किशोरपने का वह जाना-पहचाना चेहरा 
मुस्कान की एक रेखा 
देर तक पसरी रहती है होठों पर 

अनेक बार 
मन ही मन 
अनेक लंबे पत्र लिखे उन्होंने 
इच्छाओं की उड़ानों में 
कई बार हो आती हैं एक-दूसरी के घर 

खो जाती हैं 
एक-दूसरी के काल्पनिक सुखों के संसार में 
सचमुच के मिलने से बचती हैं 

एक-दूसरी के सुख के भ्रम में रहना 
कहीं थोड़ी सी उम्मीद को बचा लेना भी तो है


बेकार की कविताई

कविता करना भी कितना बेकार का काम है 
स्त्री होकर भी करना कविता तो 
घोर अनर्थ करना है 
कविता से न चूल्हा जलता है 
न घर चलता है 
बच्चे नहीं सोते मां की लिखी कविता सुन कर 
उन्हें लोरियां सुननी हैं 
जिनमें परियों की बातें हों 
जिनमें चांद के किस्से हों 
मां की कविता में जीवन का खटराग है 
कविता करना भी कितना बेकार का काम है

देवयानी भारद्वाज
Saturday, 4 May 2013 2 comments

नीलोत्पल की कविताएं



मित्रो! ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित और ज्ञानपीठ से ही प्रकाशित संकलन 'अनाज पकने का समय' के कवि हमारे समय के महत्त्वपूर्ण युवा काव्य-हस्ताक्षरों में से एक हैं।  नीलोत्पल की कविताएँ हमारे समय और हमारे बाहर- भीतर के परिवेश की ऎसी कविताएं हैं जिन्हें पढते हुए एक अलग ही तरह की अनुभूति होती है। नीलोत्पल की कविता में कवि नहीं, कविता बात करती है वह भी अपने पूरे उद्दाम के साथ। हमारी मनुष्यता में हो रहे स्खलन को बहुत ही बारीकी से जांचती- परखती

"घर लौटते हुए ज़रूर देख लेना कि
फुटपाथ पर सोये बेघर लोग
कितने संशयों से भरे पड़े हैं
हो सके तो
उठे नहीं उन पर कोई हिकारत भरी नज़र
इसका ध्यान रखना"
+++

"चलना है दुनिया के साथ
जो कि बाहर से ज़्यादा उमड़ती है भीतर
यहाँ एक चिडि़या का डर आसमान छूता है
और सैकड़ों शब्द निकल जाते हैं जीभ लपलपाते"

उनकी यह सूक्ष्म संवेदन द्दष्टि ही हमें उनकी कविता का पाठक बनाती है। निरंजन श्रोत्रिय द्वारा संपादित 'युवा द्वादश' में भी शामिल होने के अलावा नीलोत्पल की कविताएं नया ज्ञानोदय, वसुधा, समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, बया, साक्षात्कार, अक्षरा, काव्यम, समकालीन कविता, दोआब, इंद्रप्रस्थ भारती, आकंठ, उन्नयन, दस्तावेज़, सेतु, कथा समवेत इत्यादि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं निरंतर प्रकाशित होती ही रहती हैं। 

नीलोत्पल

जन्म: 23 जून, 1975, रतलाम, मध्यप्रदेश. 
शिक्षा: विज्ञान स्नातक, उज्जैन. 
प्रकाशन: ‘अनाज पकने का समय‘ काव्य संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित. 
पुरस्कार: ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार व विनय दुबे स्मृति सम्मान 
सम्प्रति: मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव
सम्पर्क: नीलोत्पल, 173/1, अलखधाम नगर, उज्जैन, 456 010, मध्यप्रदेश, मो.: 0-98267-32121



नीलोत्पल की कविताएं


   १.

नमक का पानी


घंटे भर से रो रही है
वह औरत

जहां वह रो रही है
वह जगह उसकी नहीं है
शायद किसी दूसरे की भी नहीं

वह रास्ता है
लोग निकलते हैं
और उसका रोना देख
ठहर जाते हैं कुछ देर के लिए

कुछ देर के लिए लगता है
जैसे शामिल होने जा रहे हों
जैसे दौड़ ही पड़ेगा अभी कोई
उसे समझााने के लिए
लेकिन पाँव आगे बढ़ते नहीं

लोग निकल रहे हैं
और ऐसा चल रहा है

जबकि
पत्ते गिर रहे हैं लगातार
मिट्टी सोख रही है नमक का पानी
सुखा देगी हवा उसके गालो पर ठहरे दुख को

लेकिन ऊपर ही ऊपर तैरते शब्द
नहीं जान पाएंगे
वह नमक का पानी
कितने समुंदर का मथा है
कितने अहसास डूबे हैं उसके भीतर

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          २.

