Saturday 28 April 2012

विपिन चौधरी की कविताएं

मित्रो! उदाहरण में आज आपके सामने हैं युवा कवयित्री विपिन चौधरी। एक ऎसी कवयित्री जो कविता के माध्यम से अपने समय से प्रतिरोध व मुठभेड़ करती है। विपिन चौधरी कविताएं पढते हुए आपको महसूस होगा कि उनकी कविता किस तरह एक नए हथियार की धार तेज कर रही है । अपने दौर को चुलबुला मानते हुए कैसे उनकी कविता नई कहानियां ज़मीन पर उतार रही है । बाहर-भीतर के सभी सच से साक्षात्‍ करती उनकी कविता सच में आदमी से आदमी की यात्रा की कविताएं  ही लगती हैं। उनकी कविताओं में उनमानों का वैविध्य चकित करनेवाला है। व्यष्टि से समष्टि की उनकी यह काव्य अनुभूतियां निश्चिय ही कविता पढनेवालों  में भरोसा जगाएगी।

आत्मकथ्य
कहा जाता है कि एक कवि की तीसरी आँख जाग्रत होती है यदि सचमुच में ऐसा है तो मुझे लगता है कि मैं अपनी हर कविता से उस जाग्रत आंख में अंजन लगाती हूँ

आत्मपरिचय 
नाम-विपिन चौधरी 
जन्म -२ अप्रैल १९७६ जिला भिवानी ( हरियाणा ) के गाँव खरकड़ी मखवान में 
शिक्षा - बी.एस. सी, ऍम ए 
प्रकाशित कृतियाँ- दो काव्य संग्रह प्रकाशित 
सम्प्रति- मानव अधिकार संघ नामक स्वयं सेवी संस्था का सञ्चालन 
सम्पर्क - १००८, हाउसिंग बोर्ड कालोनी, सेक्टर १५ ए, हिसार, हरियाणा, पिन १२५००१
प्रकाशन
अँधेरे के मध्य से 2008 mamta publiction gazibad 
एक बार फिर  2008  mamta publication gaziabad (hariyana sahitaya academy se anudaan prapt) 
०९८९९८६५५१४


  
विपिन चौधरी की कविताएं


साँझ के हथियार

खुद सूनी साँझ एक नुकीला हाथियार मुझे सौंप
सुस्ताने लगती  है

हर शाम मैं बरामदे में बैठ
एक नए हथियार की धार तेज़ करती दिखती हूं

आज शाम की इस बारिश ने
कई छोटी बड़ी बर्छियां मुझे थमा दी हैं

साँझ दर साँझ
ढेर सारे हथियारों का ज़खीरा
मेरे क़दमों में बिछ गया है

सप्ताहांत मैं इन सभी हथियारों को इक्कठा कर
पीछे के आंगन में रख
सोने चल देती हूं
यह अनुमान लगाते हुए कि कल की साँझ
मुझ कौन सा नया हथियार सौंपेगी
*****

एक प्रश्न के जवाब में

कितनी जल्दी बुढे हो जाते हैं
हमारे चहेते काका- दादा लोग  

रोज़ नई अडंगी डालने वाले 
कमीज़ में सुराख़ करने वाले
नई रबर पेंसिल चोरी करने वाले 
टिफिन बॉक्स से लज़ीज़ खाना गड़प करने वाले
दोस्त तो सदा कड़क जवान बने रहते हैं 

मंगलू काका
जो रोज़ इक नई कहानी को जमीन पर उतारा करते 
कांसी की थाली में परोसी बाजरे की खिचड़ी को
इतनी देर तक फेंटते
की खिचड़ी की सफेदी खुद शर्माने लगती
कभी- कभी लगता कि  काकी का चूल्हे ने अधपकी खिचड़ी पकाई है
बाकी का कमाल तो काका की ऊंगलियों ने किया है 

काका देर रात गए घडे बनाते और
मैं उकडू बैठ उनकें उँगलियों का जादू बिना पलक झपकाए देखा करती
चाक पर मिटटी का लौंदे से सुराही बनाते काका
जादूगर के सगे भाई  दिखाई देते 

