Saturday 14 April 2012

अंजू शर्मा की कविताएं

इस बार मुझे सीखना है
फर्क
इन्द्र और गौतम की दृष्टि का


मित्रो! अंजू शर्मा का नाम कविताई में आज एक चर्चित नाम हैं। अंजू शर्मा की कविताएं जीवन के उधेड़बुन  में अपने अस्तित्त्व को टटोलने की कविताएं हैं। उनकी कविताओं को पढते हुए कुछ  भी आरोपित नहीं लगता.. हर कविता अपने मिज़ाज़ से बहुत ही सहजता परंतु बारीकी से अपने उत्स को पाती है।
मैनेजमेंट के क्षेत्र में नौकरी को छोड़कर परिवार और लेखन को समय देनेवाली दिल्ली वासी अंजू शर्मा की प्रिय लेखन विधा कविता और लेख है। इनकी कवितायेँ और लेख जनसंदेश टाईम्स, नयी दुनिया, यकीन, शोध दिशा, सरिता, Facts of Today आदि पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं! विभिन्न इ-पत्रिकाओं से भी जुडी हुयी हैं. kharinews.com, नयी पुरानी हलचल, सृजनगाथा, नव्या आदि में कविताएं और लेख प्रकाशित हुए हैं! अभी हाल ही मैं बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा प्रकाशित स्त्री-विषयक काव्य संग्रह "औरत होकर भी सवाल करती है" में भी आपकी कविताएं हैं, वर्तमान में अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर के कार्यक्रम 'डायलोग' और 'लिखावट' के आयोजन 'कैम्पस में कविता' और "कविता-पाठ' से बतौर कवि और रिपोर्टर के रूप में भी जुड़ी हैं। 
आत्मकथ्य- मैंने कभी भी किसी प्रयोजनवश नहीं लिखा!  अपने जीवन, समाज और आस पास घट रही घटनाओं ने जब जब मुझे प्रेरित किया शब्द अभिव्यक्ति बन कागज़ पर उतरने लगे!  मेरी कवितायेँ मात्र कवितायेँ नहीं हैं मेरी सोच है जिसे शब्दों में ढालना मेरी मजबूरी बन जाता है!   मेरी बेचैनी जब तक बाहर नहीं आती मन को कुरेदते रहती हैं, कई बार हृदय में फांस बन जाती हैं तो कभी सोचने पर मजबूर कर देती है!  वे तमाम बातें जो मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करती है वे कुछ भी हो सकती हैं, एक घरेलू शिक्षित महिला की व्यथा, समाज में सदियों से चली आ रही कुरीतियाँ, मेरे घर में काम करने वाली एक महिला, पत्थर ढ़ोने वाला एक मजदूर या देश-दुनिया में हो रहे परिवर्तन!  मेरी कविताओं में आम देशज शब्द और मिथकों का भी भरपूर प्रयोग होता है, कविताओं में आने वाले बिम्ब मेरे साथी हैं जो मेरी सहज अभिव्यक्ति को शब्दों के माध्यम से लोगों तक संप्रेषित करते हैं.......

अंजू शर्मा की कविताएं

महानगर में आज

अक्सर, जब बिटिया होती है साथ 
और करती है मनुहार एक कहानी की,
रचना चाहती हूँ सपनीले इन्द्रधनुष,
चुनना चाहती हूँ कुछ मखमली किस्से, 
हमारे मध्य पसरी रहती हैं कई कहानियां,
किन्तु इनमें परियों और राजकुमारियों के चेहरे
इतने कातर पहले कभी नहीं थे,
औचक खड़ी सुकुमारियाँ,
भूल जाया करती हैं टूथपेस्ट के विज्ञापन,
ऊँची कंक्रीट की बिल्डिंगें,
बदल जाती आदिम गुफाओं में 
सींगों वाले राक्षसों के मुक्त अट्टहास 
तब उभर आते हैं
"महानगर में आज" की ख़बरों में,
गुमशुदगी से भरे पन्ने
गायब हैं रोजनामचों से,
और नीली बत्तियों की रखवाली ही
प्रथम दृष्टतया है,
समारोह में माल्यार्पण से
गदगद तमगे खुश है
कि आंकड़े बताते हैं अपराध घट रहे हैं,
विदेशी सुरा, सुन्दरी और गर्म गोश्त
मिलकर रचते हैं नया इतिहास,
इतिहास जो बताता है
कि गर्वोन्मत पदोन्नतियां
अक्सर भारी पड़ती हैं मूक तबादलों पर...............................
*****

