
शैलजा पाठक - रानीखेत में जन्म..बनारस में पढाई लिखाई ..मुंबई में रह रही हूँ आजकल..खूब सरे पत्र-पत्रिकाओं में ब्लॉग में रचनाएँ प्रकाशित.....
आँगन व अन्य कविताएं - शैलजा पाठक
1 हथेली
मेरी हथेकियों में
बादल है
कुछ उजला सांवला सा
इन्हें चेहरे पे ढँक लूँ
तो बरसते है
इनके जरा से
विस्तार में भी
विदेशी पंछियों की
कतारें उड़तीं है
देश के इस कोने से उस कोने तक
बांयी हथेली के किनारे
बच्चे वाली रेखा है
अब रेखा नही दो टिमटिमाती आँखें है
जिन्हें चूम लेती हूँ अक्सर
एक घर भी है ..मेरे नाम से
सब कुछ तो लिखा है इनमें
कुछ रेखाओं का मकड़-जाल है
मेरी उलझने हैं शायद
मैं बड़े एहतियात से धोती हूँ इन्हें .
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2 यादों की तस्वीर
वो गीतों की तस्वीर बनाती थी
आवाजों की रंगोली में काढ़ती
स्वप्न जो बिसर गए थे
आज के आईने में सहेजती
कल की यादें
उसकी उँगलियों में बेचैन अक्षरों की
अंगूठी कस जाती कभी
उतार देती खाली पन्नों पर
बिस्तर पर नींद को तहजीब से
सुलाती
करवटों को बस में रखती
गमले के पौधों को नेह से सींचती
वो नम रहते
वो उजली यादों के साथ मुस्कराती
आज दिए के साथ जला रही है
एक और इन्तजार
ठीक पूजा ख़तम होने के बाद
मेरी पहनी हुई साड़ी से जुड़ी होती हैं
तुम्हारी आँखें
बरसों पहले देखा था तुमने अपलक
अच्छी लगती हो साड़ी में
वो नज़र आज भी जिन्दा है
मैंने अभी अभी पलकें चूम लीं है तुम्हारी
अब बस भी करो ...आँखें बोलती है तुम्हारी
तुम्हारे नही होने को सुनती हूँ मैं चुपचाप ......
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3 आखिरी सच
धीरे धीरे उसके सहेजे शब्द
कविता में तब्दील होने लगे
उसके अकेले पड़ते समय में
उसके अतीत की अनुभूतियाँ
गीत बनने लगी
अपने सामने देखा उसने
उसकी कविताओं का बेचा जाना
गीतों का गाया जाना
पतझड़ में गिरे पत्तो सी
वो चरमराती समय के
पैरों तले
उसको पहचानने वाले
सभी मौसम बीत गए रीत गए
एक दिन वो झील में तब्दील हो गई
तमाम चेहरों की तमाम फिक्रें
उसमे डूबती और खो जाती
आज दो पहचानी आँखें तैर रही है
मैंने नीली साडी पहनी है
और वो आँखें देख रही है मुझे
एकटक
मैं शुन्य में तब्दील हो गई
और कवितायों को अलविदा कह दिया ...
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4 निर्णायक
वो निर्णायक की भूमिका में थे
अपनी सफ़ेद पगड़ियों को
अपने सर पर धरे
अपना काला निर्णय
हवा में उछाला
इज्जतदार भीड़ ने
लड़की और लड़के को
ज़मीन पर घसीटा
और गाँव की
सीमा में पटक दिया
सारी रात गाँव के दीये
मद्धिम जले
गाय रंभाती रही
कुछ न खाया
सबने अपनी सफ़ेद पगड़ी खोल दी
एक उदास कफन में सोती
रही धरती
रेंगता रहा प्रेम गाँव की सीमा पर ...
5 पिता
मोतियाबिंद से धुंधला गई
पिता की आँखें
रामायण के दोहे जितने याद हैं
उतने ही गाते हैं
बाकी समय राम
का धुंधलाया बचपन
याद कर
धरते हैं बालकाण्ड पर
अपनी खुरदुरी हथेलियाँ
कोमलता से
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6 नन्हीं हथेली
कुछ मिनट को रुकती है
हमारी गाड़ियां
ट्रेफिक सिग्नल पर
उस कुछ सेकेण्ड या मिनट में
रेगती है तमाम जिंदगी
हमारे इर्द गिर्द
कुछ कमजोर हाथों और सूखे होठों
वाले मासूम बेचते है खिलौने
किताबे संतरा
ये बेचते हैं अपना बचपन
हम खरीदते भी हैं कभी कभी
हमारी गाड़ियाँ खुलते ही
ये अपनी जिंदगी को वहीँ किनारे
रोक लेते हैं
कल मेरी गाड़ी के शीशे पर
एक सांवला बच्चा अपनी हथेलियों
के निशान छोड़ गया
उन हथेलियों में सन्नाटा था
फुटपाथ पे उडता एक फटा चादर
जिसे वो अपने लिए बचाता
उसकी आँखें सूखी नदी
जहाँ भूखी रेत का अंधड़ है
हमारी गाड़ियों के निचे
कुचली इनकी हथेलियां अब काली पड़ गई हैं
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7 आँगन
घर का आँगन पाट के
सुदर्शन भैया
अपने कमरे को बड़ा करवा रहे है
दीदी की शादी हल्दी संगीत
से यही आँगन गुलजार था
अपटन हाथ में छुपाये
जीजा को लगाने पर कितनी धमाचौकड़ी
की थी हमने
आँगन के अतीत में सुतरी नेवार वाली
खटिया है
अम्मा हैं कहानियां है गदीया के निचे छुपा के रखा
उपन्यास गुनाहों का देवता है
आम के गुठली के लिए
लड़ने वाले भाई बहन हैं
टुटा हुआ दिल है
भीगती हुई तकिया है
थके हुए पिता की चौकी है
इस आँगन पर झूमर सा
लटकता आसमान है
खिचड़ी की रस्म निभाई में
पूज्य लोगों के सामने इसी आँगन में
पिताजी यथाशक्ति खर्च कर भी
निरीह से हाथ जोड़े खाना शुरू करने की
विनती किये थे
लड़कियां पराई हैं न
उनके पास बस यादें है
हम यादे बचाए तुम आँगन
हो सकता है क्या ?
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-शैलजा पाठक
1 comments:
शैलजा की कविताओं से गुजरना संवेदना की गहरी झील में उतर जाने जैसा होता , और हम देर तक उसमें डूबते-उतराते रहते हैं। आभार इस प्रस्तुति के लिए।
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