Friday 7 October 2011

ओम पुरोहित ’कागद’ की कविताएं

मित्रों ! उदाहरण में प्रस्तुत है आज हिन्दी व राजस्थानी में समान अधिकार से लिखनेवाले कवि ओम पुरोहित ’कागद’।  नामचीन स्वनाम धन्य आलोचकों के  लिए हो सकता है यह नाम महत्त्वपूर्ण न हो लेकिन कविता  को जानने-समझने वाले पाठकों  के लिए ओम पुरोहित ’कागद’ नाम उतना परिचित और निकट है जितनी कवि और कविता को समझने की समझ। अपने समय से सीधे मुठभेड़ करती उनकी ये कविताएं इसकी बानगी भर है।  
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जन्म: 05 जुलाई 1957
उपनाम   कागद
जन्म स्थान- केसरीसिंहपुर, श्रीगंगानगर, राजस्थान, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
अंतस री बळत(1988),कुचरणी(1992),सबद गळगळा(1994),बात तो ही (2002)'कुचरण्यां (2002) पंचलडी (२०१०) आंख भर चितराम(२०१०)सभी राजस्थानी कविता-संग्रह । मीठे बोलो की शब्द परी(१९८६),धूप क्यों छेड़ती है (१९८६),आदमी नहीं है(१९९५),थिरकती है तृष्णा (१९९५) सभी हिन्दी कविता-संग्रह । जंगल मत काटो(नाटक-२००५),राधा की नानी (किशोर कहानी-२००६),रंगों की दुनिया(विज्ञान कथा-२००६),सीता नहीं मानी( किशोर कहानी-२००६),जंगीरों की जंग (किशोर कहानी-२००६)तथा मरुधरा(सम्पादित विविधा-१९८५) विविध राजस्थानी,हिन्दी और पंजाबी भाषाओं में समान रूप से लेखन। राजस्थान साहित्य अकादमी का पुरस्कार, राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति अकादमी, बीकानेर का पुरस्कार। E-mail- omkagag@gmail.com   hello- 01552-268863 & 09414380571
ब्लाग -
www.omkagad.blogspot.com &
 www.kavikagad.blogspot.com
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फिर कविता लिखेँ 
आओ
आज फिर कविता लिखें
कविता मेँ लिखेँ
प्रीत की रीत
जो निभ नहीँ पाई
याकि निभाई नहीँ गई !

कविता मेँ आगे
रोटी लिखें
जो बनाई तो गई
मगर खिलाई नहीँ गई !

रोटी के बाद
कफन भर
कपड़ा लिखें
जो ढांप सके
अबला की अस्मत
गरीब की गरीबी !

आओ फिर तो
मकान भी लिख देँ
जिसमेँ सोए कोई
चैन की सांस ले कर
बेघर भी तो
ना मरे कोई !

चलो !
अब लिख ही देँ
सड़कोँ पर अमन
सीमाओँ पर सुलह
सियासत मेँ हया
और
जन जन मेँ ज़मीर !
***


प्यार 
कुछ लोग
रोटी की तलाश मेँ थे
कुछ लोग
प्यार की तलाश मेँ
कहीँ प्यार के आड़े रोटी आ गई
तो कहीँ रोटी के आड़े प्यार ।
किसी को रोटी मिल गई
किसी को प्यार
जहां जहां भी
रोटी का व्यपार पला
वहां वहां प्यार
दम तोड़ता गया !
***

शेष रहे शब्द 
बहुत व्यापक है
हमारे बीच संवाद
निश्छल अकूंत
फिर भी
ऐसा तो नहीँ है
काम आ गए होँ
शब्दकोश के
सारे के सारे शब्द !

अभी तो शेष है
बहुत से सम्बोधन
हमारे तुम्हारे बीच
जिन्हेँ लाएंगे ढो कर
शेष रहे शब्द ही !


भाषा गणित नहीँ होती
इस लिए जरा रुको
शेष रहे शब्दोँ का
तलपट मत मिलाओ
शब्दकोश के पन्ने पलट कर।

आने वाले शब्द
अंतस से झरेंगे
या फिर हो सकते हैँ
शब्दकोशोँ से
बहुत दूर के
थोड़ा धैर्य भी रखो
अपने पास !
***

अज्ञात भय 
हवाएं मेरे शहर मेँ
उदास सी बहती हैँ
आजकल हर तरफ
शायद वे जान गई हैं
इधर गरजने वाले
दूधिया से दिखते
बादलों के दामन मेँ
पानी नहीँ है उधर !

अज्ञात भय से
डरी सहमी हवाएं
पेड़ोँ के सान्निध्य से भी
बहुत कतराने लगी हैँ
चुपचाचप निकल जाती हैँ
शहर से दूर
धोरोँ पर
सिर धुन्न कर
तभी तो आजकल
नहीँ हिलता कोई पत्ता
पेड़ की किसी शाख पर !

रेत नहीँ छोड़ती
दामन हवा का
हाथ थाम कर
निकल पड़ती है
आकाश मेँ ढूंढ़ने
प्यास भर पानी !
***

3 comments:

ओम पुरोहित'कागद' said...

जय हो !

लीना मल्होत्रा said...

आने वाले शब्द
अंतस से झरेंगे
या फिर हो सकते हैँ
शब्दकोशोँ से
बहुत दूर के
थोड़ा धैर्य भी रखो
अपने पास ! sab ki sab prbhavshali aur umda kavitayen.. dhar paini hai.. ghav gahra hoga

Unknown said...

waah....
adbhut....kuchh kavitayen padhin...bahut achhi lagiin...:)
badhaai...!!!

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