 अपने उस चुलबुले दौर में
घर वाले सिपाही के नाती लगते  
और काका फरिश्तो के दूत 
घर वालों की टोली में से एक बाशिंदा
मुझे ढूँढने काका के दलान में आ धमकता  

काका गिरते भागते
अधेरे कों टटोलते मुझे
कहीं गुल कर दिया करते

काका की चेचक के निशान से लदे दागिले काले चेहरे पर
आँखों की बजाये दो काले गड्ढे थे 
जिन पर मैं अपनी नन्ही उंगलियां
कुछ इस अनुमान से फेरती कि

किसी तरह दिख जाए काका को मेरा नन्हा चेहरा
दिख जाये मेरे घुंघराले बाल
एक आँख में डला काज़ल
मेरी धुल सनी चड्डी -बनियान

एक वक्त के बाद
किसी शाप की छाया के नीचें आ
काका-भतीजी का यह रिश्ता
दो देशो जैसा कंटीला हो गया

मेरे दादा की काका से बिगड गई
इस बैर-राग का पहला और आखिरी निशाना
मैं ही बनी 

टांग तोड़ दूंगा कुम्हार मोहल्ले की तरफ देखा भी कभी तो
छोटे चचा ने आँख तरेरी
मेरे आंसुओं की कहानी
किसी किताब में बंद हो गयी 

मेरा कद ऊँटनी से टक्कर लेने लगा
मेरी युवा आँखों के सामने
यह दुनिया गर्म पानी में रखे अंडे की तरह मेरे सामने उबलने लगी

इस बार गाँव आने पर  
आँखों के गढ्ढों में गंदगी लिए मैले-कुचले काका को देख कर
मैं अपने में सिमट
दो कदम पीछे हट गई
दोष मेरा नहीं मेरी साफ़ सुधरी विरासत का था
जिसे हर मैली चीज़ से उबकाई आती थी

मेरी बचपन की चपलता को काला चोर ले गया
गांव के चौबारे में एक लड़की और
वह भी शहर से आयी हुई,

दुनिया कुछ अलग तरह से सोचती है और मैं
क्या सोचती हूँ 
उसकी किसी को परवाह नहीं है

मंगलू काका तो दुनिया को चालू हालत में छोड
अपने धाम चले गए   
मै वापिस अपनी उस दुनिया में हाथ-पाँव मारने लगी  
जहाँ पर ना कोई मंगलू कुम्हार सा सिद्धहस्त हाथ हैं ना 
कोई स्नेहिल मंगलू काका
*****   

गांठ में बंद आखर

मन का अपना फलसफा हुआ करता है
और मन की चमड़ी का अपना
चमड़ी चूँकि बाहर की हवा में साँस लेती थी
सो हमारी दोस्ती उसी से थी

मन के इसी फलसफे में
एक तख्ती के लिए भी जगह थी
जिस पर लाख साफ़ करने पर भी
शब्द मिटते नहीं थे

सफाई से महज़ धूल ही साफ़ होती है
या फिर मन भी ? 
कुछ साफ़ करने से मन का तापमान भी घटता बढ़ता है क्या

निश्चित काम को दोहराते-फलाते  
पुरानी गठरी में रोज़ एक नई गांठ लगती जाती है
पुरानी गांठ के ऊपर एक नई आंट

शब्दों पर मोती टांकना
का जुनून हुआ करता था तब
और होड भी सबसे करीबी दोस्त से होती  

तब कोई गांठ बंधती भी थी तो
दसों उँगलियों के संकोच बिना

मास्टर की मार का असर जितना घमासान होता था
उतना आज पूरा का पूरा आसमान टूटने पर भी नहीं होता

रात के भोजन से भी ज्यादा जरूरी था
तख्ती के पुराने सूखे हुए हर्फों को साफ़ करना

मुल्तानी मिटटी खत्म हो गई है
तेज दौड़ के साथ पड़ोसन काकी के घर से ला
कुछ देर भीगो कर उससे तख्ती को साफ़ करना
सभी कामों का सरताज होता 

