
मित्रो! उदाहरण में आज हमारे बीच हैं राकेश रोहित। फेस बुक पर सक्रिय कवियों में राकेश रोहित हमारे समय के ऎसे कवि हैं जो अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति में अपने समय को अपने तरीके से मांजने का प्रयास कर रहे हैं। राकेश की कविताएं स्वयं अपना शिल्प गढ़ती है और बिना किसी शब्दाडंबर के हम से सीधी मुखातिब होती है। ये कविताएं कहीं से भी इकरंगी नहीं है। जिस तरह ये कविताएं अपने समय- परिवेश की विषमताएं और विडम्बनाएं हमारे सामने रखती हैं, भरोसा दिलाती है कि राकेश की कविता दूर तक जाने की कुव्वत रखती है।
राकेश रोहित
19 जून 1971 जमालपुर में जन्मे व कटिहार (बिहार) से शिक्षित- दीक्षित राकेश भौतिकी में स्नातकोत्तर हैं। कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि रखते हैं। पहली कहानी "शहर में कैबरे" 'हंस' पत्रिका में प्रकाशन व "हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं" आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित होने के अलावा हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, आजकल, नवनीत, गूँज, जतन, समकालीन परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर, सारिका, संदर्श, संवदिया, मुहिम, कला आदि महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचनात्मक आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक रपटें प्रकाशित।
संप्रति : सरकारी सेवा.
ईमेल - Rkshrohit@gmail.com
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हरियाली की तरह बिखरा रहूँ सृष्टि के समवाय में- राकेश रोहित
कविता में उसकी आवाज
वह ऐसी जगह खड़ा था
जहाँ से साफ दिखता था आसमान
पर मुश्किल थी
खड़े होने की जगह नहीं थी उसके पास।
वह नदी नहीं था
कि बह चला तो बहता रहता
वह नहीं था पहाड़
कि हो गया खड़ा तो अड़ा रहता।
कविता में अनायास आए कुछ शब्दों की तरह
वह आ गया था धरती पर
बच्चे की मुस्कान की तरह
उसने जीना सीख लिया था।
बड़ी-बड़ी बातें मैं नहीं जानता, उसने कहा
पर इतना कहूँगा
आकाश इतना बड़ा है तो धरती इतनी छोटी क्यों है?
क्या आपने हथेलियों के नीचे दबा रखी है थोड़ी धरती
क्या आपके मन के अँधेरे कोने में
थोड़ा धरती का अँधेरा भी छुपा बैठा है?
सुनो तो, मैंने कहा
.......................!!
नहीं सुनूंगा
आप रोज समझाते हैं एक नयी बात
और रोज मेरी जिंदगी से एक दिन कम हो जाता है
आप ही कहिये कब तक सहूँगा
दो- चार शब्द हैं मेरे पास
वही कहूँगा
पर चुप नहीं रहूँगा!
मैंने तभी उसकी आवाज को
कविता में हजारों फूलों की तरह खिलते देखा
जो हँसने से पहले किसी की इजाजत नहीं लेते।
*****
उन्माद भरे समय में कविता की हमसे है उम्मीद
बहुत कमजोर स्वर में पुकारती है कविता
उन्माद भरा समय नहीं सुनता उसकी आवाज
हिंसा के विरुद्ध हर बार हारता है मनुष्य
हर बार क्रूरता के ठहाकों से काला पड़ जाता है आकाश।
सभ्यता के हजार दावों के बावजूद
एक शैतान बचा रहता है हमारे अंदर, हमारे बीच
हमारी तरह हँसता-गाता
और समय के कठिन होने पर हमारी तरह चिंता में विलाप करता।
जब मनुष्य दिखता है
नहीं दिखती है उसके भीतर की क्रूरता
और हम उसी के कंधे पर रोते हैं, कह-
हाय यह कितना कठिन समय है!
कविता फर्क नहीं कर पाती इनमें
इतने समभाव से मिलती है वह सबसे
इतनी उम्मीद बचाये रखती है कविता
मनुष्य के मनुष्य होने की!
आँखों में पानी बचाने की बात हम करते रहे
और आँसुओं में भींगती रही आधी आबादी की देह
धरती कभी इतना तेज नहीं घूम पाती कि
अँधेरे में ना डूबा रहे इसका आधा हिस्सा!
रोज शैतानी इच्छाएं नोच रही हैं धरती की देह
रोज हमारे बीच का आदमी कुटिल हँसी हँसता है
कविता कितना बचा सकती है यह प्रलयोन्मुख सृष्टि
जब तक हम रोज लड़ते न रहें अपने अंदर के दानव से!