मैं अहिल्या नहीं बनूगीं

हाँ मेरा हृदय
आकर्षित  है
उस दृष्टि के लिए,
जो उत्पन्न करती है
मेरे हृदय में
एक लुभावना कम्पन,

किन्तु
शापित नहीं होना है मुझे,
क्योंकि मैं नकारती हूँ
उस विवशता को
जहाँ सदियाँ गुजर जाती हैं
एक राम की प्रतीक्षा में,

इस बार मुझे सीखना है
फर्क
इन्द्र और गौतम की दृष्टि का
भिज्ञ हूँ मैं श्राप के दंश से
पाषाण से स्त्री बनने
के पीड़ा से,
लहू-लुहान हुए अस्तित्व को
सतर करने की प्रक्रिया से,
किसी दृष्टि में
सदानीरा सा बहता रस प्लावन
अदृश्य अनकहा नहीं है
मेरे लिए,
और मन जो भाग रहा है
बेलगाम घोड़े सा,
निहारता है उस
मृग मरीचिका को,
उसे थामती हूँ मैं

पर ये किसी हठी बालक सा
मांगता है चंद्रखिलोना,
क्यों नहीं मानता
कि किसी श्राप की कामना
नहीं है मुझे
संवेदनाओ के पैराहन के
कोने को 
गांठ लगा ली है संस्कारों की 
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी!
 *****

मेरा मन 

मेरा मन
जैसे खेत में खड़ा एक बिजुका
महसूसता है हर पल 
तुम्हारी आवन-जावन को 
बिना कोई सवाल किये...........

और भावनाएं जैसे
पीहर में बैठी विवाहिता 
गिन रही हो गौने के दिन,
बार बार देखती हुई 
टूटा बक्सा और मुट्ठी भर नोट............

फिर भी उम्मीदें 
जैसे खेत की मेड़ों पर
घूमते धूसरित कदम
दौड़ पड़ते हैं देखते ही
प्याज, रोटी और हरी मिर्च..........

अंततः प्रेम
जैसे किसी मदमस्त शाम 
नहर के किनारे 
ठंडी हवा में एक ही फूल को
टुक निहारते हुए दो जोड़ा ऑंखें...................
*****

 

आत्मा


मैं सिर्फ़
एक देह नहीं हूँ,
देह के पिंजरे में कैद
एक मुक्ति की कामना में लीन
आत्मा हूँ,

नृत्यरत हूँ निरंतर,
बांधे हुए सलीके के घुँघरू,
लौटा सकती हूँ मैं अब  देवदूत को भी 
मेरे स्वर्ग की रचना 
मैं खुद करुँगी,

मैं बेअसर हूँ
किसी भी परिवर्तन से,
उम्र के साथ कल
पिंजरा तब्दील हो जायेगा
झुर्रियों से भरे
एक जर्जर खंडहर में,
पर मैं उतार कर,
समय की केंचुली,
बन जाऊँगी 
चिर-यौवना,

मैं बेअसर हूँ
उन बाजुओं में उभरी नसों
की आकर्षण से,
जो पिंजरे के मोह में बंधी 
घेरती हैं उसे,

मैं अछूती हूँ,
श्वांसों के उस स्पंदन से
जो सम्मोहित कर मुझे
कैद करना चाहता है
अपने मोहपाश में,

मैंने बांध लिया है 
चाँद और सूरज को
अपने बैंगनी स्कार्फ में,
जो अब नियत नहीं करेंगे
मेरी दिनचर्या,

और आसमान के सिरे खोल
दिए हैं मैंने,
अब मेरी उड़ान में कोई 
सीमा की बाधा नहीं है,
विचरती हूँ मैं
निरंतर ब्रह्माण्ड में 
ओढ़े हुए मुक्ति का लबादा,
क्योंकि नियमों और अपेक्षाओं 
के आवरण टांग दिए हैं मैंने
कल्पवृक्ष पर.......
*****

 

पापा

 

