Sunday 11 May 2014

बाश्शा को इतिहास से बड़ी नफरत थी...संध्या नवोदिता


मित्रो! आज उदाहरण में प्रस्तुत है युवा कवयित्री संध्या नवोदिता की कविताएं। संध्या की कविताएं देश की अधितकतर लब्ध- प्रतिष्ठ पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हुयी हैं और सराही गयी है, युवा होते हुए भी इनकी कविताओं के स्वर में जो परिपक्वता दिखायी देती है, वह दर्शनीय हैं। इनकी कविता स्त्री -मन, जीवन की गहराई के साथ- साथ निकटतम और विकटतम सामाजिक- राजनैतिक सरोकारों को बहुत ही सहजता लेकिन गहराई से पड़ताल करती दिखती है।

संध्या नवोदिता

जन्म : 12 सितंबर 1976
कवि ,अनुवादक ,व्यंग्य लेखक और पत्रकार , छात्र राजनीति में सक्रिय भूमिका ,छात्र- जीवन से सामाजिक राजनीतिक मुद्दों पर लेखन ,आकाशवाणी में बतौर एनाउंसर -कम्पीयर जिम्मेदारी निभाई. समाचार-पत्र,पत्रिकाओं ,ब्लॉग और वेब पत्रिकाओं में लेखन. कर्मचारी राजनीति में सक्रिय, कर्मचारी एसोसियेशन में दो बार अध्यक्ष .जन-आंदोलनों और जनोन्मुखी राजनीति में दिलचस्पी.
फिलहाल इलाहाबाद प्रगतिशील लेखक संघ की सचिव|


सीख रही हूँ मैं 

मैं सीख रही हूँ
शब्दों को सीधा रखना
तरतीबवार
अलगनी से उतार कर
सलीके से उनकी सलवटें निकालना
शब्दों को पहचानना उनकी परछाईं से
उनमें गुंजाइशें तराशना
सीख रही हूँ

दरअसल
शब्दों को छीला जाना है अभी
ताकि वे बने नागफनी-से नुकीले
और छूते ही टीस भर दें 
+++++++


गलती वहीँ हुई थी


तुम्हारे अँधेरे मेरी ताक में हैं
और मेरे हिस्से के उजाले
तुम्हारी गिरफ़्त में

हाँ
गलती वहीँ हुई थी
जब मैंने कहा था
तुम मुझको चाँद ला के दो

और मेरे चाँद पर मालिकाना तुम्हारा हो गया
+++++++


बाश्शा को इतिहास से बड़ी नफरत थी...


बाश्शा को इतिहास से बड़ी नफरत थी...

भूगोल से भी.. विज्ञान को तो देखना भी न चाहे 
और भाषा 
उसका क्या
गालियों की क्या भाषा... 
जैसे मुंह फटे वैसे फोड़ो

इतिहास से ऎसी खुन्नस कि चन्द्रगुप्त मौर्य को गुप्ता जी बोलता
सिकंदर को गंगा किनारे घसीट कर बिहारियों से हरवा के भगा देता
और गंंगा सतलुज के मुहाने पर जाकर खडी कर देता

सरदार की हज़ार फीट ऊंची मूर्ती में वह देखता खुद को..
और उसे याद ही नही रहता था कि सरदार तो संघ का दुश्मन था
सबको स्टैच्यू-स्टैच्यू बनाना उसका बचपन का शौक रहा
वो तो चाहे पूरी दुनिया को बोलना-“स्टैच्यू” !!

चश्मे और लाठी वाले बूढ़े का नाम लेना उसे पसंद नही था कभी

और भूगोल... न जी न .. पूछो ही न
जन्म-जन्मान्तर का बैर
कहता - तक्षशिला भी बिहार में है
यूं समझो कि वो जहां कहे वहीं सब कुछ है.
सब कुछ का मतलब ..सब कुछ !!

और बाश्शा के चेले-चपाटे, दरबारी उससे भी ज़्यादा पढ़ाकू
मतलब बाश्शा के भी बाप
बाश्शा कहे दो और दो हुए - दो सौ बहत्तर
तो चेले भी कहें- जी पांच सौ तेतालीस , पांच सौ तेतालीस
बाश्शा कहे मैं किंग..
तो चेले कहें.. हाँ जी हाँ, पूरी कायनात के बाश्शा...
बाश्शा कहे मारो
तो चेले काट के फेंक देने वाले..

तो भैया जी, हुकुम बाश्शा का.. मुलुक बाश्शा का..
अब बाश्शा तो ऐसेई सोचता
हंसता तो कभी था ही नही... चुटकुला सुनाओ तो सर उड़ा देता
बाश्शा के चाहने वाले भी चुटकुलों पर जान ले लेते थे, तडपा-तडपा के मारते.
हँसते हँसते पेट फूल जाते थे उनके औरतों को गंदी भद्दी गालियाँ देकर.

