Saturday 19 November 2011

कल्पना पंत की कविताएं


मित्रों! इस बार उदाहरण में प्रस्तुत है कल्पना पंत की कविताएं। कल्पना जी की ये कविताएं जहां एक ओर स्त्री की मनोदशा,पीड़ा और विकट जीवन दशा को सघन अनुभूति के साथ चित्रित करती है  वहीं रिश्तों में आए क्षरण, स्वार्थ  को भी बहुत ही सहज भाव से टटोलती हैं



लेखन- पुस्तक-कुमाऊँ के ग्राम नाम-आधार संरचना एवं भौगोलिक वितरण- पहाड प्रकाशन, 2004
उत्तरा, लोकगंगा,  आदि पत्र पत्रिकाओं में लम्बे समय से कविताएं, लेख, समीक्षाएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित
वॄत्ति-    वर्तमान में रा० स्ना० म० ऋषिकेश में असिस्टेन्ट प्रो० के पद पर कार्यरत









 पहाड़ और दादी
 

पिता से सुना है
कि तुम एक आखिरी लकड़ी के खातिर
फिर से पेड़ पर चढी और टहनी टूटते न टूट्ते
अंतहीन गहराई में जा गिरी
उनकी आँखों के कोरों में गहराते व्यथा के बादलों
में  क्षत-विक्षत तुम और उनका बचपन
अपनी सम्पूर्ण वेदना में उभर आता है
क्यों गिरती रही हैं चट्टानों से स्त्रियाँ
कभी जलावन के लिये
कभी पानी की तलाश में कोसों दूर भटकते
कभी चारे के लिये जंगल में
बाघ का शिकार बनती स्त्रियाँ
बचपन में बहुत बार तलाशा है
मैने अपने सिर पर तुम्हारे हाथों का स्पर्श
पर बार-बार वही सवाल मेरे हिस्से में आया है
क्यों नहीं जी पाती एक पूरी जिन्दगी
पहाड़ पर स्त्रियाँ
*****

प्रवंचना
मैंने अपने कई स्वप्न तुमको दे दिये
तुमने उन्हें अपनी महत्वाकांक्षाओं के चक्र्व्यूह में
घेरकर क्षत-विक्षत कर डाला
पत्थर की लकीर तुम्हारे स्वप्न
और पानी की लकीर मेरा जीवन
सदियों घर समझ के सहेजा
पता न था लाक्षागॄह
हर सदी के
आज फिर दाँव पर लगा
छिन्न- भिन्न कर दी गयी
मेरी अस्मिता
मैं द्रौपदी
अपनी व्यथा लेकर
कई युगों से कई रूपों में
वंचित होकर भटक रही हूँ
अश्वत्थामा से सघन है
कष्ट मेरा
मैं द्रुपद्सुता
मैं पान्चाली
मैं साम्राज्ञी
छ्द्म !
सब प्रवंचना!

*****

अनकही


सूरज ठीक
सिर के ऊपर  है
धूप के डम्पर खाली करता हुआ
वाहनों की रेलमपेल के बीच
अपने लिए थोड़ी सुस्ताने की जगह तलाशती
कराह्ती है सड़क
अनगिन घाव सीने पर
कहाँ की मरहम पट्टी
धूल के थमे गुब्बार सा
बजबजाती भीड़ में
फीलपाँव लिये
एक हाथ से
सहारा लेने की कोशिश करता
दूसरा रोटी के लिये फैलाता
आम आदमी!
दौड़ती दुनिया में एक  बच्चा
कान मै सैलफोन लिये
अपने पिता से 
मँह्गी कारों के लिये झगड़ता है
पिता मुस्कुराता है
थोड़ा अचकचाता है
और
पिता को याद कर उदास हो जाता है
पिता की साइकिल पर बैठे
दूर तक नजर आते खेत
अरहर के
शरीफे के पेड़
बह्ती गूल
और टोकरी भर कच्चे आम
छूट जाती एक पगडंडी

दूर कहीं दूर कहीं दूर..... 