उसके जन्म का कारण थे तुम,
पर रहे हमेशा परिणाम से बेखबर,
हर व्यस्त सड़क पर
ढूँढा नन्ही सी एक हथेली ने
तुम्हारी ऊँगली को,
उसकी ह़र उपलब्धि तलाशती रही
भीड़ में एक मुस्कुराता चेहरा, 
पीठ पर एक खुरदरा पर स्नेहिल आशीष,
जीवन की घुमावदार पगडंडियों पर
जब भी पाया तुम्हारा साथ 
सदा संकोच ने जकड लिए छोटे छोटे पांव,
फिर भी कल्पना की, माथे पर एक प्यार भरे चुम्बन 
और एक आश्वासन से भरे स्पर्श की,
फिर भी तुम्हारी हर पीड़ा व्यथित करती है उसका मन
एक फ़ोन कॉल पर पिघलता है संबंधों के मध्य
पसरा हिमखंड, 
और प्रेम के दो बोलों की बरसात
धो देती है जिन्दगी के कैनवास से
तमाम अनचाही यादें...........पापा .......
*****

 

शब्द


तुम्हारे दायरे,
तुम्हारा अधिकार क्षेत्र, 
जहाँ पहचान है केवल शब्दों में,
और मैं जैसे ढल रही हूँ
शब्दकोष में,
गोल पृथ्वी के चारों और 
चाँद घूम रहा है मेरे साथ
अपनी कक्षा में,
हर बार पहुँच जाती हूँ
उसी स्थान पर,
गंतव्य बन जाता है फिर प्रारंभ,
मेरे गिर्द परिक्रमा कर रहा है
शब्दों का वो तिलिस्म, 
चुनती हूँ कुछ शब्द
और गुनती हूँ भाव
तुम्हारा स्पर्श, नाड़ी का स्पंदन,
धमनियों में बहते लहू की गर्माहट,
और मेरी रुधिर किसलय हथेली की लालिमा,
क्या ढाल पाऊँगी इन्हें शब्दों में,
क्या कभी पढ़ पाओगे
मेरी अभिव्यक्ति........
*****

वे आंखें


उफ़ वे आँखें,
एक जोड़ा, दो जोड़ा या
अनगिनत जोड़े,
घूरती हैं सदा मुझको,
तय किये हैं 
कई दुर्गम मार्ग मैंने,
पर पहुँच नहीं पाई उस दुनिया में, 
जहाँ मैं केवल एक इंसान हूँ 
एक मादा नहीं,
वीभत्स चेहरे घेरे हैं मुझे,
और कुत्सित दृष्टि का
कोई विषबुझा बाण
चीरता है मेरी अस्मिता को,
आहत संवेदनाओं की 
कातर याचना से
कम्पित हो उठता है  
मेरा समूचा अस्तित्व,
कितना असहज है
उस हिंस्र पशुवन 
से अनदेखा करते 
गुजरना
*****

4 comments:

sushila said...

अंजू को पढ़ना स्वयं अपने को तलाशना है। हम उनकी कविताओं में खुद को हर भाव, हर घुटन , हर सोच से गुज़रता हुए पाते हैं।
सुंदर कविताओं के सृजन के लिए अंजू को बधाई और संपादक महोदय को साधुवाद !

सुशीला शिवराण

सुभाष नीरव said...

'उदाहरण'पर पहली बार आया हूँ। अच्छा लगा यहाँ आना, ठहरना और पढ़ना। अंजू शर्मा की कविताएं संवाद रचाती प्रतीत हुईं। घनीभूत संवेदना से पगी ये कविताएं दर्शाती हैं कि आने वाले समय में इस कवयित्री से हिंदी कविता में, विशेषकर स्त्री कविता में कुछ खास आस रखी जा सकती है…
सुभाष नीरव
09810534373
कथा पंजाब( www.kathapunjab.com)
गवाक्ष(www.gavaksh.blogspot.com)
वाटिका ( www.vaatika.blogspot.com)
सृजनयात्रा(www.srijanyatra.blogspot.com)

Mridula Ujjwal said...

Anju ji ko padh kar, jaan kar bahut achha laga
koi apna sa laga

abhaar

naaz

Yashwant R. B. Mathur said...

बेहतरीन कविताएं!


सादर

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