वे ठहाके लगाते थे, त्रिशूल और तलवारों पर विजातियों का सिर टांग कर
घूमते पूरे राष्ट्र में
जो इसी मुलुक में था उनकी समझ से और बहुत सारा राष्ट्र तो
मुलुक के बाहर भी बसता था,
जिसे खींच के राष्ट्र के भीतर लाने में दम फुला रहा था बाश्शा

तो साहब, अब तो हालत ये
कि बाश्शा कहे कि दिन तो दिन, बाश्शा कहे रात तो रात
और जो न कहे तो भस्त्रिका आसन करा दें चेले
आंतें घुमा के बहत्तर फीट की बना दें
तब तो जी आप सही समझे
बौरा ही गया बाश्शा...
और डोले यहाँ से वहां ... इस छोर से उस छोर...
हुंकारता... दहाड़ता...गरजता...बरसता...
बाश्शा आतिशबाजियों और पटाखों की तेज़ आवाजों के बीच उन्मत्त सा डोले
लाल-लाल ताज़े खून के छींटों से धोये रोज़ चेहरा
तो मुख कमल सा दमके उसका

नया ज़माना रहा- सो सूट बूट में फबता था बाश्शा
लाल कालीन पे चलता ,
जिधर देखे अपने स्टाइलिश चश्मे के भीतर से तो रौनक अफरोज हो
और जो लाल हो आँख तो कहर ही टूटे

मुलुक बाश्शा का , हुकुम बाश्शा का
सो बस रौंदने चला आ रहा है बाश्शा
इतिहास को, भूगोल को, पूरी कायनात को..
बाश्शा के शौक अजीब हैं.
बाश्शा की भूख अजीब है
बाश्शा की प्यास अजीब है.
+++++++


दुनिया की भूख के खिलाफ 


मैं चिड़ियों की बातें सुनना चाहती हूँ,
खेतों में भरे पानी में छप छप करना चाहती हूँ 
और जहां दीखती है धरती आसमान की गलबहियां 
वहां तक चलते चले जाना चाहती हूँ हरी घास के मखमल पर.

मैं इस खाई-अघाई दुनिया से अवकाश चाहती हूँ
आँखों में दो बूँद आंसू और 
और रोटी-पानी के सपनो को लेकर
दुनिया की भूख के खिलाफ चल रही लड़ाई का हिस्सा बनना चाहती हूँ

पेड़ों की फुनगियों पर तैरती 
ओस की ठंडी बूंदों को अपनी आँखों पर मलना चाहती हूँ

जब आधी से ज़्यादा दुनिया भूख से लड़ रही हो
अपने घर बैठ कर पेट भर रोटी खाना बड़ी अश्लील शर्मिंदगी सी लगती है.
+++++++


ओ व्यापारी 


ओ व्यापारी देखो..
मेरा मन तुम ले तो गए हो 
उसे हाट में बेच न आना 

मंहगा होगा, माँग भी होगी 
पैसे की बरसात भी होगी
लेकिन थोड़ा नेह निभाना.... 

पास तुम्हारे समय नही है 
पास हमारे धैर्य नही है 
मन का सौदा, खोट न करना 
इसे हमेशा जतन से रखना 
लौट के आना, हमें बुलाना ....

हाट कोई घर-बार नही है 
वहां कीमती प्यार नही है 
वहां के नियमों को हम न जाने 
वो बेहिस उसूल भला क्यों माने 
तुमको दिया जो, तुम से लेंगे 

देखो अपनी बात निभाना...
+++++++


खुशी ने कहा


खुशी तुम्हारे दरवाज़े तक आकर लौट गयी 
तेरह बार दस्तक देकर 
हर बार तुम व्यस्त थे अपने जन्म जन्मान्तर के दुखों को मनाने समझाने में 

चलने से पहले भी खुशी ने फिर याद दिलाया था 
कि वह खडी है तुम्हारी बस एक नज़र के इंतज़ार में पिछले कई हज़ार पलों से ..

तुमने कहा 
ओह.. बस एक और दुःख पर 
फाइनल रिपोर्ट लगा रहा हूँ,
बहुत अर्जेंट है 
तुमसे बाद में बात करूँ..