कई गांठे तो आज भी मन में कुंडली जमाए बैठी हैं
तख्ती पर आड़े लेटे आखर आज भी लेटे हैं मुस्तैद

आज भी मन की वह गांठ कसी कसाई
है ज्यों की त्यों
और तख्ती पर उकरे शब्द आज भी
गीले हैं
*****

महानगर

महानगरों में बने रहते हैं हम
अपने आपको लगातार ढूँढते हुए

इसके अतिरिक्त भार को अपने कमज़ोर कंधो पर ढोते
अभिमान से अभिज्ञान तक के लंबे सफर में
बेतरतीब उलझे हुए हम

महानगर की बोझिल धमक हमें
हर कदम पर साफ़ सुनाई देती है
इसके कंटीले शोर में हम खो गए हैं

फ़िलहाल हम इसके शयनकक्ष में आ चुके हैं
अब यहीं से अपने आप को खोने का पूरा मुआवजा लेंगे

दूर तक बिखरी हुई उदासी से
खुशी के बारीक कणों कों छानते हुए
महानगरों के सताये हुए हम
अपने गांव- कस्बों से
बटोर लाई खुशियों को बड़ी कंजूसी से खर्च करते हैं
  
महानगर के करीब आ कर
हमे बरसों के गठरी किये सपनों कों परे सरका कर
कठोर जमीन पर नंगे पाँव चलने की आदत डालनी पडी हैं

महानगर के पास ख़बरों का दूर तक
फैला हुआ कारोबार है
जो महीन खबरें तुम्हारें पथरीले पैरों तले कुचली जाती है
वही हमारे लिए पीड़ा का सबब बनती है
महानगर

फ्लाई ओवर के नीचे से गुज़रतें हुए
एक रेडीमेड उदासी हमारे अगल-बगल हो लेती है
लंबी चौड़ी इमारतें के ठीक बगल में
अपनी झोपड़ी
हमें अपने फक्कडपन का अहसास दिला देती है

महानगर तुम्हें लांघते हुए चलना
अपने आप कों
बड़ा दिलासा देना है

तुम्हारी चाल बहुत तेज़ है महानगर
लेकिन तुम्हें शायद यह मालूम नहीं
एक समय के बाद
दौड़ते फांदते इठलाते खरगोश की
चाल भी मंद पड़ जाती है
*****

आदमी से आदमी तक की यात्रा

शुरुआत से अंत तक का सफर
आदमी से आदमी तक का ही है

भीड़ में गुम होता आदमी
तनहाई से गुज़रता आदमी

आदमी से भिड़ता आदमी
आदमी के भीतर इंसान खोजता आदमी

इतना सब होने पर भी
हरेक आदमी की एक आँख
ढूंढती रहती है
अपने लिए ज़मीन का वह टुकड़ा
जिस पर किसी
दूसरे आदमी के पदचिन्ह ना हों 
*****

बहाने से

अतीत की तलहटी में गोता लगाने के लिए
यह ध्यान रखना भी ज़रूरी था कि
साथ- साथ चल रहे समय के माथे पर बल न पडे 
तब कई महीन बहाने तलाशने का काम करना पडा 

फिर उन बहानों  की डोर पर चल कर वो सब याद किया 
जो मेरे ना चाहते हुये भी कहीं पीछे छूट गया था
यह कुछ-कुछ उल्टी दिशा में जा कर सोचने की बिमारी की तबियत का भी काम था

कुछ ठोस ना रचने की समय सारणी में मैंने
एक बहाना तलाशा और उस बहाने के ज़रिये 
पुरानी यादों की धार तेज़ की 

तब दूर छिटक गयी सहेलियों के बहाने से गुमशुदा सुख याद आया
अपने साथ खींच लाया जो
कुएँढोल और पडछती और गाँव की धूल भरी गलियां 