समाज में अकेले पड़ते मनुष्य को ही
खड़ा होना होगा
अपने अकेलेपन के विरुद्ध
एक युद्ध रोज लड़ने को होना होगा तत्पर
अपने ही बीच छिपे राक्षसों से
इस सचमुच के कठिन समय में
कविता की यही हमसे आखिरी उम्मीद है।
*****
ज्ञान की तरह अपूर्ण नहीं
हर रोज नया कुछ सीखता हूँ मैं
हर दिन बढ़ता है कुछ ज्ञान
ओ ईश्वर! मैं क्या करूं इतने ज्ञान का
हर दिन कुछ और कठिन होता जाता है जीवन।
पत्तों की तरह सोख सकूँ
धूप, हवा और चाँदनी
फूल की तरह खिलूँ
रंगों की ऊर्जा से भरा।
पकूं एक दिन फल की तरह
गंध के संसार में
फैल जाऊं बीज की तरह
अनंत के विस्तार में।
हरियाली की तरह बिखरा रहूँ
सृष्टि के समवाय में
ना कि ज्ञान की तरह
अपूर्ण, असहाय मैं!
*****
पंचतंत्र, मेमने और बाघ
पानी की तलाश में मेमने
पंचतंत्र की कहानियों से बाहर निकल आते हैं
और हर बार पानी के हर स्रोत पर
कोई बाघ उनका इंतजार कर रहा होता है।
मेमनों के पास तर्क होते हैं,
और बाघ के पास बहाने।
मेमने हर बार नये होते हैं
और बाघ नया हो या पुराना
फर्क नहीं पड़ता।
जिसने यह कहानी लिखी
वह पहले ही जान गया था –
"मेमने अपनी प्यास के लिए मरते हैं
और ताकतवर की भूख तर्क नहीं मानती!"
*****
क्या रहेगा?
मैं पूछता हूँ बार-बार
भरकर मन में चिंता अपार
कोई नहीं सुनता...
मैं पूछता हूँ बार-बार।
लोग हँसते हैं
शायद सुनकर,
शायद मेरी बेचैनी पर
उनकी हँसी में मेरा डर है-
जब कुछ नहीं रहेगा
क्या रहेगा?
नहीं रहेगा सुख
दुःख भी नहीं
नहीं रहेगी आत्मा,
जब नहीं रहेगा कुछ
नहीं रहेगा भय।
कोई नहीं कहता रोककर मुझे
मेरा भय अकारण है
कि नष्ट होकर भी रह जायेगा कुछ
मैं बार-बार लौटता हूँ
कविता के अभयारण्य में
जैसे मेरी जड़ें वहाँ हैं।
मित्रों, मैं कविता नहीं करता
मैं खुद से लड़ता हूँ
- जब नहीं रहेगा कुछ
क्या रहेगा?
*****
पंचतंत्र की कहानियों से बाहर निकल आते हैं
और हर बार पानी के हर स्रोत पर
कोई बाघ उनका इंतजार कर रहा होता है।
मेमनों के पास तर्क होते हैं,
और बाघ के पास बहाने।
मेमने हर बार नये होते हैं
और बाघ नया हो या पुराना
फर्क नहीं पड़ता।
जिसने यह कहानी लिखी
वह पहले ही जान गया था –
"मेमने अपनी प्यास के लिए मरते हैं
और ताकतवर की भूख तर्क नहीं मानती!"
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कविता के अभयारण्य में
जब कुछ नहीं रहेगाक्या रहेगा?
मैं पूछता हूँ बार-बार
भरकर मन में चिंता अपार
कोई नहीं सुनता...
मैं पूछता हूँ बार-बार।
लोग हँसते हैं
शायद सुनकर,
शायद मेरी बेचैनी पर
उनकी हँसी में मेरा डर है-
जब कुछ नहीं रहेगा
क्या रहेगा?
नहीं रहेगा सुख
दुःख भी नहीं
नहीं रहेगी आत्मा,
जब नहीं रहेगा कुछ
नहीं रहेगा भय।
कोई नहीं कहता रोककर मुझे
मेरा भय अकारण है
कि नष्ट होकर भी रह जायेगा कुछ
मैं बार-बार लौटता हूँ
कविता के अभयारण्य में
जैसे मेरी जड़ें वहाँ हैं।
मित्रों, मैं कविता नहीं करता
मैं खुद से लड़ता हूँ
- जब नहीं रहेगा कुछ
क्या रहेगा?
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