खुशी ने कहा- ठीक 
अब बाद में ही बात करेंगे !
+++++++


"प्रधानमंत्री चुप हैं" 


प्रधानमंत्री बोलते हैं
वे बोलना नहीं जानते
ऎसी छवि बना लेना उनके काम का विषैला अंदाज़ है

बेशक वे कम बोलते हैं, बहुत कम
जैसे गम्भीर सर्जरी के दौरान न्यूरो-चिकित्सक
जहाँ सब काम मरीज को एनेस्थीसिया देने के बाद शुरू ही होता है

प्रधानमंत्री
देश के दिल और दिमाग की सर्जरी में व्यस्त हैं
अब मरीज के सोचने, भावुक होने या बहस करने की
कतई गुंजाइश नहीं

मरीज कोमा में जा रहा है
प्रधानमंत्री चुप हैं.

मरीज का शरीर हरकत नहीं कर रहा
प्रधानमंत्री चुप हैं

जहर का इंजेक्शन अपना काम कर रहा है
प्रधानमंत्री चुप हैं

वे बोले थे बर्षों पहले सन इक्यानवे में एक बार
कि मरीज का आपरेशन जरूरी है

मरीज चिल्लाता रहा, विरोध करता रहा, यहाँ तक कि उसने सार्वजनिक
प्रदर्शन किए, अनगिनत बार धरना दिया, और महीनों लम्बी भूख हड़ताल पर बैठा

उसने कहा- इतना सख्त आपरेशन नहीं झेल पायेगा उसका कमजोर शरीर
दाल रोटी ही मिल जाए दोनों समय
तो हो जाएगा वह तंदुरुस्त

पर चिकित्सक
आक्स्फोर्ड का डिग्रीधारी, आपरेशन करने को बावला हुआ जा रहा था
उसने खुद ही कर दिए दस्तखत
मरीज़ के स्वीकृति पत्र पर
और उसे आपरेशन की मेज़ पर घसीट ले गया

वहाँ पहले से ही कई विशेषज्ञ मौजूद थे
कहा- मरीज का खून गंदा हो चुका है
इसे बाहर निकालना पड़ेगा और उन्होंने खून की खाली बोतलों
की सुईयाँ उसकी नसों में घुसेड़ दीं

मरीज दर्द से चिंघाड़ उठा, उसने सुईयां नोच कर डाक्टर के ऊपर फेंक दीं
मुस्तैद स्टाफ ने तेज़ी दिखायी और तुरंत
जकड लिया मरीज़ को
तब चिकित्सक ने फरमान सुनाया, मरीज सहयोग नहीं कर रहा,
उलटे स्टाफ
पर हमला कर रहा है, मरीज खुद अपने स्वास्थ्य के लिए गम्भीर खतरा है
इससे सख्ती से निपटना होगा.

मुख्य चिकित्सक ने मुआयना किया
मरीज है लापरवाह, अपने संसाधनों से बेखबर
दबाये बैठा है-
बढ़िया जिगर , गुलाबी दमकते हुए गुर्दे, कुलांचें भरता हुआ दिल
यानी करोड़ों की जागीर
विशेषज्ञों ने गारंटी ली बिल्कुल ठीक तरीके से
सहूलियत से निकालेंगे सब कुछ
और समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर संपन्न हुए
ऐसे बहुत से समझौता-पत्र आपरेशन थियेटर में तैर रहे थे

मरीज के ख़्वाब तक बेचने के समझौता-पत्र भी बिल्कुल तैयार थे.

यह प्रेतों का अस्पताल था..
प्रेत ही होते थे यहाँ चिकित्सा अधिकारी, विशेषज्ञ और मुख्या चिकित्सक
खून चूसने से ही बढ़ती थी प्रेत बिरादरी
बड़े बड़े चिकित्सा कक्षों में खून के गोदाम थे,
प्रेतों की फिलहाल मौज थी.
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आकाओं के पक्ष में


लेखक, लेखक तुम किसके साथ हो..
जनता मेरे लिए लड़ती है , मैं हाथ के साथ हूँ...

लेखक, लेखक तुम किसके पक्ष में लिखते हो?
जनता मुझे पढ़ती है, मैं अपने आकाओं के पक्ष में लिखता हूँ..

लेखक, लेखक तुम किसके लिए जीते हो 
जनता मुझे बड़ा बनाती है, मैं तो सिर्फ अपने लिए जीता हूँ..

लेखक, लेखक तुम जनता के ही खिलाफ क्यों हो
क्योंकि मैं फले- फूले दलों के साथ हूँ... 

लेखक,लेखक तुम लेखक नही, दलाल हो !!!
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- संध्या नवोदिता

3 comments:

Reena Pant said...

शब्दों को छीला जाना है अभी
ताकि वे बने नागफनी-से नुकीले
और छूते ही टीस भर दें ........सुन्दर प्रस्तुति ,सभी कवितायेँ दिल को छूनेवाली

Abhishek Chandan said...

नवनीत पांडेय सर बहुत सुंदर लगा

गाथांतर said...

बहुत अच्छी कविताएं

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