दीपक अरोड़ा का असमय निधन, युवा कविता की अपूरणीय क्षति.........
![]() |
| दीपक अरोड़ा |
ज़िन्दगी की एक किताब है ,जिसके पन्ने हर जगह मुड़े हुए हैं | जहाँ से खोल लो ...नयी जगह ,नया दिन ,नया सफ़र | जिंदगी के साल ,ख़ाली जमीन को मकानों ,दफ्तरों ,फौज की छावनियों में तब्दील करते गुज़रे | ख़ाली जगह को ईमारत बना भरता हूँ ,आबाद देखने से पहले ,किसी खुली ,ख़ाली जगह नयी ईमारत को तामीर करने निकल पड़ता हूँ |लिहाज़ा ज़िन्दगी खानाबदोशी में कटी | कविता में आना कुछ यूँ रहा,जैसे बरसात में चप्पल पहन निकले किसी के कपडे ,छींटो से भर जाए ..और उसे पता भी ना चले |
दीपक अरोड़ा की कुछ कविताएं
१
एक विंडचाइम,
बहुत सालों से ,
घर के दरवाज़े पर
लटकी है,मेरे कुल कद से ,
एक सेंटीमीटर ऊँची,
बिला नागा बजती है ,
जब भी मैं गुज़रता हूँ ,
इस दरवाज़े से हो कर ,और
अक्सर तो तब भी ,
जब मैं घर नहीं होता ,
न आया हुआ ,ना जाता हुआ |
दरअसल ,यह सिर्फ गुसलखाने की ,
टूटीयों की टिप -टिप ही ,
नहीं होती ,जो रात भर टपकती है ,
नीचे पड़ी प्लास्टिक की ,
बाल्टियों में ,और आप ,
आधी -आधी रात को ,
उठ बैठते हैं ,अक्सर तो
पूरी रात ही नहीं सोते |
ज्यादा आसान लगता है आपको ,
खुद को इन्सोम्निक बता कर ,
बड़े बाज़ार वाले केमिस्ट से ,
हफ्ते में दो बार नींद की ,
गोलियां मंगवाना ,बजाय
एक ही बार प्लम्बर बुला कर ,
सारी टूटीयां ठीक करवा लेने से |
२.
दरअसल आपके
और सिर्फ आपके सिवा ,
पुरे घर में ,कोई भी नहीं जानता ,कि
टूटीयां जब टपकती हैं,
बूंदें बन कर,स्मृतियों की बाल्टियों में,
तब नीमबंद आपकी पलकों से ,
एक समय भी गुज़रता है ,
सुरमचू की तरह ,और
याद आते हैं वह दिन,
जब आप नुक्कड़ों पर खड़े,
किसी परी चेहरा दोशीजा के ,
वहां से गुजरने का इंतज़ार करते थे,
जिसके एक नज़र आपको ,
देख लेने भर से ,दिन भर
प्रेम की बूंदें टपकती रहतीं थीं ,
दिल के मटके में |
३.
सच कहूं ,तो
आप इमानदार नहीं हैं ,
अपनी नींद के साथ भी ,
और जीना चाहते हैं ,
विंडचाइम और कालबेल ,
की घंटियों के बीच ही कहीं ,
अपने बचे हुए समय को ,
गहरी काली रातों में ,
सायं-सायं करती तेज़ हवा चलती है ,
और हवा से हिलती ,
विंडचाइम की पाइपें,
एक दुसरे से टकराती हैं ,
सर्द रातों में भी आप ,
दरवाज़ा खोल कर देखते हैं ,
जहाँ किसी ने ,
अब होना ही नहीं है |
*****
जागता.......
मैं बहुत दिन से सोया नहीं ,कि
आँख का भार से झपक जाना होता सोना ,तो
मैं जागा ही नहीं कभी .
दरअसल जागने और सोने के अंतराल को,
कलाई घडी से नापते निकल गयी,
सो सकने की वह उम्र,
जब समय से उगे सूरज की पहली आँख छूती किरण,
गुस्ताख प्राकृति की छेड़ लगती थी,
और सुरमे सी आँख में फिरती रौशनी,
तालाब की भैंस को बाहर निकालते,
उचारी गयी जोर की टिचकारी,
अब दिन भर की उदासियों को,
अपनी उँगलियों से छू,
जब जा पाता हूँ सोने ,
मेरी आँख में तैरती रहती हैं ,
बिना पलक की मछलियां,
जिन्हें मूंद्नी नहीं पड़ती पलकें सोने को ,कि
पलकों का मूंदना होता सोना,तो
हर सुबह अंगडाई तोड़ उठती दुनिया .
सच जाग ही जाती .
यूँ भी कहाँ सोता है सच में कोई,
जब बैठा होता है ,
एक दूसरे को थपक सुलाने का ख्याल, पलकों के भीतर .
आँख का भार से झपक जाना होता सोना ,तो
मैं जागा ही नहीं कभी .
दरअसल जागने और सोने के अंतराल को,
कलाई घडी से नापते निकल गयी,
सो सकने की वह उम्र,
जब समय से उगे सूरज की पहली आँख छूती किरण,
गुस्ताख प्राकृति की छेड़ लगती थी,
और सुरमे सी आँख में फिरती रौशनी,
तालाब की भैंस को बाहर निकालते,
उचारी गयी जोर की टिचकारी,
अब दिन भर की उदासियों को,
अपनी उँगलियों से छू,
जब जा पाता हूँ सोने ,
मेरी आँख में तैरती रहती हैं ,
बिना पलक की मछलियां,
जिन्हें मूंद्नी नहीं पड़ती पलकें सोने को ,कि
पलकों का मूंदना होता सोना,तो
हर सुबह अंगडाई तोड़ उठती दुनिया .
सच जाग ही जाती .
यूँ भी कहाँ सोता है सच में कोई,
जब बैठा होता है ,
एक दूसरे को थपक सुलाने का ख्याल, पलकों के भीतर .
दीपक अरोड़ा
(साभार- प्रथम पुरुष)




- Follow Us on Twitter!
- "Join Me on Facebook!
- RSS
Contact