मैं बताना चाहता था फ़सलों की अनंत स्मृतियां


डरता हूँ खुद के करीब जाते हुए
डरता हूँ कहीं कोई देख न ले
पकड़ न ले अपनी निगाह में

कहीं कुछ छिपा रहा हूँ
कोई खिड़की खोल दे
मारे शर्म के धँस पडँू

कितनी ही बातें नंगा करती रहीं
जिन्हें ढ़ँकने की कोशिश में लगा रहा
बचता जिनके खि़लाफ़ होना था

फतवे, जुलूस, झण्डों के पीछे नहीं गया
चीज़ों के मायालोक में नहीं धँसा
फिर भी झुलसाती रहीं उनकी लपटें
चीखता रहा वसंत को वसंत कहते हुए
लेकिन लोगों का ध्यान दंगों ने खींचा

ये मेरी हक़ीक़त है
मैं रोटी के लिए नहीं लड़ा
रोटी बनाने वाले हाथों ने मेरा साथ दिया

मैं कह नहीं पाया उनके बारे में
वे हमेशा देते रहे अपने होंठों और हाथों की गरमाई
मै बताना चाहता था फसलों की अनंत स्मृतियाँ
और हाथों का तनाव भरा जि़क्र

वक़्त के चाक पर सभी को होना है
समुद्र की तरह न सही
लहर की तरह न सही
बून्द की तरह न सही
समुद्र की छाया में तन रही चट्टान की तरह
जीना चाहता हूँ समुद्र का आवेग
जो बार-बार टकराता है मुझसे


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                 3.

तुम्हारे सहारे ही जीता आया हूँ अंधेरा


रात घिर रही है
उतर रही हो तुम
मेरे अंधेरे में
उदास मन और ज़ख़्मों को सहलाते हुए

तुम्हें समेट लेना मेरे बस में नहीं
जैसे तनाव में ढिली छोड़ी रस्सी
साँस ले रही है
तुम्हें जीतने के इरादे से हारा
खुल रहा हूँ बेहद शांत
तिनके की तरह हलका होता

नहीं चाहता
समय की आपाधापी में
नष्ट हो तुम्हारे साथ जीये गए सपने
नदियों, दरख़्तों, हवाओं को सौंपने से पहले
भींगना चाहता हूँ एक बार फिर
उसी बारिश में

तुम्हारे साथ के भरोसे ही
जीता आया हूँ अब तक
तुम महज़ स्त्री नहीं हो मेरे लिए
पराजित योद्धा की आँखों में
डूबती हुई उदास चीज़ों पर
रचती रही हो समय का पहला पतझर
वसंत के लिए

तुम्हारे सहारे ही जीता आया हूँ अंधेरा

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            ४.

मैंने अपने दिनों को उम्मीदों से सराबोर रखा


मेरे मरने के बाद भी
इस दुनिया को सुंदर बनाने की कोशिशं जारी रखना

मैं जो खटता और खपता रहा हँ तुम्हारी ही तरह
मैंने अपने दिनों को उम्मीदों से सराबोर रखा
प्यार के उन दिनों की तरह
सपनों से भरपूर उमंगों में जीते हुए

घर लौटते हुए ज़रूर देख लेना कि
फुटपाथ पर सोये बेघर लोग
कितने संशयों से भरे पड़े हैं
हो सके तो
उठे नहीं उन पर कोई हिकारत भरी नज़र
इसका ध्यान रखना

मज़दूरों के हाथ बड़े सख़्त
और कपड़े कुछ मैले हैं
उनसे हाथ मिलाते या गले लगते हुए
संकोच मत करना

प्यार करते हुए
अपनी आत्मा को गवाह बनाना
और याद रखना
उगती पत्ती तुम्हें और झरती
तुम्हारे प्यार को बना रही है

जब कभी थककर हारने लगो
गुनगुनाना कविता में अपनी बेचैनी
हो सकता है दुनिया तुम्हारे खि़लाफ़ हो
नापसंद हों उसे तुम्हारे शब्द
लेकिन खुले आकाश के नीचे
तुम्हारी कोशिश भरी हार भी
सबब बन सकती है दूसरों के लिए

कोशिश करना कि अपने होने के बाद भी
बातें कर सके अगली पीढ़ी
अपनी इस पीढ़ी के बारे में
उन्हें लगे नहीं कि
दो वृक्षों के बीच छायाएँ पनपती नहीं

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          ५.

जहां एक चिडि़या का डर आसमान छूता हैं


जिस तरह शामिल होता हूँ जीवन में
बकबकाता हूँ
ग़ुस्से या अधीरता से
लड़खड़ाते जूझता हूँ

चाहे कोढ़ी के सामने फेंके सिक्के-सा
अचकचाया होऊं
या अपनी कलप छिपाने के लिए
मुस्कराता फिरूं
भिड़ना है मुझे अपनी ही असंगति से

चलना है दुनिया के साथ
जो कि बाहर से ज़्यादा उमड़ती है भीतर
यहाँ एक चिडि़या का डर आसमान छूता है
और सैकड़ों शब्द निकल जाते हैं जीभ लपलपाते

इसी मिट्टी में बदलता है रंग
चीज़ें हरी होने लगती हैं
मिलते हैं शब्द यहीं

मेरी बेचैनी शब्दों के लिए नहीं
है जीवन में उठ रहे अंतर्विरोधों को लेकर

जैसे कोई दरवाज़ा खुलने को है
और सारी इबारतें नक़्शा हैं इस व्यापक जीवन का

ख़ुद को खोता हूँ
लगता है आगे लहरें हैं
लहरों को ठेलती-तोड़ती हुईं
मेरे अंदर की सत्ता
इसी कशमकश का परिणाम है

मेरे लिए यही कविता है कि
मैं चुका नहीं हूँ
जीवन में गहरी होती जा रही फाँकों के बीच
खु़द को धर देने के लिए

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नीलोत्पल,  उज्जैन


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