शादी की रीत और बढती उमर पर बात चलते ही
माँ-पिता का सम्बन्ध विच्छेद और दुध का जला छाछ भी फूक-फूक कर पीने वाली कहावत दोनों
इकटठे ही याद आये

जीवन की तेज रफतार के बहाने 
चतुर सयाने लोग याद आये 
पिछले दुखः को भूलने के उपक्रम में 
बहाने से नया ताज़ा ओढा दुख याद आया
इसी बहाने की मार्फ़त
दुनिया के तमाम दुखों से दोस्ती का माकूल बहाना मिल सका।
*****

टुंड्रा प्रदेश का सच

जीवन को
अपनी सदाबहार हरियाली तज कर
अचानक से टुंड्रा प्रदेश में रूपांतरित होते हुए
मैंने  देखा

देखते दखते वह किसी अप्रत्याशित जादू की तरह बौना हो गया
यह लगभग-लगभग उन दिनों की बात है 
जब प्रकर्ति और प्राणी आपसी बगावत की कश्मकश में थे

सपनों की मृगमरीचिका से बचने के लिये  
छोटी मुनियाँ दायी तरफ करवट लेकर सोने लगी थी

जन्मपत्री में बताये दिशा निर्देशानुसार मैंने
मोरपँख अपने सिरहानें रख लिए थे

बौनेपन में उतरने ही
जीवन ने इस कदर समाधी धारण कर ली
कि नयी ज़मीन की कच्ची पक्कीजली भुनी सभी मंत्र-सिद्ध तरकीबें उसे रट गयी
और
बाहर और भीतर के बीच मध्यस्ता स्थापित कर ली

ह नज़ारा देकते ही बनता था जब वह अपने चेहरे पर पूरे ओज़ के साथ
दिन दहाडे अपनी सुविधापुवक भीतर प्रविष्ट हो जाता 
और अपनी सुविधापूर्वक तेजी के साथ बाहर की दुनिया में गोते खाने लगता 

उसकी काई में फिसलने की सारी सुविधाऐ थी
काँटेदार झाडियाँ से बिना खरोंच के निकल पाने की उम्मीद बेमानी थी  
फिर भी मैं वहाँ अपनी आदतनुसार स्थायी रूप से जम गई  

उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक
एक से एक नयनाभिराम नज़ारे मेरी आँखों के सामने थे
पर उस सर्द बौनेपन में मेरे दिमाग से लेकर 
आत्मा तक पर सफेद बर्फ जम चुकि थी और बौनापन मुझ पर भी भारी पडने लगा

जीवन के बौनेपन की लेफ्ट-राईट और तमाम मक्कार कलाबाज़ियों देख चुकने को अभयस्त हो चुकि ये आँखें
उधर देखने लगी जहाँ 
जहाँ एक रेगिस्तान आँखों में इंतज़ार लिये अब भी खडा था।
*****

हम मुट्ठी बंद औरतें

फ़रिश्ते आकाश से उतरते हैं 
और हम मुठ्ठी बंद औरतें  धरती में समाती है 
ज्यादा  अंतर ने भी हमे दुःख दिया  
कम अंतर ने भी बरसो प्रतीक्षा करवाई 
पर इस बार अंतर कुछ अधिक  घना था 
घनी मूछों और नाजुक बिछुओं में 
हमारे मामले में एक जमा एक  दो ही बनता आया था  
बारहखड़ी का खाका भी हमारे करीब कुछ यूँ ही बना 
कि कुछ मात्राएँ हमें देखने को भी न मिली    
सब कुछ तभी बेआवाज़ था 
जब हम पलकों की तरह खुलती और  
मछली की तरह चलते- चलते ही सो लेती थी  
विप्लव तो इसके बाद आया 
जब हम अपनी तयशुदा जगह से जरा सी हिली 
एक नसल के हाथ मे
दूसरी नसल की  कमान देने का फैसला खुदा का था 
पर तुम तो खुदा के भी खुदा निकले 
बंदरबांट के नाम पर 
कुये के भीतर लटका डोल हमारे हाथ में थमा कर 
दुनिया की  और जाने वाली  दिशा मे अंतर्ध्यान हो गए 
हमारी बाट देखने की आदत को तुमने खूब भुनाया 
हम फूंकनी से फूंक  मार मार कर हलकान होती रही
तुम्हारे बच्चो  को पिठ्ठू पर लटकाये
झूठी आस के सपने बुनती रही 
हम सबके कानों मे तुम्हारी ही मरदूद  कहानी थी 
हम रंग छोड़ चुकी तस्वीरों 
हम  मुट्ठी बंद औरतों की कहानी इतनी ही थी 
कि हम 
झूठे  बचे -खुचे  अन्न के टुकड़ों के साथ 
एकमत से चुपचाप मुठ्ठी बंद लिये ही परम धाम लौट गयी
तुम्हारी अखंड शांति में बिना कोई दखल दिये.
*****
  