16 comments:

अरुण अवध said...

अच्छी कवितायेँ , खुद से बतियाते जीवन की बातें ! बधाई कल्पना जी को !

ओम निश्‍चल said...

कल्‍पना में कविता कहने का माद्दा है। अगर कविता में नैरेटिव का सधा इस्‍तेमाल वे करें और देखें कि वह केवल एक किस्‍सागोई या वृत्‍तांत भर होके न रह जाए तो वे वाकई हिंदी कविता में विरल सृजन संभव कर सकती हैं। फिलहाल इस युवा कवयित्री को बधाई।

Kiran Tripathi said...

कल्पना पन्त की कविता- ’पहाड़ और दादी’ में पर्वतीय क्षेत्र की उन मेहनतकश महिलाओं का मर्म है, जो सुबह से शाम तक खेतों और जंगलों में अथक परिश्रम करती हैं, पर उनके हिस्से के दुख और व्यथा का अंतहीन सिलसिला आजीवन चलता है। ’प्रवंचना’ समाज में स्त्री की अस्मिता पर सवाल खड़ा करती हुई कुछ झकझोर जाती है। तीसरी कविता ’ अनकही’ रोजमर्रा की समस्याओं से ग्रस्त आम आदमी और उपभोक्तावाद के चक्रव्यूह में फँसी अगली पीढ़ी की विडम्बना, सामाजिक विषमता के बढ़ने से आपसी रिश्तों की गर्माहट के कम होते चले जाने की अभिव्यंजना है। कुल मिलाकर ये तीनों ही कविताएँ जीवन के वैविध्य को प्रतिबिम्बित करती हैं।

अंजू शर्मा said...

कल्पना दी की कवितायेँ सहज और वास्तविक धरातल से जुडी हैं, खासकर पहाड़ी अंचल और ग्रामीण परिवेश की पृष्ठभूमि में लिखी गयी ये कवितायेँ सहज ही दिल में छू गयी....स्त्री मन की अनकही अभिव्यक्ति कविताओं में आकार लेती दिखती है......कल्पना दी को इन सुंदर कविताओं के लिए बधाई......

meeta said...

बहुत खूबसूरत अभ्व्यक्ति ... नर्म शब्दों में कसैली सच्चाई !!

Vandana Sharma said...

बिना लाग लपेट सीधे सीधे शब्दों में ढलतीं कोरी कोरी पहली अनुभूति सी कल्पना की कवितायें सहसा रोकतीं हैं ..उन्हें बहुत बहुत शुभकामनाएं

स्वप्नदर्शी said...

Badhiya! If I am not mistaken, are you Kalpana Tripathi, who at one point used to live in KP.
-Sushma

siddheshwar singh said...

बहुत अच्छी कवितायें , सचमुच बहुत अच्छी।

Reena Pant said...

vastvikta key bahut karib abhivyaktiyan....bahut achi..

लीना मल्होत्रा said...

कल्पना की कविताओं में एक आत्मीयता झलकती है जो उनकी विशेषता है.. बधाई.

मोहन श्रोत्रिय said...

'पहाड़ और दादी' तथा 'प्रवंचना' विशेष रूप से पसंद आई. दोनों परिपक्व रचनाएँ हैं, कल्पना से उम्मीद बढ़ाने वाली.मेरी शुभकामनाएं.

मनोज पटेल said...

बहुत अच्छी कविताएँ...

जीवन सिंह said...

कविताओं में इसलिए दम है क्योंकि वे अपने अनुभवों से उपजी हैं

जीवन सिंह said...

कविताओं में इसलिए दम है क्योंकि वे अपने जीवनानुभवों से उपजी हैं ------जीवन सिंह

Suman Dubey said...

kavitaa ji namaskaar jivan ke rang se rangi kavitaaye.

कल्पना पंत said...

❤️

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