अतिंम रुदाली को  आवाज़ दो 

पहलेपन की सौंधियाई महक और आखिरीपन की गीली थकावट को याद रखते हुये
सब भूल गए  इस भीषण अंतराल को 
हमारी कमज़ोर स्वरलहरियों पर क्या गुजरी 
लहलहाती भूख नहीं थी यह  जो 
मोडुलर रसोई की आधुनिक चिमनी तले या कि 
सफदरजंग फ्लईओवर की दो ईंटों के चूल्हे पर रोटी बेलती औरत की नाभि से दो ऊँगल ऊपर उठ रही थी 
वह जीवित आक्रतियो का पाखण्ड था जो सदियों से सर चढ़ कर बोलता  रहा था 

छठी इंद्रियां बिना हरकत किये 
आत्मा का अल्पज्ञात रहस्य बताती चलती थी कि 
क्यों कुछ कहते-कहते रूक जाती रूहे
लम्बी ठंडी साँस ले
अधखुले दरवाज़ों की ओट में दाँतों तली ऊँगली दबाती आत्मायें
किस सोच मे पड़ कर शिथिल  हो जाती  है 

सच के  पाँव मजबूत थे 
वह बिना डोले  बोल देता  था कि हम 
अपनी चल अचल सम्पति दुपट्टे के किनारे बाँध
नगे पाँव तपती रेत पर चल देती हैं    
अपने वाष्पित आसूओं को पीछे बिसराती हुई 

किसी पश्चिमी गर्म प्रदेश में अपने दामन पर पैबंद टांके 
भरी दुपहरिया में भरोटी धोई 
नून गंठे के साथ खेत की मुंडेर पर उकडू बैठ टूक तोडे हमने    

होठो पर पपड़ी जमा देने वाली सर्द हवाओ मे 
सीढी चढ़ाई और रपटीली गहराई बिना नापे  तय की 

हमे सबसे शांत  मुहावरों  की आड़ मे सहलाया गया 

हम चकित थी   
ताउम्र पानी ढो कर भी 
हमारी बावडी  कैसे सूखी की सूखी रह गयी 

खुशियों की गंध को अपने भीतर बंद कर खुश हो लेती 
बुरेवक़्त को सिलबट्टे से रगड़ डालने का उपक्रम करती 
पर हमारे सुकून पर काली बिल्ली ने गेडा मारा 
और  ये चंद खुशियाँ भी उस रोज़  मारी गयी   

जब भरे पूरे उठान वाली सुबह  
नाचते गाते शोर मचाते ढेर सारे  बहेलिये आये 
हमारे कानों में चंद मीठी बातें कर   
चालाकी से  बारीक बुनावट वाला रेशमी जाल हमे उढ़ा, बगल मे मुस्तैद हो गए  
वो दिन है और आज का दिन है 
हम रोना भूले हुए है 
जीने का अंतिम सहारा हमसे छूट गया है 
कोई बक्शो हमे 
अंतिम रुदाली को जरा जल्दी  आवाज़ दो. 
*****






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